Phir bhi Shesh - 24 in Hindi Love Stories by Raj Kamal books and stories PDF | फिर भी शेष - 24

फिर भी शेष - 24

फिर भी शेष

राज कमल

(24)

इतने बड़े ‘महादेव भवन' पर अब न तो ऋतुओं का खास असर दिखता है, न ही त्योहारों का। अतीत की यादों में गुमसुम बिकने के लिए सरेआम खड़ा, अपने नए मालिक का इंतजार करता हुआ। दीपावली बीत गई, बड़ा दिन और ईद भी गुजर गई। उसके अंदर वीराना ही छाया रहा। कभी हिमानी और सुखदेव की चीख—चिल्लाहट, उठा—पटक की आवाजें उसे जरूर कुछ देर के लिए जीवंत बना देती हैं। वैसे पूरे भवन में पक्षियों की आवाजें, उनके पंखों की फड़फड़ाहटें ही सारा दिन गूंजती रहती हैं।

उस दिन बसंत पंचमी थी। हिमानी को कहां याद था। गली में उसने रामानुज की बीवी, चोपड़ा साब की लड़की और एक—दो अन्य बच्चों को भी पीले कपड़े पहने देखा तो अचरज से भरी सोचती रही। बहुत देर बाद याद आया कि हो न हो, आज बसंत पंचमी ही है। ये सब तीज—त्योहार उसकी सास के जीवित रहने तक खूब चलन में रहे। उसे कभी याद रखने की जरूरत ही नहीं पड़ी। सास और जेठानी उसे, सुबह ही याद करा देती कि बहू, आज मौनी अमावस्या है, कि आज निर्जला व्रत है कि मकर सक्रांति है या कब कौन—सा स्नान है? सास के गुज़र जाने के बाद भी काफी समय तक काशी बाबा अपने फर्ज की तरह इस चर्या को निभाते रहे, लेकिन कई वर्ष हो गए, बाबा भी कहीं पीछे छूट गए। पड़ोसी भी अब इस घर के प्रति जैसे उदासीन हो गए हैं। उनके लिए महादेव भवन अब एक मनहूस खंडहर से अधिक कुछ नहीं। ऐसे चंद लोग ही बचे हैं, जो कभी—कभी इस खंडहराते की शान—शौकत की चर्चा कर लेते हैं। हिमानी ने स्वयं तो ऐसी शान—शौकत कभी देखी नहीं सिर्फ सुनी है।

जब से हिमानी ने सुखदेव से तलाक के लिए कहा है, तब से वह हिमानी के प्रति और भी तटस्थ हो गया है। उसकी दिनचर्या या उसके हाव—भाव से लगता ही नहीं कि हिमानी भी उस घर में है। पहले कभी—कभी घर में खाना खा लेता था, किंतु अब वह भी बंद कर दिया। बाहर किसी ढाबे में ही खाने लगा है।

हिमानी ने अब फिर बच्चों को पढ़ाना शुरू कर दिया है। ट्‌यूशन वह पहले भी पढ़ाती थी, किंतु रितु के घर से भाग जाने वाली घटना की प्रतिक्रिया स्वरूप ज्यादातर बच्चों के मां—बाप ने ट्‌यूशन छुड़ा दी थी। समय ने उस घटना को धुंधला कर दिया है। अब पहले जैसी बात नहीं रही। वैसे भी यह काम मौसमी ही है। मार्च—अप्रैल के बाद ट्‌यूशनें समाप्त ही हो जाती हैं।

अर्से बाद हिमानी खिड़की पर खड़ी गली की चहल—पहल देख रही थी। कितना कट गई है वह आस—पास से। पहले अक्सर खिड़की से बाहर का संसार देखती थी। कितनी रौनक रहती थी उन दिनों! आदित्य भी किसी न किसी बहाने नीचे से बतिया लेता था। कोने पर कन्फेक्शनरी और टेलरिंग शॉप पर अक्सर ग्राहक जुड़े रहते थे।' सोचते— साचते वह अतीत की पगडंडी पर उतर गई, जहां उसे फिर अपना बचपन, अपना शहर, फिर शादी, ससुर महादेव सिंह का अपनत्व, अंतिम घड़ी में सास का उसके प्रति उमड़ा स्नेह, काजल का साथ, अंतरंगता में उससे अपनी अनूठी ‘चाह' का बयान... स्कूल की नौकरी, वैद्य जी की तिरछी चितवन, रितु की झिक—झिक, नरेंद्र की उद्‌दण्डता, उसका अपना अकेलापन...'' सोचते—सोचते उसने लंबी सांस खींचकर छोड़ दी, जैसे सब कुछ छूट गया हो, जैसे कुछ भी न रहा हो शेष! खाली हाथ! निःसंग! जड़!

आदित्य का फोन आया था तो जड़ता टूट गई, जीवंतता लौट आई। जीवन निःशेष नहीं था अभी। आदित्य है उसके जीवन में। इस भंवर में वही तो एक मस्तूल है, जिसके सहारे वह मंझधार पार करना चाहती है। शरद्‌ की ठिठुरन को वह बसंत की गुनगुनी धूप में उतार देना चाहती थी। लपककर उसने फोन उठाया था। फोन उठाने पर जितना उत्साह था, कुछ मिनट बात करके फोन रखते समय हताशा की चरम सीमा थी। फोन पर आदित्य ही था और चार—पांच मिनट बात भी हुई, किंतु उस वार्तालाप में हिमानी का सहयोग मात्र ‘हां, हूं' या ‘अच्छा' जितना ही था। अभी—अभी जो उसके अंतर में बसंत की उमंग उठी थी, वह ताप से झुलस गई थी शायद। प्रायः ऐसा ही होता है। जब हम अधिक आशान्वित होते हैं तो निराशा ही हाथ लगती है। जैसा चाहते हैं, ठीक उसके उलट हो जाता है। सभी के जीवन में ऐसे अनुभव होते हैं, परंतु हिमानी के साथ तो शत—प्रतिशत यही होता आया है। नियति उसके ठीक आगे—आगे चलती है। भंवर में फंसी हिमानी को जो अभी—अभी ‘मस्तूल' नज़र आ रहा था, वह भी टूटता और पहुंच से दूर होता, लगने लगा।

आदित्य ने फोन पर कहा था कि अब उसे ‘सेपरेशन' के लिए केस फाइल कर देना चाहिए...पता नहीं, कितना समय लगे। ज्यादा देर होने से स्थितियां बदल सकती हैं। मैं भी दुविधा में घिरा हूं। मां अब बहुत दबाव बना रही है...उनकी अंतिम इच्छा ही समझो, मुझे ‘सैटल' देखना चाहती हैं, पत्नी—बच्चों के साथ... अब उम्र भी बढ़ रही है...जल्दी ही सब फाइनल हो जाए तो...आप... तुम तो... मैं पेपर तैयार करवा लूं...मां को भी मनाना पड़ेगा...'' इस बातचीत में हिमानी केवल ‘हां—हूं' ही करती रही और अंत में ‘ठीक है' कहकर बात खत्म कर दी।

उसकी सोच में आदित्य को लेकर कुछ नये कोण निकल आए हैं। आदित्य ने उम्र का जिक्र किया, जबकि वह तो उससे भी बड़ी है। उम्र की जटिलता हो सकती है। मां यदि मान भी जाए तो ‘प्रेगनेंसी' में गड़बड़ हो सकती है। यदि उसकी कोख हरी नहीं हुई तो। अनेक गर्भपात और बढ़ती उम्र में ऐसा हो ही सकता है। आदित्य का बच्चों के प्रति लगाव वह अनेक बार महसूस कर चुकी है। तब क्या स्वरूप लेगा उनका संबंध? क्या मोड़ लेगा जीवन? क्या ऐसा ही प्यार और सहजता रह पाएगी उनके बीच?

स्कूल से लौटे बच्चे गली में, उछलते—भागते, कहकहे लगाते घरों को जा रहे थे। हिमानी सवालों से घिरी उन्हें देख रही है। उनमें से कुछ बच्चे शाम को उसके पास भी आएंगे। एक बच्चे ने तो उसे खिड़की में खड़ा देखकर अपना हाथ भी हिलाया था, जिसे हिमानी ने जरा देर से समझा! उसने कुछ देर उस बच्चे को पहचानने पर जोर दिया, पर नहीं पहचान सकी। तभी तीन—चार जीपों का एक रेला मुख्य सड़क से अस्पताल छोर की ओर गुजरा गया, जिसके साथ लाउडस्पीकरों के शोर का भयंकर गुबार था। यह चुनावों की आहट थी। चुनावों के ख्याल से हिमानी को नरेंद्र याद आ गया, आर.एन. सेठ याद आ गया, उसके बंगले पर हुआ ‘मर्डर केस' याद आ गया। वैसे तो वह बराबर नरेंद्र के वकील से संपर्क रखती है। आदित्य से भी सलाह—मशविरा करती रहती है। सुखदेव के पास न पैसा है, न जिम्मेदारी का अहसास। जिस वक्त उसे बेटे या बेटी का मोह सताता है तो वह शराब में उस गम को भुला देता है। पहले वह तमाम विरोधाभासों के बावजूद आदित्य के उपकार को महसूस करता था, किंतु अब उसकी और आदित्य की बढ़ती निकटता से सुखदेव ने उन्हें ‘एक पार्टी' मान लिया है। उसकी सारी उम्मीदें अपने

बड़े भाई हरदयाल सिंह से ही हैं। उधर आर.एन. सेठ ने अच्छा वकील भी कर दिया है, परंतु केस उलझता ही जा रहा है और नरेंद्र की मुश्किलें बढ़ रही हैं। ऐसे में भी वह नरेंद्र से मिलने का उत्साह अपने अंदर पैदा नहीं कर पाती। पहली मुलाकात में उसकी बेरुखी उसे अभी भी कोंचती है। नरेंद्र की उसे जरूरत नहीं तो वह क्यों जाए, क्यों दूसरों का अहसान उठाए?

‘‘ठीक है! जो होना होगा, हो जाएगा!'' उसने नरेंद्र के ख्याल को सिर से झटक दिया।

रात तक मन उदास रहा। बच्चे आए, पढ़ कर चले भी गए। वह उनमें से उस बच्चे को पहचानने की कोशिश करती रही, लेकिन पहचान नहीं सकी। तो क्या यह उसका भ्रम था। शाम को वह मंदिर जाकर दर्शन भी कर आई, किंतु उद्विग्नता कम नहीं हुई। वैसे तो वह न रेडियो सुनती है, न अधिक टीवी देखती है। आज भी उनमें मन नहीं लगा। वह मन लगाए भी तो कहां लगाए। विकल्प पहले भी बहुत सीमित थे। अब तो बिलकुल भी नहीं। एक लंबी वीरानगी से भरी खोह से निकल सकने की लालसा दम तोड़ती लग रही थी। इससे निकलकर वह कभी बाहर का उजास देख नहीं पाएगी। आदित्य से दूर उसे रहना ही पड़ेगा। उसे फिर उस बच्चे की याद आई, जो गली में उसकी ओर हाथ हिलाकर गया था, जिसे वह अब तक चिह्नित नहीं कर सकी। संभवतः वह उसका ‘मानस—शिशु' रहा हो, वर्षों से उसकी कोख में आने की प्रतीक्षा करता शिशु! शायद आदित्य के कल्पनालोक का कोई बच्चा! जब बच्चे सोच में आएंगे तो काशी बाबा भी आएंगे। उनके बोल—वचन भी ध्वनित होंगे ही। कैसी विडंबना है! पहले प्रारब्ध जान लेने की उत्सुकता, फिर उसे मन मुताबिक बदल डालने की जिद। यह जिद हिमानी अनेक वर्षों से अनवरत कर रही है। उसने आदित्य के रूप में एक आधार पा लिया है तो लगता है कैसे उसे अपनी मनहूस परछार्इं से बचाए। क्यों अनष्टि करे उसका। स्वतंत्र कर दे उसे। उसकी मां की अंतिम इच्छा जितनी जल्दी पूर्ण हो जाए, उतना अच्छा। इस नेक काम में वह भी भागीदार बन जाए। वैसे भी जब तक उसे तलाक मिले, तब तक आदित्य और उसकी मां क्यों वंचित रहें सुख से। वंचित होना उसके हिस्से में है। उसे ही कोई और विकल्प सोचना होगा।'

सोचते—सोचते थक गई, टूटन से भर गया शरीर, पर नींद कहां? कुछ पढ़ने से शायद उसका ध्यान बंटे या शायद नींद आ जाए, सोचकर वह ‘रैक' से कोई किताब ढूंढ़ने लगी। कहते हैं कि ढूंढ़ने से भगवान भी मिल जाते हैं। ठीक वैसा ही लगा हिमानी को जैसे उसका अभीष्ट मिल गया हो। बंद गली में जैसे रास्ता खुल गया हो। उसे लगा, एक विकल्प उसके सामने है।

यह एक मासिक पत्रिका थी, जिसे हिमानी ने ढेर में से निकाला था और जिसे वह पढ़ते—पढ़ते सो जाना चाहती थी। एक बार यह पत्रिका आदित्य ने ही हिमानी को दी थी। उसे याद है। यह उस समय की बात है, जब रितु घर से चली गई थी और वह बहुत परेशान थी। घर—बाहर से बदनामी उसे झेलनी पड़ रही थी। उन दिनों जो लड़के—लड़कियां उससे पढ़ने आते थे, वे धीरे—धीरे आने बंद हो गए। सभी के मां—बाप ने कुछ न कुछ बहाना बनाया था, पर सामने कुछ कहने की हिम्मत किसी में नहीं थी। वह सब समझती थी। सिलाई का काम उसने छोड़ ही दिया था। उसने अपना काम शुरू करने की जो योजना बनाई थी, वह कार्यान्वित नहीं हो सकी। वैद्य जी की अचानक मृत्यु, रितु का घर छोड़कर चले जाना तथा नन्नू की व्यस्तता ने उसे बहुत अकेला कर दिया था। अकेली जान के लिए इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी उठाने का साहस नहीं कर सकी थी। चिंता भरण—पोषण की उतनी नहीं थी, जितनी अपने को व्यस्त रखने और रितु की ओर से हुए भावनात्मक विध्वंस से उबर कर खड़े होने की थी।

उस वक्त आदित्य ने ही हौसला दिया था। एक दिन यही पत्रिका देकर उसने कहा, ‘इसमें एक संस्था का जिक्र है शायद आपके लिए ‘सूटेबल' हो...यदि आप सचमुच इस जंजाल से छूटकर कुछ करना चाहती हैं...बिलकुल आजाद! अपनी डिग्निटी के साथ सोशल कॉज के लिए...! तभी इस पर विचार कीजिएगा...।'

पत्रिका का वह अंक मातृत्व विशेषांक था। मुखपृष्ठ देख कर तो वह थोड़ी विचलित हुई थी कि वकील बाबू को क्या सूझा कि ऐसी मैगजीन दे रहे हैं। यह मेरा उपहास है या मुझे मातृत्व का पाठ पढ़ाने की कोशिश... किंतु ऐसा कुछ नहीं था। उसमें सचमुच नई पगडंडियों की आकृतियां थीं। ठूंठ हुए जीवन में नई कोपलों की आमद के स्वप्न थे।

तब न जाने क्यों उसने पत्रिका को सरसरी नजर से देख लिया था। एस.ओ.एस. बालग्राम पर दिए गए उस लेख को पढ़ लिया था, जिसके लिए आदित्य ने आग्रह किया था, परंतु बात आई—गई हो गई थी। शायद हिमानी ही उस सीमा तक स्वयं को परखने की मनःस्थिति में नहीं थी या कि जीवन से उसकी कुछ अन्य अपेक्षाएं थीं या कि सुखदेव को पराजित करने का भाव उसकी स्वतंत्रता में बाधा बन रहा था। वह केवल अपने तक सीमित हो गई थी। जनहित या सेवा की बात उसके लिए बेमानी थी।

आज वही पत्रिका मार्गदर्शिका की भांति उसके सामने खुली हुई थी। एस.ओ.एस. बालग्राम संस्था का आधार उसका कार्यक्षेत्र और एक नायाब रिश्ते की परिकल्पना उसे आकृष्ट कर रही थी। वैसे तो यह अनाथ बच्चों की परवरिश का स्वरूप था, किंतु डॉ. हरमन का मानना था कि यह अनाथालय नहीं है, बल्कि मां के छोटे—छोटे घर हैं, क्योंकि बच्चों को आश्रय तो कहीं भी मिल जाएगा, लेकिन वह प्यार तो परिवार में एक मां ही दे सकती है। पारिवारिक माहौल में मिलने वाली सुरक्षा बच्चों को इसी मां के घर में मिल सकती है। इसी सोच से प्रेरित डॉ. हरमन ने इस अवधारणा को मूर्त रूप दिया था :

‘जिस तरह कुछ जरूरतमंद बच्चे परिवार के लिए तरसते हैं, उसी भांति कुछ महिलाएं भी होती हैं, जिनका घर नहीं होता, कोई अपना नहीं होता या परिवार की त्रासद स्थितियों से मुक्त होना चाहती हैं। ऐसे ही बच्चों और मांओं को लेकर परिवार बसाए गए। एक सामान्य परिवार में जिस तरह मां, भाई—बहन रहते हैं, उसी तरह परिवार का स्वरूप उन्हें दिया गया। ऐसे बच्चे जो माता—पिता के अलगाव, घरेलू हिंसा, युद्ध, त्रासदी, माता—पिता की असमय मृत्यु या एड्‌स जैसी बीमारियों से उनके ग्रस्त होने के कारण अपने परिवार से दूर हो जाते हैं, उनके लिए बालग्राम के द्वार हमेशा खुले रहते हैं। बच्चों को यहां तक पुलिस, समाज सेवी संगठनों द्वारा पहुंचाया जाता है। कभी—कभी इन्हें उनकी अपनी मां भी खुद यहां तक छोड़ जाती है।' उसने आगे पढ़ा

‘बालग्राम की गतिविधियां एक सौ बत्तीस देशों में चल रही हैं। भारत में इसकी स्थापना दिल्ली के ग्रीनफील्ड में 1960 में हुई। इसके अलावा भोपाल, जयपुर में भी बालग्राम है। यह संस्था तब तक बच्चों की देखभाल का दायित्व उठाती है, जब तक बच्चे पढ़—लिख कर अपने पैरों पर खड़े नहीं हो जाते। इनकी शादी—ब्याह की जिम्मेदारी संस्था ही निभाती है।'

इस लेख में हिमानी को सबसे बढ़िया बात यह लगी कि बच्चों की जिम्मेदारियों

को पूरा करने के लिए एस.ओ.एस. मदर्स को नियुक्त किया जाता है। उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका को देखते हुए मदर्स टे्रनिंग सेंटर में दो वर्ष का प्रशिक्षण भी दिया जाता है। समय— समय पर एस.ओ.एस. मदर्स के लिए नियुक्तियों संबंधी विज्ञप्तियां निकाली जाती हैं।'

पढ़ते—पढ़ते बीच में हिमानी अपनी उम्र का हिसाब लगाने लगी। क्योंकि लेख में ‘मदर्स' बनने की उम्र चौबीस से चालीस वर्ष बताई गई थी। एक बार तो उसे घबराहट— सी हुई कि संभवतः चालीस की हो चुकी है, पर कहीं कुछ भूल थी। एकदम सही जन्मतिथि जो प्रामाणिक भी हो, स्कूल प्रमाण—पत्र में ही मिलेगी। उसका मन हुआ कि अभी उठकर अपने सर्टिफिकेट्‌स ढूंढ़ निकाले। उसे क्यों ऐसा अहसास हो रहा था कि जरा—सी देर हुई तो वह फिर मुक्त नहीं हो पाएगी। यही है उसके लिए सही विकल्प। न जाने क्यों अब तक मन के मते चलकर स्वयं को भरमाती रही, पर यह भी कोई बात हुई कि आधी रात को उठा—पटक करके कागज ढूंढे़...‘रात भर में क्या बदल जाएगा', स्वयं को ही समझाने लगी हिमानी। तभी सन्नाटे को चीरती चौकीदार की सीटी गूंज उठी, साथ ही उसके लाठी पटकने की आवाज़। सुखदेव अभी भी नहीं आया था। शायद आएगा भी नहीं। अब तो अक्सर ही भाई के घर खाना खाकर सो जाता है। कभी—कभी तो दो—तीन दिन बाद ही उसका घर में पर्दापण होता है।

‘आज भी नहीं आएगा' उसने सोचा और उठकर एक बार पुनः द्वार के कुंडी— ताले को परखा और फिर बिस्तर पर जाकर लेट गई। सोते—सोते भी अंधेरे में एक किरण—सी उसे छू रही थी।

कभी—कभी होता है जैसे प्रिय—अप्रिय घटित से व्यक्ति, उससे सम्बद्ध परिजन सभी उद्वेलित होते हैं, प्रभावित होते हैं। बहुत उथल—पुथल होती है। सभी एक—दूसरे से सुखद या दुःखद को झेल रहे होते हैं। सभी महत्त्वपूर्ण भी लगते हैं। पूरक होने का आभास भी पाते हैं। लगता है, जीवन शांत झील—सा नहीं, उठती भंवर के रेलों—सा है। जहां जड़ता नहीं, जीवंतता है। खेल जारी है पूरी आत्मीयता—नाटकीयता के साथ जहां कुछ भी स्थगित नहीं है। यह जीवन के संक्रमण का दौर होता है। इसके ठीक उलट तटस्थता का दौर भी जीवन में आता है कभी—कभी। जब अलग—अलग अपनी डोंगी में सवार दूर—दूर शांत लहरों पर तिर रहे होते हैं; संबंधों की सापेक्षता के बावजूद निरपेक्षता का आभास देते हुए। कहीं कुछ घटित नहीं। कहीं स्वयं को पूरक मान लेने का गुमान। तो कहीं क्षोभ के वशीभूत ‘एकला चलो' का भाव। कोई नाटक खेला नहीं। सब कुछ ठहरा हुआ—सा। परिवार के तौर पर और व्यक्ति के तौर पर भी वैरागी—सा गुजरता जीवन।

ऐसा ही दौर था यह शायद! कहीं कुछ मुखर नहीं था। जैसे एक समय पर सुखदेव, हिमानी, नरेंद्र, रितु, काजल, आदित्य, हरदयाल, उसका परिवार...सभी तो अलग—अलग इकाइयों में दूर थे। जैसे कोई सरोकार बचा ही न हो। आदित्य अपने कार्यक्षेत्र की व्यस्तता के अलावा अपनी मां की इच्छा और अपनी पसंद के द्वंद्व में स्थिर हो गया था। मां उसका पुनर्विवाह जल्द से जल्द करवाने की इच्छुक थी। जबसे पहली पत्नी से संबंध—विच्छेद कानूनी तौर पर मान्य हुआ है, तब से इच्छा बलवती हो गई। आदित्य ने उन्हें हिमानी के विषय में सब सच—सच बताया था। उसका आदित्य से उम्र में बड़ा होना अधिक नागवार लग रहा था, जबकि आदित्य को हिमानी की आयु नहीं, सुखदेव से शीघ्र तलाक न होना अवरोध लग रहा था। वैसे उसने हिमानी का केस फाइल करने की तैयारी शुरू कर दी थी। अपने विशेषज्ञ वकील मित्र की मदद भी ले रहा था ताकि मामला किसी भी सूरत में जल्दी निपट जाए।

बहुत वर्षों के बाद यकायक हिमानी के आग्रह के कारण ही जिस प्रकार काजल उसके जीवन में पुनः प्रविष्ट हुई थी, अब फिर उसके दायरे से दूर चली गई थी। जैसे ‘अपने—अपने सफर में गुम, कहीं दूर हम कहीं दूर तुम...' जीवन में बहुत बार ऐसा होता है। कभी बहुत घनिष्ठ और पारिवारिक इकाई के रूप में रहे मित्र अचानक बहुत दूर चले जाते हैं, कभी फिर पास आ जाते हैं। तो कभी पुनः दूर हो जाते हैं। कभी—कभी तो जीवन पर्यंत उनसे मिलना भी नहीं हो पाता। सूचना क्रांति के बाद भी व्यक्ति के मन की सूचना लेने—देने के केंद्र निष्क्रिय हो गए हैं। क्यों और कैसे, इसके अलग—अलग कारण और विश्लेषण हैं। काजल अब फिर से हिमानी के सुख—दुःख से निरपेक्ष हो गई थी। हिमानी स्वयं को समझा लेती है, शायद पारिवारिक जिम्मेदारियों के कारण जीवन में मित्रों का कद घटता—बढ़ता रहता है। कभी वह इसके लिए स्वयं को उत्तरदायी मान लेती है। कोसती है अपने को, उस क्षण को जब उसने अपना बच्चा पाने की चाह में उसके पति को बांटने का आग्रह किया था। कैसी बेवकूफी थी, कैसी बचकानी हरकत, आज तो यही लगता है। शायद मित्रता खो देने का मूल कारण यही हो।

जिसे गांठ बांधकर हिमानी ने सहेजा, वह भी तो खो गई। रितु तो उसकी बच्ची जैसी थी, जीवन भर उसके आस—पास रहने वाली। वह भी तो छिटक गई उससे!

खो गई नामालूम अंधेरों में। जैसे कभी कोई रिश्ता था ही नहीं। और रितु ने जिससे रिश्ता बनाया, उसने उसे झटक दिया। अलंकार के समझाने और मना करने के बाद भी वह गई थी आबिद से मिलने। कोशिश तो यही थी कि अपने पुराने संबंधों की दुहाई देकर वह आबिद को मना लेगी, फिल्म में रोल भी पा लेगी, किंतु बहुत बे—आबरू होकर लौटना पड़ा। आबिद ने साफ कह दिया, ‘रिश्ता अलग, प्रोफेशन अलग... तुम्हें बहुत बार समझाया, तुम समझती ही नहीं...इस फिल्म के लिए तुम प्रोफेशनली फिट नहीं लगीं। इसलिए तुमसे बात नहीं की, दैट्‌स इट!'

‘यह भी तुम जानती हो कि मैंने कभी कोई कमिटमेंट नहीं किया, रिश्ते को लेकर ...फिर क्यों इमोशनली ब्लैकमेलिंग? व्हाई!' यह सब सुनकर तो रितु अपना आपा खो बैठी। चीखने—चिल्लाने लगी। अलंकार ने उसे किसी तरह संभाला और घर तक छोड़ गया। घर पर अकेलापन, फिर व्हिस्की। रात का अंधेरा, फिर व्हिस्की। यदि भूले से आबिद फोन उठा ले तो गाली—गलौज, चीख—चिल्लाहट, फिर सन्नाटा। उसकी दुनिया अब अलंकार तक ही सीमित हो गई। बीमारी और नशाखोरी के कारण ‘सोशल गैदरिंग' में नहीं जा पाती। दोस्तों—परिचितों की संख्या दिन—ब—दिन कम हो रही है। टीना ही एक निकट सहेली थी, उसका आना भी बंद हो गया। अलंकार ही कभी—कभी आता है, रात रुकता है चला जाता है। रितु हर बार सोचती कि वह इस तरह अलंकार के साथ नहीं रहेगी। अब आएगा तो ज़रूर शादी की बात करेगी। वह बात करेगी लेकिन अलंकार उसे गंभीरता से लेगा भी या नहीं, पता नहीं।

सुखदेव अपने ही जीवनवृत्त में गोल—गोल घूम रहा है, जिसमें हिमानी की कोई भूमिका नहीं है। इस समय उसकी धुरी में हरदयाल सिंह और उसका परिवार है, क्योंकि मकान बेचना है। यारों की टोली हैएक टैक्सी ड्राइवरों वाली, दूसरा चौक पर पनवाड़ी, चायवाला, स्कूटर मिस्त्री, राजमिस्त्री तथा एक—दो खोमचे वाले। राजाराम जो अब प्रोपटी में छोटी—मोटी दलाली कर रहा था, वह एक—दो सौदे लेकर आया था। पर वे सब स्वयं डीलर ही थे। इसलिए दाम मार्किट रेट से कम आंक रहे थे। उनका इरादा बाद में बड़े बिल्डर्स को बेच देने का था। हरदयाल चतुर था। इतनी आसानी से हां करने वाला नहीं था। उसने सुखदेव को भी अपने ही तरीके से समझा दिया था।

‘‘नोट देखकर राल मत गिराया कर...तेजी का समय है, अच्छी कीमत मिलेगी, तभी सौदा करेंगे...मरा क्यों जा रहा है।'' तब सुखदेव झिझकते हुए कह देता, ‘‘आपको तो फिकर है नहीं...पर ये कि मेरा तो अब किराया आना भी बंद हो गया है...जल्दी सौदा नहीं हुआ तो खाने के लाले पड़ जाएंगे।'' हरदयाल सिंह चुप हो जाता। कुछ देर आंखें तरेरकर उसे देखता। फिर मिजाज बदलकर कहता, ‘‘मेरे होते तुझे कैसी फिकर! जेब खर्च के लिए इतने दिन से दे ही रहा हूं...तभी कहता हूं, यहीं खाना—पीना कर। छोड़ उधर आना—जाना...।''

सुखदेव जायदाद में आधे का हकदार है! हरदयाल को मकान बिकने तक उससे बनाकर तो रखनी पड़ेगी। इसके साथ ही हिमानी को परिवार से अलग—थलग कर देने की योजना भी उन्होंने सुखदेव के दिमाग में ‘प्लांट' करने की कोशिश की थी। ‘गाहे—ब—गाहे' उसे यह समझाने की कोशिश की कि वह तो पराई है। इस घर पर उसका अधिकार कैसा? न बच्चे उसके, न घर उसका। घर—बच्चे तो तेरी ब्याहता के थे, जो मर गई। इसे क्यों इतनी बड़ी रकम का वारिस बना रहा है।''

सुखदेव चौंक कर उनकी ओर देखता और इशारे से ही पूछता, ‘‘कैसे?'' भाई चिढ़ कर कहता, ‘‘बिलकुल मूरख है तू! अरे ईश्वर न करे तेरे बाद तो सब उसी का हो जाएगा न...मैं तो कहता हूं पैसों की भनक मत लगने देना उसे...'

उसकी भाभी कमला उसे अलग से समझाती। एक दिन तो उसने साफ कह दिया,

‘‘मैं तो कहती हूं सुखदेव! उसे तलाक दे दो। अब क्यों खूंटे से बांध रखा है। चारा ही खाएगी...दूध तो देने से रही...'' वाक्य के अंत तक वह अपनी कटार—सी मुस्कराहट छिपा नहीं सकी, ‘‘क्या झूठ कह रही हूं मैं?'' उसने सुखदेव की आंखों में आंखें डालकर पूछा। झेंप गया सुखदेव! वह सोच रहा था कि यह तो उसे खुली छूट देना हो गया। वह फौरन भाग जाएगी अपने यार के पास। सुखदेव तो उसे रुलाना चाहता है जिंदगी भर। जैसे हिमानी ने उसे तड़पाया है वर्षों से। प्रत्यक्ष में उसने कहा, ‘‘लेकिन!'' बीच में ही कमला बोल पड़ी, ‘‘लेकिन—वेकिन कुछ नहीं देवर जी! कह दो वकील के साथ इसका याराना है

...मेरे साथ तो कई सालों से नहीं सोई...'' कथन के अंत में उसने खास निगाह से देख पूछा, ‘‘ठीक कह रही हूं न मैं?''

सुखदेव गर्दन झुकाकर बोला, ‘‘हूं, पर मैं नहीं चाहता कि वह उस...''

‘‘तुम्हारे चाहने से क्या होगा...तुम्हारे भले की कह रही हूं। एक—दो बच्चे जन देती तो आज तुम्हें गर्दन छुड़ानी मुश्किल हो जाती। यह तो मेरी सीख का प्रताप है कि तुमने औरत का सुख भी ले लिया और जिम्मेवारी भी नहीं रही, वरना तुम्हें कोर्ट में घसीट—घसीट कर मारती।'' सुखेदव सिर नीचा किए चुपचाप सुन रहा था। कहता क्या? कमला की बात में उसे सच्चाई दिखी। लोहा गरम देखकर कमला ने और चोट मारी ‘‘हम तो तुम्हारे भले के लिए कह रहे हैं। तुम्हारा ध्यान रख रहे हैं, खिला रहे हैं, पिला रहे हैं, अपना समझ के कर रहे है। अब आगे तुम्हारी मर्जी, लिख दो सब कुछ उसके नाम! हमारी बला से। जब तक वो रहेगी, तब तक नन्नू का भी हक नहीं बनता तुम्हारी किसी चीज

पर...हां, सोच लो!''

इस मसले पर सुखदेव ने खूब सोचा। सोचता ही रहा। तब तक मकान का सौदा तय हो गया। होना ही था। इतने समय, इतने लोग जुटे हुए थे इस काम में। जायदाद चूंकि व्यावसायिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण थी, इसलिए सौदा भाइयों की शर्तों के आधार पर हुआ। जो चाहते थे, वह मिल रहा था। बिल्डर्स की योजना थी कि नीचे के दो फ्लोर ‘कमर्शियल' बनाकर दो फ्लोर रेजीडेंशियल फ्लैट बनाएगा, क्योंकि जायदाद का क्षेत्रफल बहुत था, लिहाजा कीमत भी बहुत बन रही थी। इसलिए ऊपरी मंजिल में एक—एक फ्लैट दोनों भाइयों को देने की बात भी तय हुई। शेष रकम चैक और कैश।

अब तो नकद रुपयों के अलावा एक फ्लैट का मालिकाना हक भी सुखदेव को मिल रहा था। ऐसे में भाई—भाभी की सलाह पर गौर करना जरूरी लगा। फ्लैट में साथ रहते हुए तो मालिकाना हक हिमानी का भी रहेगा। उसने सोचा, ‘तो ठीक है, वह फ्लैट को पहले ही नन्नू के नाम चढ़वा देगा।' किंतु तुरंत ही यह विचार उसने स्वयं खारिज कर दिया। सोचा, ‘उस कमीने नरेंद्र का क्या भरोसा...जीते—जी मुझे ही घर से बाहर निकाल दिया तो? अपनी मौसी का तो एक बार लिहाज कर भी लेगा, पर मेरा! ना बाबा! ऐसा जोखिम नहीं उठाऊंगा।'

हरदयाल सिंह और उसकी पत्नी ने उसे फिर बहलाने का प्रयास किया। कहा, ‘‘अरे बावले! जायदाद तेरे नाम हुई तो हिमानी तलाक लेकर भी आधा हिस्सा मांग सकती है। कानून उसके साथ है भाई मेरे! तू नरेंद्र के नाम रजिस्ट्री करवा लेना।'' थोड़ा ठहर कर भाई ने कहा। अगर नरेंद्र की हरकतों से हिचक होती है तो हम क्या पराए हैं, एक खून से हैं...मैं देख लूंगा तब तक! जब तेरा निबटारा, हिमानी से हो जाए, उसी दिन कागज बनवा दूंगा तेरे नाम...।'' दोनों भाई आज फुरसत से पी रहे थे। हरदयाल ने गिलास भर कर उसकी ओर बढ़ाया। बोला, ‘‘बोल! क्या कहता है?'' तभी कमला ने रोस्टेड चिकन से भरी प्लेट उनके सामने रख दी और कहने लगी, ‘‘तुम यह बताओ हमारी सीख से अब तक कोई नुकसान हुआ है। कितनी—कितनी बदनामी हमने सही, सिर्फ तुम्हारे कारण, क्योंकि तुम हमारे अपने हो... हिमानी का कहा—अनकहा, रितु का खानदान को कलंकित करना... इसीलिए तो सब बर्दाश्त किया...''

सुखदेव के लिए यह दुविधा की घड़ी थी। भाई और भाभी के सामने नशे की झोंक में तो ‘हां भाभी, हां भाई, जैसा आप कहोगे, वैसा ही करूंगा...उस साली को तो दर—दर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ूंगा सड़क पर।' कहकर उन्हें आश्वस्त कर दिया, किंतु दूसरे दिन नशे से उबरा तो उसे यह बात कांटे की तरह चुभी कि फ्लैट भाई या भाभी के नाम क्यों करूं? खुद मालिक होते हुए फिर भिखारी बन जाऊं?' उसने सोचा, ‘हिमानी के साथ तो वह फिर भी डांट—डपट, उठा—पटक, गाली—गलौज कर लेता है। बराबरी का मामला है, पर भाई और भाभी के आगे तो उसकी बोलती बंद हो जाती है! और तो और, नशे की तुर्शी में भी उनसे कुछ नहीं कह पाता। फिर क्यों अपने हाथ काटकर उन्हें सौंप दूं? हिमानी अगर दावा भी करेगी तो आधे के लिए ही न, भाई—भाभी ने यदि ‘डकार' मार कर मुझे लात मार दी तो? तब तो सड़क पर भीख मांग कर ही गुजर होगी।'

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