Phir bhi Shesh - 25 in Hindi Love Stories by Raj Kamal books and stories PDF | फिर भी शेष - 25

फिर भी शेष - 25

फिर भी शेष

राज कमल

(25)

आदित्य ने हिमानी को बुलाया तो ‘पेपर्स' पर दस्तख्त करने के लिए ही था, किंतु छिपे तौर पर उसकी मंशा हिमानी को मां से मिलाने की भी थी। यद्यपि हिमानी और आदित्य अभी शादी के बंधन में नहीं बंध सकते थे। एक तो उसकी मां की थोड़ी आना—कानी दूसरे अभी हिमानी को सुखदेव से मुक्ति मिलने में समय लगने वाला था।

फिर भी दोनों के बीच एक मैत्रीभाव पैदा हो गया था। उस रिश्ते की नींव को और पुख्ता कर लेने के लिहाज से ही वह मां और हिमानी को मिलाना चाहता था, जिससे उनके कभी—कभार मिलने और बातचीत में सहजता पनप जाए। अभी तक उनके बीच औरत—मर्द वाली शारीरिक अंतरंगता नहीं बनी थी। ऐसा नहीं कि वे एकांत में न मिले हों या उन्होंने अपनी शिराओं में ताप महसूस न किया हो, किंतु दोनों ने सीमा को लांघने से पहले भविष्य में होने वाली विस्फोटक स्थितियों की कल्पना कर ली। उनके संबंधों में प्रगाढ़ता तभी बढ़ी, जब आदित्य का अपनी पत्नी से संबंध विच्छेद हो गया और अब हिमानी—सुखदेव के कानूनी तौर पर विच्छेद के बाद ही उनके संबंध में पूर्णता आएगी, ऐसा दोनों का अघोषित निश्चय जान पड़ता था।

वैसे तो मन के समुद्र में कब भंवर पड़े, कब ज्वार—भाटा आए या कब स्थिरता छा जाए, निश्चित तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता। तभी तो एक समय आदित्य की मां से मिलने को बेचैन हिमानी में अब वैसा आग्रह नहीं बचा था। कई बार सुन कर भी कि मां आई हुई है, क्या आप मिलोगी? आदित्य के इस प्रयास को वह कुछ न कुछ बहाना करके टालने लगी थी। आदित्य उसकी विवशता समझता था। इसलिए कभी अन्यथा भी नहीं लिया उसने। ऐसा भी नहीं कि आदित्य बहुत उतावला हो रहा हो, केवल संबंधों की एक सहजता चाहता था वह। क्योंकि जिन दिनों आदित्य अपनी शादी के कड़वे अनुभवों से गुजर रहा था, तब उसने तय कर लिया था कि भविष्य में वह शादी जैसे झमेले से दूर ही रहेगा। हिमानी से लगाव मात्र पड़ोस में रहकर उसे देखने से ही उपजा था। बहन के बच्चों तथा परिवार के प्रति उसकी निष्ठा और दायित्व निभाने की भावना से वह बहुत प्रभावित हुआ था। तब उसके माता—पिता की कामना बस यही थी कि किसी तरह आदित्य के जीवन का क्लेश समाप्त हो जाए; फिर चाहे वह जैसे भी रहे। अकेला रहे या शादी करे, हम नहीं टोकेंगे। उसके पिता अब इस दुनिया में नहीं हैं, किंतु अब मां की सक्रियता उसके जीवन में अधिक बढ़ गई थी। मां—बाप के लिए उनके बच्चे हमेशा बच्चे ही रहते हैं। उनके सुख—दुःख के बीचोबीच रहना उनकी नियति है। व्यावहारिकता और भावुकता का हमेशा टकराव रहता है। किसी को भी गलत साबित करना उसके प्रति अन्याय ही लगता है। आदित्य को मां का ‘कहा—सुना' अपने जीवन में दखल नहीं लगता, बल्कि उनका प्यार—भरा अधिकार लगता है। इसीलिए वह चाहता है कि अपने फैसले के लिए मां को धीरे—धीरे मना ले। हिमानी को लेकर मां की दुश्चिंता को खत्म कर दे। दूसरी ओर मां मानती है कि दोनों ही तलाकशुदा हैं और पहले बच्चे भी नहीं हैं। यह समानता उनके लिए सही रहेगी। केवल हिमानी की ज्यादा उम्र से ही उन्हें संकोच है।

हिमानी के सामने ‘पिटीशन' के पेपर्स रखकर आदित्य ने आग्रह किया कि एक बार इन्हें पढ़ लो। हिमानी बहुत शांत थी, कुछ—कुछ अनमनी—सी। जैसे अभी भी उसके अंतर में कोई दुविधा कुलबुला रही हो। आदित्य ने उसकी असहजता को समझा भी। तभी तो ‘पेपर्स' उठाकर वह स्वयं पढ़कर सुनाने लगा।

खासतौर पर उस भाग को, जहां साथ न रह पाने के लिए कारणों का ब्यौरा था, जिसमें सुखदेव के पूरे चरित्र को और भी विशेषणों के साथ पेश किया गया था कि वह परिवार के भरण—पोषण के लायक भी नहीं कमाता। जितना कमाता है, शराब में उड़ा देता है, पत्नी से मार—पीट करता है, उसे अपना बच्चा नहीं दे सका, कई वर्षों से उनके शारीरिक संबंध भी नहीं हैं वगैरह—वगैरह। आदित्य ने पेपर्स पढ़ने के बाद उसकी ओर देखा। वह शून्य में ताकती खामोश बैठी थी। आदित्य ने उसकी ओर देखते हुए कुछ देर और प्रतीक्षा की। अंततः उसे बोलना पड़ा ‘‘क्या कुछ ‘चेजेंज' की जरूरत है?'' हिमानी ने लंबी सांस ली और नजरें पेपर्स पर झुका लीं, किंतु बोली कुछ नहीं।

‘‘आर यू ओ.के.।'' आदित्य ने पूछा, ‘‘तुम ठीक तो हो हिमानी! कुछ गलत लिख गया है या फिर अभी...''

हिमानी को अब बोलना पड़ा, ‘‘नहीं! ये बात नहीं है...अलग तो मुझे होना ही है, पर मैं सोचती हूं, यह सब लिखना जरूरी है क्या? इसके बिना...मेरा मतलब एक—दूसरे की छीछालेदर...पता नहीं, यह सब कहना...अच्छा नहीं लग रहा...''

‘‘यह तो पहले भी मैंने बताया था कि जहां आपसी सहमति नहीं, वहां यह सब होता ही है। उतनी समझदारी अलग होने के लिए बहुत कम लोग ही दिखाते हैं।'' हिमानी ने भी सोचा कि यही भाग्य में लिखा है, तो भोगेगी इसे भी। उसने यह कहकर कि ठीक है इसे घर ले जाकर पढ़ लेती हूं एक बार...फिर भिजवा दूंगी आपको।''

‘‘क्यों, ठीक है न!'' हिमानी ने अब थोड़ा मुस्कराकर आदित्य से पुनः पूछ लिया।

‘‘यह कोई पूछने की बात है! यह आपका अधिकार है...तसल्ली से पढ़िए...कुछ जोड़ना—घटाना हो तो भी और यदि अभी पुर्नविचार करना चाहें तो भी...।'' हिमानी ने गौर किया कि वाक्य के अंत तक आदित्य का स्वर थोड़ा उखड़ा—सा लगा।

विनोद को कुछ जरूरी काम समझाकर आदित्य हिमानी को छोड़ आने के लिए ऑफिस से निकला। हिमानी ने कहा भी कि यदि उसे ‘बस' नहीं मिली तो वह ‘ऑटो' लेकर चली जाएगी, पर ऐसा उसने ऊपरी मन से ही कहा। वैसे भी आदित्य से मिले उसे बहुत वक्त हो गया था। अब तो सिर्फ फोन पर ही बात हो जाती थी। घर से निकले महीनों हो जाते हैं। क्योंकि वह जाए भी तो कहां जाए। उस दिन से फोन की व्यग्रता भी कम होती जान पड़ रही थी। इसलिए तो मन में चाहा कि आदित्य के साथ कुछ दूर चली चले। पूरा सफर तो मुमकिन नहीं। गाड़ी में लगे स्टीरियो पर कोई कैसेट बज रहा था और आदित्य उसके साथ—साथ गुनगुनाते हुए गाड़ी चला रहा था। हिमानी उसे देख रही थी, वह अपनी धुन में था। हिमानी ने मुस्कराकर अपनी नजर उससे हटाई और खिड़की से बाहर देखने लगी। कुछ पल गौर करने के बाद ही उसे लगा कि यह उसके घर का रास्ता नहीं है तो उसने आदित्य को टोका, ‘‘अरे! रोको, रोको! कहां गलत—सलत चले जा रहे हो।''

आदित्य ने गाड़ी रोकी तो नहीं, तनिक स्पीड कम करके पूछा, ‘‘क्या हुआ?''

‘‘संगीत की धुन में तुम रास्ता भूल रहे हो।''

‘‘संगीत तो पार्श्व में है, धुन तो तुम्हारी है। और रास्ता अभी तक तो नहीं भूला हूं।'' बड़े विश्वास से आदित्य ने उत्तर दिया। आगे कहा, ‘‘जानती हैं, आप साथ होती हैं तो मेरा आत्मविश्वास कितना बढ़ जाता है।'' कहकर वह बच्चे की भांति मुस्कराया।

‘पर मेरा विश्वास डोलने लगता है।' हिमानी ने अपने मन में ही सोचा, प्रत्यक्ष में उसने पूछा, ‘‘हम कहां जा रहे हैं?'' आदित्य ने कुछ बोलने की बजाय उस समय बज रही गज़ल की ओर इशारा किया ‘इस अंजुमन में आपको आना है बार—बार...।'

तभी गाड़ी मुख्य सड़क से हट कर एक आवासीय परिसर में घुस गई, जहां फ्लैट ही फ्लैट थे। गाड़ी से उतरने से पहले आदित्य ने हिमानी को बताया कि यह मेरा घर है और घर पर मां है। कुछ क्षण के लिए तो हिमानी जड़—सी हो गई, ‘यह क्या! बिन बताए! यह कैसा मजाक!' फिर भी प्रत्यक्ष में उसने आदित्य से सिर्फ इतना कहा, ‘‘पहले बता देते तो...अच्छा रहता।'' कहकर उसने अपनी वेशभूषा पर नजर डाली। आदित्य ने उसकी दुविधा को आंक लिया, कहने लगा, ‘‘अच्छी लग रही हो, लवली! मां को भी नहीं बताया कि आपको लेकर आ रहा हूं। हां, बस पांच मिनट पहले ही विनोद ने फोन पर उन्हें बताया होगा...''

जब से आदित्य अपनी पत्नी से कानूनी रूप से मुक्त हुआ है, बहुत बदला हुआ है। हिमानी ने यह परिवर्तन महसूसा है। पहले तो काम के बोझ का मारा आदमी...अधिकतर गंभीर रहने वाला व्यक्ति, तीस—पैंतीस साल का युवक लगता ही नहीं था। अब कितना खुश—मिजाज दिखने लगा है। कितनी चपलता आ गई है, जैसे जीवन को फिर से जीने की चाह जाग उठी है। हिमानी ने उसकी खुशी को झिड़का नहीं, सराहा भी नहीं। तटस्थता का भाव दिखाने की कोशिश की कि वह नर्वस नहीं है...जो भी स्थिति है, उसे संभाल लेगी। वह बाइस—तेइस साल की कमसिन लड़की नहीं है। उम्र का ख्याल आते ही उसे और बहुत कुछ याद आ गया, किंतु उसने आदित्य से इतना ही कहा, ‘‘मां के सामने भी ‘आप—आप' कहकर बुलाओगे? क्या सोचेंगी? वैसे भी आप से उतनी बड़ी नहीं, जितना आप मुझे ‘आप—आप' कहकर अहसास कराते हो।''

‘‘ओ.के. बाबा! मां के सामने आपको बुलाऊंगा ही नहीं...इशारों से काम लूंगा।'' कहकर वह हंसा तो हिमानी ने भी उसका साथ दिया। दोनों ने हंसते हुए घर में प्रवेश किया।

हिमानी जब आदित्य के घर से लौटी तो शाम गहरा गई थी। मंदिर से आरती का संगीत हवा में गूंज रहा था। धीरे—धीरे स्ट्रीट—लाइट और घरों—दुकानों की बत्तियां जलने लगीं। आदित्य उसे घर तक छोड़ देना चाहता था, परंतु हिमानी ने उसके आग्रह को विनम्रता से ठुकरा दिया। घर से दो—तीन किलोमीटर पहले ही वह गाड़ी से उतर गई और ‘ऑटो रिक्शा' लेकर घर आ गई। घर में घुसते ही उसे अव्यक्त उदासी ने घेर लिया। सुंदर—सुसज्जित फ्लैट के खुशगवार माहौल से निकलकर वह पुनः वीरान खंडहर के गमगीन अंधेरों में लौट आई थी। आज उसे घर का हर कोना बेरौनक लग रहा था। वहां की हर वस्तु खीझ पैदा कर रही थी। बल्ब की पीली रोशनी में पलस्तर उखड़ी दीवारें, सीलन खार्इं छतें, दमघोंटू वातावरण बना रही थीं। स्याह और सफेद का ऐसा अंतर उसे पहले कभी महसूस नहीं हुआ। पड़ोसियों के घर भी सुंदर—सुसज्जित थे। फिर भी अपना घर अपना लगता था। ऐसा अहसास आदित्य के घर से लौटने पर ही हो रहा था। वह जानती है कि यही घर हकीकत है, वह तो ख्वाबगाह है। दोनों के बीच अभी भी बहुत फासला हैजमीन से आसमान की दूरी जितना। शायद वह परवाज ले सकती है। आदित्य उसके साथ है। मां ने भी तो इन्कार नहीं किया। संभावनाएं शेष हैं। फिर भी फासले में कितने अचीन्हित अवरोध होंगे, वह नहीं जानती। उन्हीं से वह आशंकित भी है। ऐसी सहज सुलभ उपलब्धि का योग नहीं है। काशी बाबा का मुस्कराता चेहरा फिर उसके सामने आ गया, बाल सुलभ हंसी और शून्य दृष्टि।

वैसे आदित्य की मां से हिमानी की मुलाकात सामान्य और अनौपचारिक—सी हुई। पहली बार अचानक मिलने जैसी असहजता किसी ने नहीं दिखाई। मां का चेहरा उम्र और अनुभव का तेज लिये हुए था। उनके व्यक्तित्व में सुरुचिपूर्ण सादगी थी, जो हिमानी को अच्छी लगी। बोलने का लहजा मंद और स्पष्ट था। बातचीत में शिक्षक और छात्र वाली दूरी नहीं थी। फिर भी, हिमानी ने सधे स्वर में उनकी सारी जिज्ञासाएं शांत की थीं। विशेषकर उम्र के बारे में स्पष्ट कर दिया कि वह आदित्य से चार साल दो महीने बड़ी है। इस पर मां ने हंसकर कहा था, ‘‘चलो, अच्छा है तुम्हें कभी धमका नहीं पाएगा।''

‘‘उसके लिए तो आदमी होना ही काफी है...मुझे तो ऐसा ही लगता है।'' हिमानी ने पट से बोल दिया था। मां कुछ देर चुप रही। फिर कहा, ‘‘मुझे मेरे भाई, बेटों और पति से ऐसा कभी नहीं लगा। हो सकता है कि तुम्हारा तर्जुबा अलग हो।''

‘‘हां, पर वैसे रवायत तो यही है।''

दोनों के बीच अधिकतर बातें अकेले में ही हुई थीं। आदित्य संभवतः जानबूझकर ही किसी काम के बहाने दूसरे कमरे में व्यस्त दिखता रहा था।

आदित्य की मां भी जैसे मन की गांठें खोल लेना चाहती थीं। तभी तो उन्होंने कहा था, ‘‘तुम्हारे बच्चे किसी कमी के कारण नहीं हुए या तुम चाहती ही नहीं थीं!'' प्रश्न मारक था। चुभन से आंखें भर आई थीं। पल्लू से आंखें पोंछकर उसने कहा, ‘‘दोनों में ही कोई कमी नहीं थी। वह नहीं चाहता था, बस।'' इसके बाद उसने संक्षेप में उन हालात का बयान किया कि कैसे उसके पति ने उसकी कोख के साथ कुठाराघात किया था। अंत में यह भी कहा कि वह नहीं जानती कि अब मां बनने की योग्यताएं उसमें बची हैं या नहीं।''

वाकया सुनकर मां को भी अफसोस हुआ था। फिर भी, वह परखना चाहती थीं। तभी तो उन्होंने पूछा, ‘‘जब ऐसे हालात में इतने वर्ष उसके साथ रह ली तो अब क्यों पति—घर छोड़ने का कलंक अपने माथे पर लेना चाहती हो?''

शून्य में एकटक देखते हुए वह बोली थी, ‘‘अपने लिए कभी नहीं जी सकी... यही ललक उत्साहित करती है कभी—कभी कि थोड़ा—सा जी लूं खुद के लिए।'' थोड़ा रुक कर, थोड़ी दृढ़ता से उसने कह दिया, ‘‘वह नहीं समझती कि यह कोई कलंक वाली बात है।'' ‘‘किसी के भी साथ रह कर, सिर्फ अपने लिए तो नहीं जिया जा सकता...हिमानी! इसके लिए अकेले रहना ज्यादा सही लगता है मुझे! क्यों? कोई शेयरिंग नहीं, जिम्मेदारी नहीं।' उनके कथन में छिपे व्यंग्य को महसूस किया था हिमानी ने। कोई प्रतिवाद नहीं किया। सुनकर चुप रही थी। बाद में मां ने ही माहौल को हल्का करने के लिए हंसकर कहा था, ‘‘बुरा मत मानना बेटा! हर एंगल से सोचकर देख रही थी, और तुम्हें भी हर एंगल से सोचना चाहिए...बहुत अहम्‌ फैसला है यह...क्यों, गलत तो नहीं कहा मैंने?''

‘‘नहीं! आप बड़ी हैं, अनुभवी हैं। आपकी राय महत्त्वपूर्ण है मेरे लिए।''

चलते समय मां ने हिमानी को सोने की चेन भेंट की। चेन देखकर हिमानी का गणित गड़बड़ा गया। वह मानकर चल रही थी कि उसका चयन नहीं हो सकता। उससे सवाल महज इसलिए पूछे गए हैं कि उसे लगे जैसे उसे ‘कंसीडर' किया जा रहा है और वह निराश न हो। उसने उपहार लेने से मना किया तो आदित्य की मां ने समझाया कि यह उनकी हिमानी से पहली मुलाकात है और हिमानी उनके बेटे की मित्र है तो भेंट देने का उनका हक बनता है।

‘‘लेकिन मांजी' इतना महंगा गिफ्ट! नहीं, मैं नहीं ले सकती...आप बुरा न माने

...प्लीज!''

‘‘यदि महंगा है तो तुम भी तो उसकी खास दोस्त हो। नहीं लोगी तो मुझे ‘फील' होगा ही।''

उसके बाद मना नहीं कर सकी हिमानी। रास्ते में उसने आदित्य से पूछा भी कि वह क्या समझे इस ‘भेंट' को?

‘‘यही कि तुम पसंद आ गई हो मां को। अमूमन ऐसा ही तो होता है।''

‘‘हां! किंतु मुझे नहीं लगता। उन्होंने साथ में और भी बहुत कुछ कहा है।''

आदित्य ने जानना चाहा था, पर उसने बताया नहीं और कहा, ‘‘मां तुम्हें स्वयं बताएंगी अपनी राय। तब आप मुझे बताना, गुड़िया पास हुई या फेल।'' कहकर वह हंस दी थी।

मां की दी हुई सोने की चेन अभी भी हिमानी के हाथ में थी। पूरा घटना—क्रम सोचते हुए उसे उंगलियों में घुमा रही थी। एक—दो बार उसने चेन गले में भी डालकर देखी। शीशे में अपना अक्स देखकर परखा भी कि कैसी लग रही है, पर उसे यही महसूस होता रहा कि इस उपहार में वह गरिमा नहीं है, जो वह चाहती है। यह तो रोते हुए बच्चे को खुश करने के लिए दिया गया ‘लॉलीपोप' जैसा है, जिससे आदित्य भी खुश! हिमानी भी खुश!

आज दिन बहुत अच्छा गुजरा था। शाम होते—होते उदासी घिर आई थी। घर आकर खुशी धीरे—धीरे छीज कर अंधेरे में घुल रही थी। उसके एक हाथ में चेन थी, दूसरे हाथ में ‘पिटीशन' के पेपर्स थे। दो अलग—अलग दुनियाएं थीं। दो छोर थे। दोनों हाथों के बीच लंबी दूरी थी।

अचानक उसकी सोच को झटका लगा। सीढ़ियों पर किसी के चढ़ने की आवाज थी। सुखदेव आजकल इतना जल्दी तो नहीं आता। फिर कौन होगा।' सोचकर हिमानी थोड़ा आशंकित हुई। उसने तुरंत चेन और पेपर्स पर्स में रख कर अलमारी में रख दिए। अप्रत्याशित रूप से सुखदेव ही था, पर आज कुछ अलग ढंग में था। उसने शराब तो पी हुई थी, किंतु हिमानी को सामने देखकर हिनहिनाया नहीं। अंदर जाकर शांति से कपड़े बदले, हाथ—मुंह धोया और वहीं से हिमानी से पूछा कि खाना बनाया है या नहीं। हिमानी ने जवाब में कहा कि तुम्हारा कोई पता होता है कि कब आओगे और खाना खाओगे या नहीं।' ऐसा जवाब सुनकर भी वह गुर्राया नहीं। कहा, ‘‘ठीक है। कोई बात नहीं ‘सत्कार' से ‘दाल—फुलका' मंगवा ले फोन करके...और सुन, एक प्लेट ‘मटन कोरमा' भी बोल देना।'

आश्चर्य में डूबी हिमानी कुछ बोल न सकी। खाना अभी उसने बनाया नहीं था। शायद नहीं भी बनाती। दोपहर के बचे थोड़े चावल—दाल थे। उसके लिए काफी था। इसलिए उसने केवल फुलके और मटन कोरमा का आर्डर कर दिया। सुखदेव का चलन उससे हजम नहीं हो रहा था। इतने दिनों बाद आज अचानक, इतना सहज! आखिर बात क्या है?' वह बाहर आकर उसके सामने बैठा तो उसके मुंह से निकल ही गया, ‘आज मुझ पर इतनी मेहरबानी किसलिए।'

सुखदेव ने साथ लाई बोतल मेज पर रख दी और बोला, ‘अरे करमजली! हंसते हुए भी दांत गिनती है...ये कि कभी तो खुश रहा कर...जा, गिलास लाकर दे।' बिना उत्तेजित हुए सुखदेव ने कहा और फिर कोई फिल्मी धुन गुनगुनाने लगा। हिमानी को

एक के बाद एक झटके लग रहे थे। आखिर यह कायाकल्प क्योंकर हुआ। उसने गिलास और पानी लाकर रख दिया। सुखदेव ने पेग बनाया और इत्मीनान से पीने लगा। गिलास आधा खाली हुआ तो मगज में तुर्शी बढ़ी और उसने हिमानी की बात पकड़ कर बातचीत आगे बढ़ाई।

‘‘तू कुछ पूछ रही थी मनी, कि आज तुम पर मेहरबानी किसलिए? तो ध्यान से सुन, अब से तुझे मेरी मेहरबानी पर ही रहना पड़ेगा।''

‘‘मतलब!'' हिमानी ने भौहें तरेर कर पूछा।

‘‘मतलब ये कि जायदाद का सौदा हो चुका है...।''

‘‘मुझे मालूम है।'' हिमानी ने तटस्थता का भाव चेहरे पर लाकर आगे कहा, ‘‘तुम नहीं बताओगे तो क्या मुझे पता नहीं चलेगा...आगे बोलो।'' हिमानी को सचमुच बाहर से उड़ती खबरों से पता चला था। ट्‌यूशन पढ़ने आने वाले अमोल की मां ने ही बताया था, ‘‘बहन जी! नजदीक में मकान ले लेना...हम चाहते हैं, अमोल आपसे पढ़ता रहे...। सुना है खूब महंगा सौदा हुआ है। इसके पापा कह रहे थे करोड़ से भी ऊपर का...'' तभी त्यागी की पत्नी आई, अपने सबसे छोटे बेटे को लेकर, जो तीसरी में पढ़ता था। त्यागी की मां को गुजरे तो कई साल हो गए, अब उसकी भूमिका में वह आ गई है। सभी के फटे में टांग अड़ाने पहुंच जाती है, हूबहू सास की तरह। उसे संदर्भ का जैसे पहले ही पता था। ‘‘अजी! हमारी हिमानी अब ट्‌यूशन थोड़े ही पढ़ाएगी...जरूरत भी क्या है, पर हम क्या छोड़ने वाले हैं...ले इस ‘शंकर' को अब तू ही पढ़ाना, कमबख्त मेरे तो काबू में नहीं आता...। चल रे नमस्ते कर टीचर जी को।'' बच्चे को उसने आगे धकिया दिया।

हिमानी अंदर से शून्य थी, पर उसने जताया नहीं। ऐसा दिखावा किया जैसे सब पता है और उनकी बातों में ही ‘हां', ‘ना' जोड़कर पीछा छुड़ा लिया था। आज इतने दिनों बाद सुखदेव उसे बता रहा था। सुखदेव भड़का नहीं, हंसकर कहने लगा, ‘‘बढ़िया बात है काम आसान हो गया...तो सुन! एक हफ्ते बाद लिखा—पढ़ी होनी है उससे पहले ही एक दो दिन में यह हिस्सा खाली करना है, समझी!''

‘‘एक—दो दिन में।'' हैरत से उसने सुखदेव को घूरा। तभी दरवाजे पर खड़का हुआ। सुखदेव ने सौ—सौ के कई नोट निकाल कर हिमानी की ओर बढ़ाए और कहा, ‘‘होटल वाला होगा, जा खाना ले ले।'' पर इतने रुपये क्यों दे रहे हो...जेब से गिर रहे हैं क्या?'' हिमानी ने कहा और खाना लाकर परोसने लगी। सुखदेव मंद—मंद मुस्कराते हुए उसे देखता रहा। उसकी गर्दन थोड़ी नीचे झुककर हिल रही थी। वह धीरे—धीरे बड़बड़ाने लगा, ‘‘यह साली कभी खुश नहीं रह सकती...जरूर मुहर्रम के दिन पैदा हुई होगी।'' बोलकर अपने आप ही हंसा सुखदेव। हिमानी ने डपट दिया, ‘‘फालतू मत बको! यह बताओ एक दिन में हम कैसे, कहां शिफ्ट करेंगे...यह सब पहले भी बता सकते थे या नबाव बनने से फुरसत नहीं मिली...''

‘‘सुनती नहीं, बस बड़—बड़ बहुत करती है...मैं कह रहा हूं कि मकान का इंतजाम कर लिया हैं मैने...ये कि पिछली गली में वो...वो जितेंदर सूद...एकाउंटेंट! अरे वही बृजमोहन सूद का बेटा, जो अपने वैद्य जी का हिसाब—किताब देखता था। ये कि मां—बाप तो गुजर गए। एक बुआ और अपने बच्चों के साथ रहता है। एक कमरा—रसोई खाली था...मैंने पक्का कर लिया। कुछ महीने वहीं रह लेेंगे, क्यों? और सुन...! ये कि अब तू कोई काम नहीं करेगी...समझी!''

‘‘अपना मकान क्यों नहीं खरीद लेते, छोटा—मोटा! चार दिन में रुपये उड़ाकर फिर कहां सड़क पर रहोगे...'' फिर अपने में ही बड़बड़ाती हुई हिमानी बर्तन समेटने लगी, ‘‘बड़े सेठ हो गए हो जैसे...हुं! काम मत कर...अरे! तुम्हारे न्यौते हुए ब्राह्मण तो भूखे उठ जाएं...''

उधर सुखदेव सोने को जाते—जाते उसके पास आ गया, कुछ—कुछ डगमगाता हुआ—सा। हिमानी चौंक कर सतर्क हो गई और सीधे उसकी आंखों में देखने लगी। पल भर में ही सुखदेव ने निगाहें इधर—उधर कर लीं। बोला, ‘‘फालतू में कुड़—कुड़ करती है साली। ये कि अपने आदमी पर भरोसा नहीं है इसे...सुन! इस जगह पर जो बिल्डिंग बनेगी उसमें ऊपर फ्लैट भी बनेंगे, उनमें एक फ्लैट भाई का और एक मेरे नाम भी होगा...ये कि ऐसा सौदा हुआ है...बात करती है... आया कुछ समझ...जो आज मेरा है, कल सब तेरा होगा...

वह अब विनीत भाव से बोला, ‘‘मैं दुकान करूंगा...कमा कर लाऊंगा...ये कि जुआ मैं खेलता नहीं, तू जानती है...हां, थोड़ी पीता जरूर हूं...वो भी गम में पीता हूं

...ये कि तू प्यार से रहेगी तो क्यों पिऊंगा...हैं...बता?'' वह बोल रहा था। हिमानी खामोश खड़ी उसे देख रही थी।

वह एक हाथ से रसोई के दरवाज़े की चौखट पकड़ के शब्दों के साथ थोड़ा झूल रहा था। बड़ी देर तक बड़बड़ाने के बाद हिमानी की ओर से कुछ भी हरकत न देखकर उसने जैसे अंतिम प्रयास किया। अपना हाथ हिमानी का हाथ पकड़ने के लिए आगे बढ़ाया और कहा, ‘‘चल आ! थोड़ी सेवा कर। रानी बनाकर रखूंगा।''

हिमानी पीछे की ओर सिकुड़ गई। सुखदेव का हाथ हवा में ही झूल गया। हिमानी जैसे उसके धैर्य की परीक्षा ले रही थी। सुखदेव ने भी जैसे ठान लिया था कि वह गुस्सा नहीं करेगा। हिमानी को मना कर ही रहेगा और क्यों नहीं मानेगी हिमानी? अब उसके पास लाखों रुपये हैं, फ्लैट है...और क्या चाहिए उसे। उम्र में थोड़ा बड़ा जरूर है किंतु कोई कमजोरी उसमें नहीं आई है। कई वर्षों से उसे छेक रखा है...जब पास ही नहीं आएगी हिमानी तो वह क्या दिखाएगा अपनी मर्दानगी!'

हार न मानते हुए सुखदेव यह कहकर कि ‘‘आजा! ज्यादा सोच मत! यही तेरा घर है...मैं तेरा घरवाला। ये कि इस सच को कैसे झुठलाएगी तू...तेरी इज्जत इसी में है और मेरी इज्जत का भी ख्याल कर। तुझे पता नहीं कैसे लोग झुक—झुककर राम—राम करने लगे हैं। ...कोई लालाजी कहने लगा है तो कुछ सेठ सुखदेव कहकर बुलाते हैं...हुं! ये कि साली किस्मत मेरी...घर का जोगी जोगना वाली बात है...'' बुदबुदाते हुए वह कमरे में चला गया।

हिमानी उसके इस चारित्रिक लक्षण को बखूबी पहचानती है। ‘यह आदमी गिरगिट की तरह रंग बदलता है और अब तो उसके पास इतने पैसे आ गए हैं तो क्यों नहीं बदलेगा रंग—ढंग।' वह बड़ी देर तक वहीं खटर—पटर करती रही, जब तक कि सुखदेव सो नहीं गया। वह जोर—जोर से खर्राटे भरते हुए बेसुध पड़ा था। हिमानी दूसरे कमरे में जाकर सो गई।

अगले दो दिनों में ही घर का सारा सामान नए मकान में शिफ्ट हो गया। सुखदेव ने दो मजदूरों का इंतजाम कर दिया था, जिनके साथ मिलकर हिमानी ने नए घर में व्यवस्था कर ली। दो कमरों का सामान एक कमरे में अटाना मुश्किल काम था। इसलिए कुछ सामान पैक करके ज्यों—का—त्यों छोड़ दिया गया। एक बेड को भी खोलकर बांध दिया गया। इस व्यवस्था ने हिमानी की मानसिक उधेड़बुन बढ़ा दी थी। एक कमरा, एक बेड! अब वह सुखदेव की गिरफ्त से स्वयं को कैसे बचाएगी? यह उसके लिए मुश्किल प्रश्न था। दूसरी ओर सुखदेव इस व्यवस्था से खुश दिखा। हिमानी को मनाने की उसकी कोशिश लगातार जारी थी। उसने कहा भी कि वह क्यों अपने भाग्य से लड़ रही है...आ जा, सो ले यहीं। ये कि अब तो दूसरा बिस्तर भी नहीं है...और मैं तुझे नीचे फर्श पर नहीं सोने दूंगा...ये कि तुझे क्या लगता है मुझमें इंसानियत बाकी नहीं है।''

घर साझा था। मालिक मकान जितेंदर सूद अपने भरे—पूरे परिवार के साथ मकान के बड़े हिस्से में रहता था, इसलिए हिमानी बेलाग नहीं हो सकती थी। उठा—पटक, चीख— चिल्लाहट या गाली—गलौज करना अशोभनीय होगा। सुबह उठकर लोगों से नजर मिलाने की हिम्मत उसमें नहीं होगी। वह तो चुप रह भी लेगी, किंतु सुखदेव को इन बातों की कतई परवाह नहीं है और न ही उसे किसी से नजर मिलाने में हेठी महसूस होती है, लेकिन इरादे मजबूत हों तो राह निकल ही आती है। बहुत सोच—विचार कर हिमानी ने तय किया कि वह युक्ति से काम लेगी ताकि कोई बखेड़ा न हो। वह जानती थी कि सुखदेव की ओर अगर प्यार से देखभर लेगी तो वह दुम हिलाने लगेगा। जैसा कहेगी, वैसा करेगा। कुछ समय निकालने के लिए थोड़ा नाटक करना ही पड़ेगा। इसलिए उसने सुखदेव को बड़े प्यार से समझाया कि ‘तुम पर भरोसा करने में थोड़ा वक्त लगेगा! पहले तुम अपनी दुकान शुरू करो, काम जमाओ, कमाकर लाओ। मैं घर संभालूंगी, तभी तो धीरे—धीरे विश्वास जमेगा। इतने साल गुजारे हैं। थोड़ा और सब्र कर लो, वैसे भी आजकल मेरी कमर में बहुत दर्द है, दवा ले रही हूं।' जब हिमानी यह सब कह रही थी, तब सुखदेव अविश्वासी नजरों से उसे देख रहा था, किंतु शराबखोर आदमी का कुछ ठिकाना नहीं कि कब वह गुस्से में तुनक जाए या फिर कब पिघल जाए, मोम बनकर। जिस ओर का रुख हो जाए, उधर ही सीमा पार। उसके जैसा दोस्त नहीं, तो उसके जैसा दुश्मन भी नहीं। या तो आंख बंदकर कर आपका गुलाम बन जाएगा या फिर आशंकाओं से घिरा, आपसे दूर ही दूर रहेगा।

सुखदेव आज नशे में उतना धुत्त नहीं था। इसलिए वह भी अपनी आशंका को दरकिनार कर नाटक में शरीक हो गया। बोला, ‘‘चल, ठीक है! मान लेता हूं तेरी बात। तू नहीं जानती, ये कि मैं तुझे कितना चाहता हूं...अच्छा, आ! आज एक चुम्मी तो लेने दे।'' कथन के साथ उसने आगे बढ़कर हिमानी के मुंह पर मुंह रख चूम लिया। हिमानी उन पलों में जड़ हो गई। आज वह सुखदेव को धकिया कर भगा नहीं सकी। उसने धीरे से अपने को उसकी बाहों से निकाला और बाथरूम जाने लगी तो सुखदेव ने हंसकर अहंकारी स्वर में कहा, ‘‘याद रखना...हां...अपना कौल! अगर फिर नखरे दिखाए तो समझ ले... ये कि इसी कमरे में दूसरी के साथ सोऊंगा...यहीं! तेरे सामने।'' शराब की गंध तो जैसे सुखदेव के रोम—रोम में बस गई है। कई महीने न भी पिए तो भी गंधाता रहेगा। ऊपर से उसका लिजजिलापन, हिमानी को उबकाई आने को हुई। उसने बहुत जब्त किया। मन हुआ, अभी स्टूल उठाकर सुखदेव के सिर पर दे मारे और भाग जाए...दूर बहुत दूर... या उसकी जांघों के बीच में इतनी जोर से लात मार दे कि इस मर्दानगी का रोग ही मिट जाए, लेकिन वह कुछ भी ऐसा नहीं कर सकी। वह सुखदेव से शांतिपूर्वक पिंड छुड़ाना चाहती है, तभी तो वह कोर्ट के आरोप—प्रत्यारोपों से भी कतरा रही है। अब उसे यहां से भाग जाने में ही अपनी भलाई दिख रही थी। यह उसके पीछे दौड़ने वाला नहीं है। वह चुपचाप धीरे—धीरे बाथरूम में घुस गई, और देर तक रगड़—रगड़ कर अपना चेहरा धोती रही, जैसे सुखदेव का वजूद उसके शरीर से चिपक गया हो। जहां—जहां उसने छुआ था वह स्पर्श गिजगिजाहट पैदा कर रहा था। फिलहाल समस्या का निदान हो गया था। हिमानी रसोई में बिस्तर लगाकर सो जाती थी और बहुत सवेरे उठ जाती थी ताकि न कोई देखे और न बात का बतंगड़ बने।

घर की व्यस्तता के कारण वह आदित्य को फोन भी नहीं कर सकी थी। फोन पुराने घर से कट तो गया था, लेकिन अभी नए घर में लगा नहीं था। हिमानी ने समय निकालकर बाजार से फोन किया। इधर के सारे समाचार आदित्य को सुनाकर उसने स्वयं को हल्का किया। फिर पूछा कि मां ने उसके बारे में कोई बात की या नहीं...कैसा लगा उन्हें मुझसे मिलकर। आदित्य ने बताया कि मां को तुम अच्छी लगी ‘नो डाउट'। आई मीन वे मेरी पसंद को नहीं नकारेंगी। उन्होंने कहा भी कि मैच अच्छा है...पहले से कोई बच्चा नहीं, यह और भी अच्छा है। हां, वे कह रही थीं कि एक बार मेडिकल चेक—अप हो जाए... क्योंकि उन्हें डाउट है कि तुम भविष्य में कंसीव नहीं कर पाओगी... शायद तुमसे भी इस बारे में पूछा होगा...

हिमानी ने कहा, ‘‘हां, पूछा था, पर आदित्य मुझमें कमी नहीं थी, अभी क्या हो सकता है? मैं क्या जानूं...यही मैंने उनसे कहा था।'' आदित्य ने उधर से फौरन कहा, ‘‘यह कौन—सा बड़ा मसला है। चेकअप हो जाएगा डोंट वरी!''

‘‘मैं कहां वरी हूं... अगर मैं कंसीव करने योग्य नहीं हुई तो...?''

‘‘तो क्या? तुम पहले से ही क्यों नेगेटिव सोच रही हो, बी पॉजिटिव!''

‘‘फिर भी आदित्य सोचो तो सही...अगर रिपोर्ट पॉजिटिव नहीं हुई तो...''

‘‘क्या एक ही रट...पहले मेडिकल—ओ.के.! और हां! आई मीन पिटीशन के पेपर्स भी साइन करो जल्दी से, सबसे पहला काम तो वही है।''

हिमानी आदित्य से जो सुनने की उम्मीद कर रही थी, उसे वे शब्द सुनने को नहीं मिले। आदित्य कितना ही आशावादी क्यों न हो, लेकिन एक बार, सिर्फ एक बार, उसका मन रखने के लिए कह देता कि रिपोर्ट चाहे जैसी आए...हम प्यार करते हैं, हम शादी करेंगे, साथ रहेंगे। ऐसा कुछ नहीं कहा आदित्य ने। तो क्या यह शादी की शर्त है उसकी ओर से। उसे बच्चे पसंद हैं तो मुझे क्या दुश्मनी है बच्चों से। मैं तो स्वयं कब से तरसती रही हूं एक बच्चे के लिए, अपने जने के लिए।'' उधर से आदित्य ‘हलो! हलो!' चिल्ला रहा था। अपनी सोच से उबरकर हिमानी ने कहा, ‘‘हां! बोलो, सुन रही हूं!''

‘‘कहां गायब हो गई थीं तुम...शायद लाइन में गड़बड़ है...हां मैं कह रहा था कि विनोद को भेज दूंगा पेपर्स लेने के लिए। प्लीज, साइन करके रखना...ठीक है। ओ.के.।''

‘‘नहीं, नहीं! उसे मत भेजना। मैं जल्दी ही मिलूंगी तुमसे...पेपर्स की जरूरत नहीं है, मैंने कुछ और सोचा है।''

‘‘क्या सोचा है बताइए तो!''

‘‘बाद में फोन करूंगी, मिलूंगी भी, बाय!'' कहकर उसने फोन काट दिया।

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