Phir bhi Shesh - 26 in Hindi Love Stories by Raj Kamal books and stories PDF | फिर भी शेष - 26

फिर भी शेष - 26

फिर भी शेष

राज कमल

(26)

सुखदेव ने साठ बरस के जीवन में कभी भी ऐसा अनुभव नहीं किया था। आज उसके पांव जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। दुनिया रंग—बिरंगी दिख रही थी। सब कुछ अच्छा ही अच्छा लग रहा था। सब उससे कितने प्यार और सम्मान के साथ पेश आ रहे थे। जो कल तक उसे दुत्कारते थे, आज उसके तलवे चाटने को तैयार थे। किसी के लिए वह सेठ सुखदेव था तो किसी के लिए लाला सुखदेव। कोई उसे व्यापार करने की सलाह दे रहा था तो कोई बिजनेस के गुरुमंत्र सिखा रहा था। कोई प्रॉपर्टी का धंधा करने की सलाह दे रहा था तो कोई पैसा ब्याज पर चढ़ाने के फायदे गिनवा रहा था। उसका बिल्डर के साथ लेन—देन पूरा हो गया था और कागजात पर दस्तखत इत्यादि हो गए थे। आज से सुखदेव अपने आधे हिस्से के बूते पर लाखों रुपये और एक शानदार फ्लैट का मालिक था। सारा दिन उन्हीं कामों में अलग—अलग बैंकों में चेक—कैश जमा कराने में बीत गया। उसने कुछ फिक्स डिपोजिट भी करवाए थे। बड़े भाई ने उस पर जो अब तक खर्च किया था, उसे अघोषित ब्याज समेत वसूल लिया था। आखिरी बार उसे समझाया भी था कि अपनी औरत पर भरोसा मत करे और शराबखोरी कम करके कोई धंधा शुरू कर ले। अंत में भावुक होकर कहा था, ‘‘एक पेट से पैदा हुए हैं, इसीलिए समझा रहा हूं। मेरा फर्ज पूरा हुआ, आगे तेरी मरजी...''

दुकान के लिए सुखदेव ने मेन बाजार में लालजी सिल्क स्टोर वाले नंदाणी से बात कर ली थी। उनका स्टोर मेन बाजार और गली के कोने पर था। स्टोर में से गली की ओर चार फुट चौड़ाई की जगह देने के लिए मान गए थे, जिसमें सुखदेव बच्चों के खिलौनों की दुकान खोलने का मन बना चुका था। सबको लग रहा था कि यह सुखदेव का नया अवतार है। उसकी सक्रियता, उसके चेहरे की रौनक देखते ही बनती थी। रुपया आदमी का कैसे कायाकल्प करता है, इसकी मिसाल था सुखदेव। वह खुशी बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था। दूर हो गए परिचित उसके नजदीक आ रहे थे। वह भी अपने सभी परिचितों से मिलने को आतुर हो रहा था। चौक पर जाकर वह अपने यारों से मिला। उन्होंने उसे हाथों हाथ लिया। आज उनके लिए पुराना सुखदेव नहीं था। सुखदेव को भी वे उसकी सरेआम धोती खींचने वाले नहीं लगे। सभी पर जैसे कोई अघोषित आचार—संहिता लागू हो गई थी।

‘‘लाला जी! अब अच्छी—सी दावत का इंतजाम हो जाए यारों के लिए। मैं तो हमेशा कहता था, अपना सुक्खी सेठ बनेगा एक दिन... गोरख ने पान पर चूना फिर उस पर कत्था रगड़ते हुए कहा।

‘‘लॉटरी आखिर लग ही गई...'' सुमेर सिंह ने चाय छानते हुए कहा, जो लड़की की शादी करके लौट आया था।

‘‘जुनेजा से खरीद कर लॉटरी नहीं लगी तो क्या! बाप—दादा की तो लग गई। क्यों करीम भाई।'' काले कपड़े से काले हाथ रगड़ते हुए करीम ने कहा, ‘‘सेठ, अब तो ‘गाड़ी' डाल लो...शोरूम से निकलवाओ चमचमाती मारुती...क्यों चौबे...'' गोरख की ओर उसने आंख दबाई। गोरख ने तुरंत पान पर सुपारी रखी और कहा, ‘‘अब हम क्या कहें, लालाजी की मरजी, भौजी को कार में घुमाएं या रिक्शा में।'' फिर उसने करीम की ओर मुखातिब होकर कहा।

‘‘जो कहना है, खुद ही कहो करीम मियां...गोरख तो पहले ही बदनाम है...''

‘‘लाला, चाय तो नहीं पियोगे अब...'' सुमेर ने पूछा तो सुखदेव ने हंसकर कहा, ‘‘क्यों भाई, अगर चाय इतनी बुरी है तो बेचना छोड़ दे।'' उसकी बात पर गोरख ने दाद दी, ‘‘वाह—वाह क्या नहले पे दहला मारा है।''

‘‘अबे बंसी देखी अपने लालाजी की हाजिरजवाबी।'' करीम भी तारीफ़ करने में पीछे नहीं रहा। इतना और जोड़ दिया, ‘‘इसे कहते हैं खुदा जब हुश्न देता है, नज़ाकत आ ही जाती है...'' संयोग ही था कि इतने अरसे बाद राजाराम और जुनेजा भी वहां आ धमके थे। देर तक यार लोग गपियाते रहे। राजाराम को सुखदेव से गिला था कि उसने उसकी पार्टी को कभी भाव नहीं दिया। दो पैसे उसे भी मिल जाते। सुखदेव ने बात हंसकर टाल दी और कहा, ‘‘नसीब से ज्यादा नहीं मिलता मिस्त्री।'' बंसीधर ने पत्ते पर केले के टुकड़े काटते हुए उससे आग्रह किया कि अपनी दुकान पर उसके छोटे लड़के को जरूर रख लेना, ससुरा पढ़ाई से जी चुराता है। उधर जुनेजा ने सुखदेव को थोड़ा अलग ले जाकर अपनी अर्जी लगाई।

‘‘यार सुक्खी, काम कुछ जम नहीं रहा...बढ़ाना चाहता हूं...माल के लिए कुछ मदद कर दे। सिर्फ दस हजार बस। जो मार्किट रेट हो सो ब्याज ले लेना। मैं तो कहता हूं मार्किट में ब्याज पर पैसा लगा...हां! घर बैठे आमदनी। नुकसान का मतलब ही नहीं...।'' उसने किसी को ना नहीं कहा और पक्का वादा भी नहीं किया। बस, हां—हूं करता रहा।

वहां से उड़ता हुआ वह टैक्सी स्टैंड पर पहुंचा, तब तक शाम गहरा गई थी। राजाराम उसके साथ था। जगतार ने उसे बाहों में भर लिया। बिल्ला, मिक्का, धुन्नी तथा दो और नए ड्राइवर भी वहां थे। देर रात तक खूब महफिल जमी। व्हिस्की, बटर चिकन, नान सब सुखदेव ने मंगवाया। आज मिक्की, बिल्ला बिलकुल सीधे थे। जगतार सिंह ने उन्हें इशारे से पहले ही धमका दिया था कि कोई सुखदेव से छेड़छाड़ न करे।' इसके बाद वह खुद अपने पुराने टै्रक पर आ गया। ‘‘ए दे पापाई मैनु बहुत मन दे सी...ऐ मेरा बड्‌डा भ्रा है...। ओय मैं कहता हूं दो—तीन टैक्सियां पा ले। मेरी गरंटी...साल दे अंदर—अंदर तेरा ट्रक दौड़ेगा ‘दिल्ली टू बाम्बे'। तू मन तो सही भ्रा दी गल।'' नशे की पिनक में सुखदेव बहुत बड़ा ट्रांसपोटर बन गया। कुछ घंटों में पूरे देश में उसके दर्जनों ट्रक—बसें चलने लगीं। राजाराम थोड़ा पहले चला गया, उसका घर थोड़ा दूर था। सुखदेव का तो पड़ोस ही था। सो, बैठा रहा देर रात तक।

कैसी भयानक रात थी। सुबह हुई भी तो सूरज को काला कर गई। लोगों के मुंह—आंखें आश्चर्य से खुले के खुले रह गए। जिसने भी सुना, वह दौड़ा चला आया। इस उम्मीद में कि शायद खबर झूठी हो और यदि सच भी है, तो मैं सबसे पहले उसका साक्षी बनूं। धीरे—धीरे गली लोगों से भर रही थी। सबके चेहरे पर जिज्ञासा थी, प्रश्न ही प्रश्न थे। हैरानी इस बात की थी कि ऐसी अनहोनी अभी क्यों घटी? अभी तो उसके दुःख भरे दिन बीते थे। अभी तो उसका नया जीवन आरंभ हुआ था। अभी तो उसकी कुचली तमन्नाओं ने अंगड़ाई ली थी। अभी तो उसने इज्जत पाई थी। उसका एहसास किया था। अभी तो वह भी लोगों से नजरें मिलाने लायक हुआ था। खुशियां इतनी छोटी क्यों होती हैं। ईश्वर से भी उसकी खुशी देखी नहीं गई।

ऐसे ही भावों से ओत—प्रोत आदमी, औरत और बच्चे सभी जितेंदर सूद के मकान की ओर खिंचे चले जा रहे थे। जहां अभी सप्ताह भर पहले ही सुखदेव और हिमानी ने रहना शुरू किया था। हर कोई एक झलक पाने की खातिर सीधा घर में घुसता चला जाता। वहां जमीन पर चादर से ढके सुखदेव के मृत शरीर और कोने में पाषाण बनी बैठी हिमानी को देखता और फिर बाहर आकर भीड़ का हिस्सा बन जाता था।

ऐसा कुछ भी तो नहीं हुआ था, जो पहले न हुआ हो। वर्षों से सुखदेव शराब की लत का मारा था। रोज पीकर घर लौटता था। किसी दिन नशा कम लगे तो घर आकर दोबारा पी लेता था। रोज ही रात को देर से लौटता था और सुबह भी देर से उठता था। सुबह हिमानी नित्यकर्मों से फारिग होकर नहाना—धोना, पूजा—पाठ, चाय—नाश्ता निबटा

लेती थी। उसके बाद ही सुखदेव की सुबह होती थी। कुल्ला—दातुन करके वह रस्क के साथ चाय पीता और फिर मंदिर चौक की ओर निकल जाता। कभी—कभी दोपहर बाद खाने के लिए आ जाता था, नहीं तो सारा दिन इधर—उधर दुकानों पर, यारों के साथ गप्पबाजी करता और रात को कहीं न कहीं अड्‌डेबाजी में शराब पीकर ही लौटता था।

कल रात भी वह देर से लौटा था और नशे में था, किंतु बहुत खुश लग रहा था। हिमानी दरवाजा बंद करके उसके पीछे—पीछे कमरे में लौटी तो वह किसी फिल्म का गाना गुनगुना रहा था, ‘‘साला मैं तो साब बन गया...साब...बन के कैसा...तन गया...साला मैं...साला मैं...मैं तो साब...।'' उसके कदमों में लड़खड़ाहट थी। वह बिस्तर पर लेट गया। पूछने की जरूरत नहीं थी कि खाना खाएगा या नहीं। हिमानी सोने के लिए रसोई की ओर बढ़ी तो अचानक सुखदेव ने कहा, ‘‘हलो डार्लिंग...! याद है न...अपना वादा! हिक!...वादा तेरा वादा...हिक!'' उसका कथन भी अंत में तरन्नुम बन गया। अदब की मारी हिमानी उसके पास आ गई ताकि जोर से न बोलना पड़े और उसकी ओर थोड़ा झुकते हुए फुसफुसाकर बोली, ‘‘हां, हां! याद है...सो जाओ अब ज्यादा बहको मत, दूसरों का घर है, लोक—लाज का कुछ तो...।''

सुखदेव सो तो गया, किंतु फिर उठा नहीं। सुबह बहुत देर तक हिमानी उसके उठने की प्रतीक्षा करती रही थी। वह जब घर से निकल जाता था, तभी वह तसल्ली से घर के शेष कार्य निपटाती थी। उसने सोचा था आज आदित्य से मिलकर उसे अपने निर्णय से अवगत कराएगी कि आगे उसे क्या करना है। शेष जिंदगी को किस तरह पार लगाना है।

पहले उसने सुखदेव को आवाजें दीं। फिर उसे छूकर जगाने का प्रयत्न किया। तब भी उसके शरीर में कोई हरकत नहीं हुई तो वह शंकित हुई और घबराकर उसे झिंझोड़ दिया, लेकिन उसका शरीर तो जैसे काठ के पुतले की भांति अकड़ा पड़ा था। चेहरे पर ऐंठन का भाव अभी भी था, जैसे वह दर्द से छटपटाया हो। उसके मुंह से चीख भी नहीं निकल सकी। क्षणांश में वह विमूढ़ हो गई जैसे। अवसन्न अवस्था में विस्फारित आंखों से सुखदेव की मृत काया को देख रही थी। चंद मिनटों बाद उसकी चेतना लौटी तो बिलखते हुए ही उसने दौड़कर मालिक मकान को खबर दी कि आप जरा देखो तो नन्नू के पापा को क्या हो गया है। सूद, उसकी पत्नी और बुआ फौरन आए। बुआ ने अपनी बुजुर्गियत से मुआयना किया और इन्कार में गर्दन तथा हाथों को हिलाकर ‘कुछ नहीं बचा' की घोषणा कर दी।

फिर भी हिमानी ने जितेंद्र से अनुरोध किया कि वह फौरन जाकर बाजार से किसी भी डॉक्टर को ले आए। पन्द्रह—बीस मिनट में ही डॉक्टर आ गया। उसने अच्छी तरह मुआयना किया और उसने भी कह दिया, ‘‘ही इज डेड।'' चमत्कार होने की अब कोई किरण शेष नहीं थी। हिमानी वहीं फर्श पर बैठ कर रोने लगी। रोने की आवाज सुनकर कुछ पड़ोसी तुरंत दौड़े चले आए, सूद की पत्नी और बुआ भी कुछ देर उसके साथ बैठीं। उसे ढांढस बंधाया, ‘जो होना था हो गया...होनी को कौन टाल सकता' जैसे रवायती जुमले कहे और सुझाया कि सभी नाते—रिश्तदारों को खबर कर दे...' सूद ने जाते—जाते कहा, ‘‘बुआ मैं अभी हरदयाल भाई को फोन करता हूं...फिर वे आगे खबर कर देंगे। उनके पास होंगे सबके नंबर...'' तनिक रुक कर वह हिमानी से मुखातिब हुआ। बोला, ‘‘भाभी, आपके पास जो नंबर हों, दे दो।'' हिमानी सुबकते हुए उठी, कागज—पेन ढूंढ़कर उसने नरेंद्र, काजल और आदित्य का नंबर लिख कर सूद को दे दिया।

वायु में असंख्य ध्वनियां होती हैं, जो संकेतों का कार्य करती हैं। बिना कहे—सुने लोग आभास पा लेते हैं। पहले अड़ोस—पड़ोस में हलचल हुई, फिर पुरानी गली वाले पड़ोसियों के कान खड़े हुए। धीरे—धीरे लोग जुटने लगे।

हरदयाल सिंह और उसके परिवार के आते ही गहमा—गहमी बहुत बढ़ गई। उसकी पत्नी कमला तो गली में घुसते ही छाती पीटती हुई घर की ओर दौड़ी थी। उसने आते ही हिमानी को सांत्वना देने के उलट कोसना शुरू कर दिया, ‘‘इस कलमुंही ने मेरे हीरे जैसे देवर की कदर नहीं की ...अब कलेजे में पड़ गई ठंडक...रांड! मनहूस, न ‘आस— औलाद', न आदमी...अब दुनिया भर में घूम...जनम में थुकाती...। अरे! कल तक कैसा छैला बना घूम रहा था...जाने किस की नजर खा गई...न खांसी हुई, न जुकाम...'' बीच—बीच में वह थोड़ा विराम लेकर फिर शुरू हो जाती थी। उसने सूद की बांह पकड़ कर अपने ‘बैन' जारी रखे, ‘‘कह रहा था सारी उमर कंगाली में कट गई...दुकान करूंगा अब...नए फ्लैट में रहूंगा शान से!...देखना भाभी, अब मनी भी मेरी इज्जत करेगी...

सब छूट गया रे...हंसा उड़ गया...सब छोड़ गया इस करमजली के लिए...''

जिसने भी सुना, दौड़ा चला आया। जितने मुंह उतनी बातें। अलग घेरे में खड़े लोग बतिया रहे थे। चौक से बंसीधर, गोरख, करीम, सुमेर वगैरह एक गोल में खड़े थे। एक गोल ठेकेदार जगतार और उसके ड्राइवरों का था। पुरानी गली के लोगों का अलग घेरा था। सुपर गारमेंट फैक्टरी के कुछ कारीगर भी एक घेरे में खड़े थे। अंदर से बार—बार रोने की आवाजें उठतीं, फिर बंद हो जातीं।

ऐसे समय में सभी हितैषी होते हैं। अभी दो घंटे ही बीते थे। गली में खड़े बुजुर्ग लोग स्वयं ही सलाह दे रहे थे। ‘‘दोपहर हो गई है...ऐसे मौसम में मिट्‌टी को ज्यादा देर रखना ठीक नहीं...''

‘‘अभी तो सामान भी आता न दीखा...'' दूसरे सज्जन ने जानकारी दी।

‘‘कोई दूर से आने वाला भी नहीं...फिर क्यों देर—दार है भाई...''

‘‘क्या पता, विदेश से नरेंद्र के मामा को आना हो...''

‘‘कैसा मामा, आप भी गुप्ता जी कैसी बातें करते हो...आपको नहीं मालूम, नन्नू की मौसी ने खुद ही उनसे नाता तोड़ रखा है। न आना, न जाना। आप ही बोलो, सुखदेव के मां—बाप के गुजरने पर भी कोई आया?''

तभी किसी ने जैसे याद दिलाया, ‘‘क्या कहते हो चाचा! बेटे के होते ‘दाग' कोई और तो नहीं देगा...मेरा ख्याल है नन्नू का इंतजार कर रहे हैं।''

‘‘पर क्या पता उसे ‘छुट्‌टी' मिलेगी भी या नहीं।'' दूसरे ने शंका जाहिर की।

‘‘ऐसे हालात में तो मुमकिन है भाई...भला जज—वकील भी तो इंसान होते हैं, बेटे का हक तो नहीं छीनेंगे...आखिरी बार मिलने तो देंगे ही...''

‘‘पता नहीं, किसी ने उसे खबर भी की है कि नहीं...।'' एक ने संदेह जताया। दूसरे घेरे के एक सज्जन इधर भी कान लगाए हुए थे। सो, इस घेरे की उत्सुकता शांत करने के लिए इधर खिसक आए और कहा, ‘‘उसके वकील को खबर दे दी है...उसने कार्यवाही शुरू कर दी है...फिर भी पता नहीं, कब छुट्‌टी मिले उसे।''

‘‘बात यह है कि करने—कराने में अंधेरा न हो जाए...'' किसी ने बात का निचोड़ निकाल दिया।

अचानक भीड़ हिली। अंदर से हरदयाल और उसका बड़ा बेटा निकले और मोटर— साइकिल पर बैठकर एक ओर निकल गए। केवल पंद्रह—बीस मिनट ही गुजरे होंगे कि जिस रफ्तार से वे लोग गए थे, उसी रफ्तार से लौट आए परंतु उनका लौटना सामान्य नहीं था। लोगों की आंखें हैरत से फटी की फटी रह गर्इं, जब उन्होंने उनके पीछे—पीछे पुलिस की जीप को आते देखा, जिसमें एक सब इंसपेक्टर और तीन कांस्टेबिल थे। जिनमें एक महिला कांस्टेबिल भी थी। जीप की रफ्तार और बेपरवाही से गली के कुछ कुत्तों की मस्ती में खलल पड़ गया। वे गुस्से से भाैंकते हुए कुछ दूर तक जीप के पीछे भागे। जो लोग अभी तक एक परिचित की मौत पर गमी के रूप में इकट्‌ठे हुए थे, अब कौतुहल से भरकर रहस्यकथा की कल्पना करने लगे। पुलिस की आमद से एक मौत ने मजमे का रूप ले लिया था। आस—पास के बाजार और दुकानों से भी लोग जिज्ञासावश आ गए। गली के दोनों ओर की छतों और बालकनी—खिड़कियों में बच्चे, औरतें—आदमी, सभी तमाशबीन बन गए थे।

पुलिस को देखकर हिमानी के होश उड़ गए। उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि सुखदेव की अचानक मृत्यु के लिए उसे जिम्मेदार ठहराया जाएगा। इंस्पेक्टर ने हिमानी को अलग ले जाकर पूछताछ की। फिर सूद और उसके परिजनों से कुछ सवाल पूछे। पुराने घर के पड़ोस के लोगों से सवाल किए। हिमानी के कुछ शुभचिंतकों ने जवाब देते हुए किंतु—परंतु लगाए तो उन्हें इंस्पेक्टर ने झिड़क दिया। उसने यह निष्कर्ष निकाल लिया कि पति—पत्नी के संबंध ठीक नहीं थे। यह भी कि इस समय मकान के सौदे का जो रुपया सुखदेव को मिला था, उसे हथियाने के लिए ही शायद उसने पति की हत्या कर दी। देखते—देखते चंद मिनट में लोगों के बीच सुखदेव की मौत हत्याकाण्ड बनकर फैल गई। यह भी जाहिर हो गया कि मृतक के भाई ने ही सुखदेव की पत्नी हिमानी पर आरोप लगाया है कि रुपयों की खातिर उसने, पति की जान ली है। हिमानी के लिए तो ईश्वर ही साक्षी था। सैकड़ों लोगों की भीड़ में वह असहाय, नितांत अकेली थी। बार—बार उसे आदित्य का खयाल आ रहा था। वह सोच रही थीवह होता तो उसे जरूर हिम्मत मिलती, पर वह आया क्यों नहीं, क्या उसे खबर नहीं मिली? अब वह सूद से पूछे भी कैसे और खुद भी कैसे फोन करे। जेठ—जिठानी को पता चलते ही एक और बखेड़ा शुरू कर देंगे। नन्नू का भी पता नहीं, वह आ पाएगा कि नहीं ...बाप का ऐसा नसीब खोटा कि मरने से पहले बेटी—बेटे का मुंह तक नहीं देख सका। खैर! बेटी तो आएगी भी क्या, पर बेटा भी बाप की सूरत को न तरस जाए।

कुछ ही देर में एम्बुलेंस आई, जो सुखदेव के मृत शरीर के साथ हरदयाल के बड़े बेटे और एक कांस्टेबल को लेकर वापस चली गई। जो लोग उसकी मैयत में शामिल होने आए थे, उन्होंने राहत की सांस ली कि आज का दिन तो गया। कल तक पोस्टमार्टम होगा, तब कहीं लाश मिलेगी। अभी तक पुलिस की जीप वहीं थी। इसलिए लोगों में उत्सुकता बनी हुई थी, पर जल्दी ही लोगों ने देखा कि इंस्पेक्टर और कांस्टेबल बाहर निकले। महिला कांस्टेबल के साथ हिमानी भी थी। सब लोग जीप में बैठे और देखते—देखते घर्राती हुई जीप गली से गायब हो गई। चलते—चलते रुक कर तमाशा देखने वाले लोग अब छंट गए थे। अब वे ही बचे थे, जो किसी न किसी रूप में इस परिवार से जुड़े थे या परिचित थे।

पानवाला गोरख अपने घेरे में अफसोस जाहिर कर रहा था, उसे यकीन नहीं हो रहा था कि हिमानी ऐसा कर सकती है।

‘‘भैया यह भी तो हो सकता है, सुक्खी ने खुद ही कुछ खा—पी लिया हो...शराब पीकर क्या लोगों को मरते नहीं सुना...''

‘‘अरे, क्या पता था, कल की मुलाकात आखिरी होगी...मैंने सोचा था लड़का इसके साथ दुकान पर लग जाएगा, धंधा सीख लेगा...'' बंसीधर ने अपनी हताशा जताई।

‘‘हां, पीना जरूर सीख लेता।'' गोरख ने हंसकर कहा। करीम मायूस होकर कहने लगा, ‘‘यार उसकी बीवी पर तरस आता है। कैसी फजीहत करेगी पुलिस उसकी... अभी भी उसे देखो तो रूह खुश हो जाती है, पर क्या नसीब पाया है बेचारी ने।'' बंसीधर ने हां में हां मिलाई, गोरख मुस्कराया और राजाराम तो जो कुछ देर पहले ही आया था, बिलकुल खामोश था। उसे सूझ नहीं रहा था कि क्या कहे। उसका इतना प्यारा यार, कल था आज नहीं है। कल जिसके साथ शराब पी, आज नहीं रहा। ऐसा कैसे हो जाता है, जो एक पल में होता है, दूसरे पल नहीं रहता। उससे कितनी उम्मीदें थीं। अभी तो उसकी जरूरत थी। कह रहा था, ‘तू फिकर मत कर ठेकेदार, जैसे तेरी बेटी, वैसे ही मेरी। मैं करूंगा मदद...' सोच कर उसकी आंखें भर आर्इं। उधर बल्ली, ठेकेदार जगतार से कह रहा था, ‘‘उस्ताद जी पीने से कुछ नहीं हुआ...एक ही बोतल से तो हम सब ने पी

है...है कि नहीं। मुझे जरूर कुछ गड़बड़ लग दी है...'' घुन्नी ने अपनी राय जाहिर की। ‘‘साब जी, वो शकल तो भोली लगदी है, पर है नहीं। वकील दे नाल एंवई चर्चे नहीं, मुझे तो दाल विच काला लगदा है...'' जगतार उनकी बक—झक देर से सुन रहा था। अब खीझकर बोला, ‘‘ओए, चुप्प करो! किसी पर एंवई इलजाम लगाना ठीक नर्इं है,

...ओय पोस्टमार्टम के बाद ही पता चलेगा कि ओदा गला दबाया है कि जहर पिलाया या कुछ होर कहानी है।''

शाम की खबरों में कई चैनलों ने ‘ब्रेकिंग न्यूज' बनाकर इस खबर को पूरे देश में प्रसारित कर दिया। उन्होंने मनमाने तरीके से केस की व्याख्या भी कर दी। जैसे, ‘रुपयों और जायदाद के लालच ने उसे अंधा बना दिया और वह बन गई अपने पति की हत्यारिन। कि उसे सुहाग नहीं, पैसा प्यारा था। कि वह पति को रास्ते से हटाकर मौज— मस्ती की जिंदगी गुजारना चाहती थी, तब उसने रचा पति की हत्या का षड्‌यंत्र...वगैरह—वगैरह।' श्रोता समाचार सुनकर उसे लानत भेज रहे थे और कलियुग को कोस रहे थे, परंतु वहां के अधिकतर स्थानीय लोगों की राय थी कि हिमानी के साथ पुलिस ने बेजा हरकत की है। बिना किसी सबूत के उसे मुजरिम ठहराकर थाने ले गई है। बहुतों का यह भी मानना था कि हो न हो, इसके लिए हरदयाल सिंह ने थानेदार को मोटी रकम खिलाई हो। कुछ महिलाएं तो बहुत मुखर होकर थाने का घेराव करने के हक में थीं।

आदित्य को समाचार देर से मिला था, परंतु वह आ सकने की स्थिति में नहीं था। मां को छोड़ने बंगलौर गया था, परंतु जब उसने टीवी के माध्यम से खबर की गंभीरता को समझा तो उसे हिमानी के पास न होने का बड़ा अफसोस हुआ। आदित्य ने वहीं से, महिला अधिकारों के लिए काम करने वाले एक एनजीओ से संपर्क किया और हिमानी की मदद के लिए आग्रह किया। आनन—फानन में एनजीओ की एक टीम हिमानी के घर गई और वहां से सारी जानकारी लेकर थाने पहुंची। ऐसे में उन स्थानीय महिलाओं और पुरुषों ने उनका साथ दिया, जो हिमानी को बेकसूर मान रहे थे या कि उसके साथ पुलिस बर्ताव को ज्यादती मान रहे थे। वे काफी संख्या में थाने पहुंचे। कई घंटे तक थाने का घेराव किया। मामले को तूल पकड़ता देखकर थानेदार को झुकना पड़ा। हिमानी उसी रात को घर आ गई। दूसरे दिन भी समाचारों में हिमानी की आरोपी छवि बनी रही। तीसरे दिन सुबह पोस्टमार्टम की रिपोर्ट पुलिस को मिल गई। खुलासा हुआ कि सुखदेव को न तो जहर देकर मारा गया था और न ही उसका गला दबाया गया था। उसे नींद में ही दिल का दौरा पड़ा था, जिसके कारण उसकी मौत हो गई। लोगों ने समाचार—पत्रों और खबरी चैनलों को खूब गालियां दीं और जम कर कोसा।

हिमानी के लिए ‘आरोप से मुक्त होने पर' खुश होने जैसी बात तो नहीं थी, किंतु भीतर संतोष था कि ईश्वर ने उसके साथ न्याय किया। उसकी सच्चाई और ईमानदारी को क्षरित नहीं होने दिया। वह तो मर ही गई थी। दो दिन से उसमें चेतना थी ही कहां। उसे संतोष इस बात का भी हुआ कि दूसरे दिन नन्नू को जेल से कुछ दिन की छुट्‌टी मिल गई थी। उसने अपने बाप के अंतिम दर्शन कर लिये और उसकी चिता को अग्नि देकर बेटे का फर्ज भी निभाया।

नरेंद्र अपने ताऊ के साथ जेल से सीधा अस्पताल चला गया था, जहां सुखदेव का पोस्टमार्टम हो रहा था। चूंकि रिपोर्ट शाम को मिली थी। इसलिए ‘मोरचरी' से शव अगले दिन दोपहर तक ही मिला था। इसलिए परिजन अस्पताल से सीधा निकट की श्मशान भूमि में ले गए थे जहां से शाम तक ही निबट पाए थे। इस दौरान एक बार भी नरेंद्र की हिमानी से सीधे बात तक नहीं हुई थी। वहां से लौटकर भी वह हरदयाल के परिवार के साथ उनके ही घर चला गया। बाद के क्रिया—कर्म भी हरदयाल ने अपने घर से ही किए। तब भी नरेंद्र ने उससे बात नहीं की। उसके दुःख में शरीक नहीं हुआ, न ही अपने दर्द को हिमानी की छाती से लगने दिया। एक दिन आया और सुखदेव की आलमारी से कीमतीं चीजें, कुछ कागजात एक अटैची में भर कर ले गया। हिमानी का जी नहीं माना तो उसने अनेक बार नन्नू की ओर हुमककर इस आशा से देखा कि वह अभी मौसी कहकर उसके गले लग जाएगा और अपना दुःख साझा करेगा। ऐसे मौके पर यदि वह हिमानी को उलाहना भी देगा तो वह बुरा नहीं मानेगी, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। जैसे उससे नरेंद्र का कोई नाता ही नहीं था। क्षोभ और अपमान की मारी हिमानी ने भी अपनी ओर से बात करने की चेष्टा नहीं की। धीरे—धीरे वह मजबूत हो रही थी। ‘वह नहीं गिड़गिड़ाएगी किसी के आगे

...नहीं बनेगी दीन—हीन...नहीं देगी किसी को अपने प्यार का वास्ता। सब उसके बिना जी सकते हैं तो अब वह भी जिएगी उन सब के बिना...सिर्फ अपने लिए।' ऐसा सोच कर वह खामोश होकर एक ओर बैठी रही थी। कुछ लोग इसे नरेंद्र की ज्यादती मान रहे थे तो कुछ लोगों का विचार था कि ‘‘मैय्या! यह सब लालच का अंधापन है जो उसकी बीवी को देखकर भी अनदेखा कर रहे हैं।'' हिमानी से तनिक भी सहानुभूति रखने वालों की यह स्पष्ट धारणा था कि यह हरदेव सिंह का खेल है। सब कुछ अकेले हड़पने के लिए वही एक तीर से दो शिकार कर रहा है। हिमानी आरोप से बच गई तो क्या, उसे बेटे से अलग—थलग करके चीजों को अपने कब्जे में ले लेगा। नन्नू को तो वापस जेल जाना ही है। आगे उसका क्या बनेगा, क्या पता? हिमानी अपने कब्जे और हक के लिए कोर्ट में चक्कर काटे या खुद ही कहीं चली जाए दुःखी होकर।'

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Very nice

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