फिर भी शेष
राज कमल
(27)
हिमानी को अपने दरवाजे पर देखकर चौंका था आदित्य। रात के लगभग ग्यारह बज रहे थे। हिमानी दाएं हाथ में सूटकेस तथा बाएं कंधे पर बैग लटकाए खड़ी थी। कुछ पल विमूढ़ की अवस्था में गुजार कर आदित्य ने किंचित सहज होकर भी आश्चर्य प्रकट किया, ‘‘हिमानी जी! क्या हुआ...आई मीन, सब ठीक...!'' कहकर वह हिमानी का मुंह ताकने लगा। कुछ पल हिमानी ने भी उसे असहजता से देखा, फिर कहा, ‘‘क्या मैं गलत पते पर हूं...वापस जाऊं?''
‘‘नहीं—नहीं!'' वह फिर चौंककर हड़बड़ाया तथा अपनी झेंप मिटाने के लिए हंसा।
‘‘तो फिर सामने से हटिए...अंदर नहीं आने देंगे क्या...'' कहती हुई वह आगे बढ़ी। दरवाजा बंद करके उसके पीछे—पीछे आदित्य आ गया। हिमानी सोफे में जैसे धंस गई। लंबी सांस खींचकर उसने शरीर को ढीला छोड़ दिया। आदित्य उसका सामान दूसरे कमरे में रख आया और सामने आकर बैठते हुए बोला, ‘‘फोन भी नहीं किया...आपने
...तुमने...अगर मैं घर पर नहीं होता तो कितनी परेशानी हो जाती।''
आंखें बंद किए ही हिमानी ने सुना, क्षणभर बाद ही संभल कर सीधी बैठते हुए कहा, ‘‘ज्यादा टाइम नहीं है मेरे पास। मैंने उस दिन जब आप घर आए थे, कहा था न, कि अब मैं यहां और नहीं रह सकती... दस दिन बीत गए आपकी ओर से कोई खबर नहीं मिली...तो चली आई...''
आदित्य बंगलौर से लौटकर हिमानी से मिला था, उसके घर जाकर। किराए के एक कमरे के मकान में सामान के साथ वह भी एक पुराना सामान—भर दिख रही थी। हिमानी से सारी घटना सुन लेने के बाद उसने अफसोस जताया कि उसके साथ बहुत बुरा हुआ। इसके बाद अपने मन का संदेह भी खोलकर रखा, ‘एक क्षण के लिए तो वह
भी डर गया था समाचार सुनकर कर कि कहीं गुस्से में बेकाबू होकर आपने...।' वाक्य अधूरा छोड़ दिया था उसने, क्योंकि हिमानी काठ बनी उसे अपलक देख रही थी। फिर धीरे से इतना ही कहा, ‘‘आपको भी मुझ पर विश्वास नहीं था।'' और नजरें झुका ली थीं। तब आदित्य ने सोचा था, ‘इतनी सच्चाई भी अच्छी नहीं होती। मन का जगत तो इहलोक से बिलकुल परे है, उसका निर्वाह यहां नहीं हो सकता... बिना संपादन के अभिव्यक्ति कतई व्यावहारिक नहीं।'
उसने ‘सॉरी' बोलकर हिमानी से क्षमा मांगी थी। कुछ देर बाद माहौल को सहज करने की खातिर उसने कहा, ‘‘अब तो ‘सेपरेशन' का झंझट ही फिनिश!' जैसे बिल्ली के भाग से छींका टूट गया।' हंसकर आगे कहा, ‘‘लगता है कोई ‘इंट्यूशन' थी आपको। क्या इसीलिए पेपर्स साइन नहीं किए थे?''
आदित्य जानता था कि हिमानी का सुखदेव से कोई जुड़ाव नहीं था कि जिसका वह मातम मनाए। एक बंधन का बोझ था, जिसे जबरन वह ढो रही थी। सुहागिन या
विधवा जैसा भाव तो कम से कम उसकी सोच में नहीं ही होगा। तभी वह ऐसी बात करने की धृष्टता कर सका, लेकिन यह सब न होते हुए भी हिमानी का भाव—जगत अलग था। अंतस की गहराई में यह उसके लिए राहत की बात थी कि विधाता ने स्वयं सुखदेव को उसके जीवन से निरस्त कर दिया। अब वह स्वतंत्र थी। रिश्तों के बंधनों से मुक्त! नए रिश्ते स्वीकारने, नकारने का अधिकार उम्र के इस पड़ाव में उसके पास था। फिर भी वह आदित्य के परिहास का साथ नहीं दे सकी। उसने अपनी गंभीरता बनाए रखते हुए कहा, ‘‘मैं वैसी भाग्यवान बिल्ली भी नहीं हूं...। लोगों ने मुझे लालच में अंधी, हत्यारी औरत मान लिया था ...एक क्षण को तो आप भी सोच में पड़ गए थे कि ‘हिमानी' ने यह क्या किया...''
‘‘हां! एक क्षण को लगा था, फिर लगानहीं! ‘महादेव भवन' की अन्नपूर्णा ऐसा नहीं कर सकती...। बिना प्रमाण—पुष्टि... नहीं, नहीं! वह एक त्वरित प्रतिक्रिया थी, भावनात्मक!'' आदित्य ने बिना लाग—लपेट के सफाई दी, फिर बहुत बुझे स्वर में अफसोस के साथ बोला, ‘‘लेकिन मां अभी भी कंविंस नहीं हैं...बहुत समझाया उन्हें, पर इस उम्र में...नो वे!''
वैसे तो हिमानी को सदमे जैसा लगा, कुछ देर बिलकुल सन्नाटे में रही, लेकिन तुरंत ही उसने स्वयं को संभाला! होंठों पर जबरन स्मित सजाकर बोली, ‘‘इट इज ऑल फॉर द बेस्ट! मैं भी ‘गिल्ट' में मरी जा रही थी कि तुम्हें मना कैसे करूंगी।''
‘‘क्या मतलब! किस बात के लिए ना कहोगी?'' आदित्य ने हड़बड़ाकर पूछा।
‘‘मैंने अकेले रहने का फैसला कर लिया है।'' कहते हुए उसके चेहरे पर दृढ़ता का भाव था।
आश्चर्य और क्षोभ से लड़खड़ाकर आदित्य जैसे खाई में गिर गया हो, चीखने के बावजूद सन्नाटे से घिरा हुआ।
तब हिमानी ने विस्तार से आदित्य को बताया था कि उसे एस.ओ.एस. मदर बनना है। जिसके लिए वह दो वर्ष की टे्रनिंग लेना चाहती है। चूंकि पत्रिका में दी गई जानकारी में कुछ स्पष्टता नहीं थी। टे्रनिंग के लिए दी गई उम्र की जानकारी में थोड़ा भ्रम पैदा हो रहा था, जिसका निराकरण वह आदित्य की मार्फत चाहती थी। उसकी उम्र लगभग बयालीस की है। उसे एडमीशन मिल जाएगा या नहीं वगैरह—वगैरह। उसने यह भी याद दिलाया कि यह सुझाव आदित्य ने ही एक बार उसे दिया था।
आदित्य चुपचाप सुन रहा था, अचरज में डूबा। कुछ—कुछ निराशा का भाव भी था उसके चेहरे पर।
इस दौरान कमरे के बाहर बरामदे में सूद की बुआ कई बार दबे पांव चक्कर लगा गई थी। नहीं रहा गया तो बहाने से अंदर झांक कर पूछ ही लिया, ‘‘अरी हिमानी, बाज़ार से कुछ मंगाना हो बता दे। बच्चों को भेज कर मंगवा दूं। कौन है, दूर से आए हैं शायद रिश्तेदार हैं...अब, आवभगत तो करनी पड़ती है...जाने वाले के साथ, खाना—पीना तो नहीं छूटता...।''
‘‘रहने दो बुआ...! ये...हां! इनके रिश्ते में हां, हां!'' हिमानी ने ‘हां—ना' में सिर हिलाकर कुछ चुप रहकर बुढ़िया को टाल दिया था। आदित्य की चुप्पी कुछ लंबी हो गई। असहजता बढ़ने लगी तो उसे बोलना ही पड़ा। गला खंखारकर सिर्फ इतना कह सका, ‘‘इट मींस, हमारे बीच कुछ नहीं था।''
‘‘हमारे बीच था, है भी, एण्ड आई होप रहेगा भी। लेकिन क्या है कि उसे किसी संबंध का नाम देने का मन नहीं है। फिर रिश्ते, फिर शर्तें! फिर बंधन! इनसे जूझने की ताकत नहीं बची है।''
हिमानी का सीधा, सरल, स्पष्टीकरण सुनकर आदित्य ने आहतभाव से इतना ही कहा, ‘‘ठीक है। आई विल डू दैट...त्रिपाठी जी से बात कर लूंगा मैं।''
कई दिन गुजर गए। ऐसे एक—एक दिन हिमानी को भारी पड़ रहा था। उसने जाने की सारी तैयारी कर रखी थी। हरदम वह आदित्य के फोन का इंतजार करती। दिन में कई बार सूद की बीवी और उनके बच्चों से जाकर पूछ लेती, ‘‘उसके लिए कोई फोन तो नहीं आया?'' बुआ से पूछने की हिम्मत वह जुटा नहीं सकी। फिर भी बूढ़ी बुआ ने ताड़ लिया था। इस उम्र में भी उसके कान थे या कि ‘वायरलेस सेट'। कहीं दूर कोई फुस— फुसा रहा हो, वह ‘फ्रीक्वेंसी' झट से पकड़ लेती थी। एक दिन पूछ ही लिया, ‘‘अरी! जिसका फोन आना है, उसे तो फिकर है ना, और तू पूछ—पूछ के दुबली हुई जा रही है।'' फिर अपने आप से बुदबुदाती हुई बोली, ‘विधवा और गरीब को किसी की गरज नहीं होती।''
आदित्य का फोन नहीं आया तो नहीं आया। हिमानी के सब्र का बांध टूट गया। एक रात अपना सामान सूटकेस में डाला, कमरे में ताला लगाया और निकल पड़ी। बुआ सामने पड़ी तो उसे स्वयं बता दिया कि मौसी के यहां जा रही है, चौथे दिन लौट आएगी, अभी रात की गाड़ी है।' बुआ किंतु—परंतु करती ही रह गई, बाहर आकर उसने जंगपुरा के लिए ऑटो रिक्शा पकड़ा और आदित्य के घर पहुंच गई।
अब दोनों आमने—सामने बैठे थे। हिमानी उलाहना दे रही थी कि कम से कम फोन तो करते...सिफारिश नहीं करनी थी तो न सही, मैं खुद ही जाकर आजमा लेती अपनी किस्मत।''
पसोपेश में पड़ा आदित्य सोच से उबरा और बोला, ‘‘नहीं, ऐसी बात नहीं थी! मैंने त्रिपाठी जी से बात कर ली थी। तुम्हारे एडमीशन में कोई प्रॉब्लम नहीं आएगी...'' एक लंबी सांस लेकर उसने आगे कहा, ‘‘मैं सोच रहा था, शायद तुम्हारा इरादा बदल जाए, बस, एक उम्मीद—सी थी।'' कहते—कहते उसका स्वर कुछ सील—सा गया। उधर हिमानी के भीतर भी कोई कोना भीग रहा था। दोनों कुछ समय तक खामोश बैठे रहे।
एकाएक आदित्य को मेहमाननवाजी का ख्याल आया। वह स्वयं तो किसी दूतावास की पार्टी में खाकर लौटा था, पर हिमानी जिस हाल में आई है, उससे लगता नहीं कि उसने खाना खाया होगा। उसने कहा, ‘‘चलो, बाहर चलते हैं, तुम्हारे खाने का कुछ किया जाए।''
‘‘तुम खा चुके हो?''
‘‘हां!''
‘‘तो रहने दो! मुझे खास भूख नहीं है।''
‘‘ऐसा कैसे...मैं साथ दे दूंगा...पंडारा रोड चलते हैं।'' हिमानी का मन बाहर जाने का बिलकुल नहीं था। बोली, ‘‘घर में कुछ नहीं है क्या?''
‘‘दूध होगा...और ब्रेड भी! पर उससे क्या, वह कोई खाना तो नहीं हुआ न...''
‘‘बस! मैं कॉफी पिऊंगी...खाना—वाना नहीं।''
कुछ निराश हो गया आदित्य। कंधे उचकाकर बोला, ‘‘एज यू विश! मैं अभी कॉफी बनाकर लाता हूं।'' कहकर वह किचन की ओर बढ़ गया।
‘नहीं—नहीं! रुको मैं बनाती हूं...।'' कह कर हिमानी उसके पीछे—पीछे गई।
‘‘रहने दो! आदत खराब मत करो।'' उसने हिमानी की आंखों में झांककर कहा।
‘‘घबराओ नहीं, मां जल्दी ही बंदोबस्त कर देंगी...''
‘‘इतनी निष्ठुर मत बनो।''
‘‘यूं समझ लो आदित्य, हम नदी के दो किनारे हैं, कभी न मिलने के लिए... मगर हमारे बीच पुल तो रहेगा यह अहसास दिलाने के लिए कि हम परस्पर जुड़े हैं, सार्थक हैं, एक—दूसरे के पूरक भी।''
‘‘रहने दो, यह सब बातें हैं, किताबी बातें। इनसे दिल ज़रूर बहल जाएगा, पर भरेगा नहीं!'' हिमानी फिर कुछ नहीं बोली। दोनों जन कॉफी के मग उठाकर बालकनी में आ गए। आस—पास के कुछ फ्लैटों में बत्तियां अभी भी जल रही थीं। कहीं संगीत बज रहा था‘मन क्यों बहका रे बहका आधी रात को...'
दोनों पास—पास खड़े एक—दूसरे की बेचैनी, ऊहापोह और शिराओं में बढ़ता तनाव शिद्दत से महसूस कर रहे थे। आसमान साफ था, जिसमें चांद की तीन—चौथाई छवि उजागर थी।
जड़ता को तोड़ते हुए हिमानी बोली, ‘‘यहां गर्मी है...हवा भी बंद हो गई है...चलो अंदर चलें...'' आदित्य के उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना वह अंदर की ओर पलट गई। आदित्य बुत की तरह उसके पीछे—पीछे चला आया। अंदर पंखा चल रहा था।
‘‘अब सोना चाहिए, रात बहुत हो गई है...सोचती हूं, सुबह वाली बस से निकल जाऊं। क्या कहते हो?''
वह खामोश बैठा था, चिंतन की मुद्रा में। हिमानी उसके पास आकर बैठ गई और पूछा, ‘‘क्या सोच रहे हो...कुछ बोलो भी।''
‘‘बोलने को कुछ रहा नहीं जैसे...'' वह रुका फिर आगे कहा, ‘‘यदि तुम्हें ठीक लगे तो दो रोज बाद चली जाना। फिर पता नहीं, कब मुलाकात हो!'' हिमानी उसके पास खिसक आई और उसका हाथ अपने हाथ में लेकर सहलाने लगी। आदित्य का हाथ तप रहा था, छूते ही हिमानी के भीतर झनझनाहट भर गई। हिमानी ने उसे बहलाते हुए कहा, ‘‘मैं कुछ रोज यहां रुक गई तो...तुम्हारे पड़ोस वाले क्या सोचेंगे...?''
‘‘हम हमेशा इसी बात को तवज्जो देते हैं कि दूसरे क्या सोचेंगे... हम क्या सोचते हैं, क्या चाहते हैं, इसे कभी अहमियत नहीं देते।'' उसने तल्खी से कहा, फिर थोड़ा सामान्य हुआ और बोला, ‘‘एक मर्द, एक औरत के साथ रह रहा है, यही सोचेंगे।''
‘‘वे पति—पत्नी, मां—बेटा, भाई—बहन को साथ देख सकते हैं, मर्द और औरत को नहीं...समझे! अगर ऐसा ही होता तो हम कब से साथ रहना शुरू कर देते...''
‘‘भाड़ में जाएं सब।'' आदित्य ने कहकर हिमानी को अपनी बाहों में समेट लिया।
हिमानी इस स्थिति के लिए तैयार नहीं थी। बार—बार दुविधा से निकल भागने को तत्पर हिमानी अब भी दुविधा में ही घिरी थी। प्यार से देखना, बतियाना, छू भर लेना, यह सब अच्छा लगता था, किंतु इससे आगे? आज वह फिर ठिठककर दोराहे पर खड़ी हो गई। कभी गर्भधारण के लिए पर—पुरुष की कामना करने वाली हिमानी! सहेली से उसके पति का सहवास चाहने वाली हिमानी! पति की चौखट को लांघकर ऊर्द्धमुखी हो उड़ जाने को आतुर हिमानी! आज अपने ही मन से जन्मे संस्कारों में जकड़ी आदित्य के बाहुपाश में अकुला रही थी। एक शरीर की हरारत दूसरे शरीर में पैवस्त हो रही थी। पंखे की तेज सनसनाहट के साथ बंध टूट जाने को तत्पर थे। एक चाह उसे प्रेरित कर रही थी कि वह अपनी पूर्णता को पा ले। स्त्री होने का विशेषण वह अपने गर्भ में धारण कर ले। अपनी संतति का सुख क्या होता है, महसूस कर ले। जीवन—भर के लांछनों को धो डाले, पर सवाल उठा, क्यों, किसलिए? सुखदेव अब नहीं, जिसे वह पीड़ित करना चाहती थी और वह यदि गर्भधारण के अनुपयुक्त हुई तो! आदित्य को तो बच्चे चाहिए, तब वह मात्र मन बहलाने का साधन रह जाएगी उसके लिए। मां की संदेहास्पद दृष्टि जीवनपर्यंत उसका पीछा करती रहेगी। अपने को संभाल हिमानी। अब और ऐसे जाले मत बुन, जिनमें से निकलने को फिर छटपटाना पड़े। अपनी एकल सत्ता के साथ अब स्वतंत्र होकर उड़ जा, उड़ जा, दूर...बहुत दूर...जहां तू सिर्फ अपने लिए जी सके।'
धीरे—धीरे हिमानी में विलगने की चेतना जागी। वह बुदबुदाने लगी। ‘‘छोड़ो आदित्य प्लीज, नहीं, नहीं! बस रहने दो...मुझे कमजोर मत बनाओ...'' आदित्य तो जैसे पंखे की सरसराहट के साथ सनसनाता हुआ हिमानी के पूरे शरीर पर उड़ रहा था। हिमानी के कानों में उसकी गुनगुनाहट उतर रही थी, ‘‘मत रोको हिमानी प्लीज! हम प्यार करते हैं, एक—दूसरे को चाहते हैं। हमारा यूं मिलना कोई गुनाह नहीं है। हमारे बीच कोई शर्त नहीं है। फिर भी यह उच्छखृलंता नहीं, भटकन नहीं, इसमें स्थिरता है। यहां देना—पाना दोनों है। यह समष्टि का भाव है। यह नैसर्गिक है, कुदरत की नियामत है। यह भी जीवन की सार्थकता है, उसकी पूर्णता है। तुम्हें जीवन में संतुष्टि क्यों नहीं चाहिए...तुम्हें कोई प्यार क्यों न करे...तुम किसी को प्यार क्यों न करो, बताओ! वर्षों से वीतराग रहकर क्या पाया तुमने और अब फिर परोपकार की डगर पर निकल पड़ी हो। मैं तुम्हें जबरन रोकूंगा नहीं, पर चाहता रहूंगा तुम्हें...बस! इस मिलन को यादगार बना लो। क्या पता, फिर मुलाकात हो, न हो...!''
हिमानी मन—मस्तिष्क के भंवर में फंसी डूबती जा रही थी। समय की नदी अपने पूरे वेग से बह रही थी। रात में बिजली की वोल्टेज बढ़ गई थी शायद। पंखा और तेज होकर फर्राहट पैदा कर रहा था।
सुबह हिमानी चली गई। आदित्य उसे आश्रम चौक तक छोड़ आया था। रात वे दोनों जितने उद्विग्न और बदहवास से दिख रहे थे, सुबह उतने ही शालीन। दोनों के चेहरे पर छुपी—सी स्मित और एक अतिरिक्त ओजस्विता विराजमान थी। दोनों एक—दूसरे से बच रहे थे। सामना होने पर बात करते भी थे तो आदित्य की आंखों में शरारत झलक जाती थी और हिमानी की आंखों में दबे पांव लज्जा उतर आती थी। चलने से पहले हिमानी ने आदित्य की मां की दी हुई चेन आदित्य को देते हुए कहा था, ‘‘मां को लौटा देना...उन्हें अच्छा लगेगा...।'' आदित्य कुछ पल पसोपेश में रहा, फिर बोला, ‘‘ऐसा न करो...यह तो भेंट है...इस बहाने उन्हें याद करोगी!''
‘‘नहीं! मां समझेंगी, हिमानी बदचलन तो थी ही, लालची भी थी।''
हिमानी के सपाटपन से आदित्य को चुभन हुई शायद। बोला, ‘‘इतनी कठोरता
तुम्हें शोभा नहीं देती। यह उनका नजरिया है। इस उम्र में बदल नहीं सकते उन्हें...''
‘‘सॉरी! पर आदित्य मैं इसे रख नहीं सकती प्लीज! हां! एक भेंट है तुम्हारी, मेरे पास।'' कहते—कहते स्वर में संकोच का कंपन समा गया, चेहरे पर विद्युत की भांति ललाई दौड़ गई। आदित्य सुखद आश्चर्य में खोया उसे एकटक देख रहा था। सलीके से बंधी साड़ी में उसकी समूची देहयष्टि बहुत मोहक लग रही थी। उसने आंखों के इशारे से ही पूछा, ‘‘क्या? बोलो न!''
‘‘तुम्हारी दी हुई कल की एक रात, जिसे मैं हमेशा अपने पास रखूंगी।'' भावावेश में आकर आदित्य कुछ कह पाता, इसके पहले ही रोडवेज की बस आकर रुकी, और हिमानी उसमें चढ़ गई।
खिड़की से उसकी छवि दिखी, वह अपनी आंखें पोंछ रही थी। आदित्य को लगा, जैसे उसके अंदर भी कुछ टूट कर बिखर गया है।
हिमानी को बड़ी सरलता से ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट में प्रवेश मिल गया। वैसे तो आदित्य ने एक पत्र लिखकर हिमानी को दे ही दिया था। उसके बाद भी उसने फोन पर संपर्क करके हिमानी के पक्ष को मजबूत बना दिया था।
ट्रेनिंग शुरू होने से पहले उसे सप्ताह भर का समय दिया गया कि वह अपने निर्णय पर पुनर्विचार करे। यह वहां का नियम था कि यदि चुनी गई महिला अपना इरादा बदल कर फिर वापस अपने घर या परिजनों में लौटना चाहे तो जा सकती है। ट्रेनिंग शुरू होने के बाद वह ऐसा नहीं कर सकेगी। यह बात शायद आदित्य को भी पता थी, तभी तो उसने बस छूटने से पहले हिमानी को कहा था, ‘‘अभी भी तुम्हें लौटने का एक मौका मिलेगा...अगर फैसला बदलो तो...!'' आगे कुछ नहीं कहा। शायद हिमानी चढ़ने की तत्परता में सुन नहीं सकी।
उसने मुस्कराकर हाथ हिला दिया था।
हिमानी के लिए पहले दो दिन बेचैनी भरे रहे। उसके बाद वह सहज होती चली गई। पुनर्विचार की अवधि समाप्त हो गई। उसके बाद ट्रेनिंग शुरू कर दी गई। पूरे बैच में से एक महिला वापस चली गई। उसका एक बच्चा था, जिसे अलगाव के बाद पति ने अपने पास रख लिया था। लाख मन को समझाने के बाद भी स्वयं को दृढ़ नहीं बना पाई कि अपने बच्चे को देखे बगैर हमेशा के लिए दूसरे बच्चों को कैसे प्यार दे पाएगी। बच्चे के मोह की खातिर किनारा छोड़कर वह पुनः मंझधार में उतर गई, किंतु हिमानी दिन पर दिन और दृढ़ होती चली गई। चंद महीनों में उसका नया संस्करण तैयार हो गया। नयी सज्जा, नयी धज, नये विश्वास से पगी अपनी नयी छवि से वह स्वयं आश्चर्यचकित थी। उसने कभी बैठकर अतीत को याद करना नहीं चाहा। संदर्भवश कुछ पल—भर काैंध भी गया तो दूसरे ही पल बुझ गया। इसका एक कारण था, ट्रेनिंग के लिए दूर—दूर से आई महिला उम्मीदवारों से परिचय, उनसे अंतरंगता, एक—दूसरे के साथ राग—विराग का साझा करना। तमाम बोली—बानी, रहन—सहन, खान—पान की विविधताओं के बावजूद सबके बीच एक समरसता थी, विषाद की! चूंकि दुःख की कोई भाषा नहीं होती। पीर जिस तन को छूती है, एक—सी लगती है। अपने को दुनिया का सबसे अधिक दुःखी प्राणी मान कर एकांत के अंधेरे में पड़े रहने या प्रतिकार की अग्नि में जलने या जला देने से कोई लाभ नहीं, बाहर आकर दूसरों के दुःखों का भी जायजा लें तो अपना दुःख तो बहुत कम लगेगा। व्यष्टि से समष्टि की ओर जाएं तो बल मिलता है, विश्वास भी जागता है। यह बात हिमानी को गहरे पैठ गई।
दूसरा कारण था उस शिक्षण संस्थान का परिवेश, खूबसूरत परिसर। वहां पांच फैमिली हाउस तथा चार यूथ हाउस थे। इसके अतिरिक्त प्रशासनिक भवन, प्रशिक्षणार्थियों के रहने के लिए होस्टल जैसी व्यवस्था थी। परिसर के भीतर चारों ओर घास के मैदान में फूलों की क्यारियां थीं। बाउण्ड्री वाल के साथ—साथ, शीशम, सेमल, गुलमोहर, पलाश, जामुन, नीम के बड़े—बड़े दरख्त थे। वैसे भी संस्थान मुख्य शहर से कुछ हटकर स्थित था जिसके दूसरी ओर अरावली की छोटी—छोटी पहाड़ियां थीं। बारिश के दिनों में सब ओर हरा—हरा ही दिखता था तो उसकी स्वच्छता और सुदंरता में चार—चांद लग जाते।
प्रशिक्षण के दौरान उन्हें फैमिली हाउस के सैद्धांतिक तथा व्यावहारिक पक्षों को विस्तार से समझाया गया। बच्चों के जन्मज़ात गुणों के विकास के बारे में जानकारी देने के साथ ही उनके मनोविज्ञान के बारे में बताया गया। बच्चों की परवरिश के समय आने वाली मुश्किलों तथा उनसे बचने के उपाय भी सुझाए गए। इसके साथ ही परिवार को व्यवस्थित रूप से चलाने के लिए घर की साज—संभाल, बजट, खरीदारी, बैंकिंग, बचत आदि के विषय में भी विस्तार से जानकारी दी गई। हालांकि यह चौबीस वर्ष से चालीस वर्ष की महिलाओं के लिए नयी बातें नहीं थीं, जो पहले ही अपने—अपने परिवारों के अनुभव रखती थीं। चूंकि ये सभी अलग—अलग क्षेत्रों से थीं। इनकी बोलचाल, वेशभूषा, आचार—व्यवहार सभी भिन्न थे, इसलिए संस्था की गरिमा तथा बच्चों के पालन—पोषण में मानक व्यावहारिकता के लिहाज से यह जरूरी था। हिमानी को यह सहज, सुगम और रोचक भी लगा। उसकी शैक्षिक योग्यता, स्कूल में पढ़ाने का अनुभव अब उसके काम आने वाला था। अपने परिवार में जिसकी कोई पूछ या व्यावहारिकता नहीं थी, यहां उसी से उसे अतिरिक्त सम्मान की दृष्टि से देखा जा रहा था। उसकी साख—प्रतिष्ठा बढ़ रही थी और वह उसमें रमती जा रही थी।
समय के पैर दिखते हैं, न पंख। वह उड़ता है या चलता है, पता नहीं लगता, परंतु वह गतिमान रहता है। उसकी गति मापना संभव नहीं है। दो वर्ष कब बीत गए, हिमानी को गुमान ही नहीं हुआ। देश में सरकार बदल गई। पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार ने बागडोर संभाली थी। उधर पूरी दुनिया में नई सदी के आरम्भ को लेकर जबरदस्त गहमा—गहमी थी। सदी के पहले सूर्योदय को किस स्थान, किस कोण से लोग देखें, इसकी व्यवस्था—व्यवसाय में अनेक कम्पनियां व्यस्त थीं। इस दौरान एक बार आदित्य से मुलाकात भी हुई। विदेश से एक डेलीगेशन आया था। तभी संस्थान में एक सेमिनार हुआ, जिसमें ‘गैर सरकारी संगठनों' तथा अन्य सामाजिक सरोकारों से जुड़े विशिष्ट लोग आमंत्रित थे। आदित्य भी आया था। आयोजन के बाद वे मिले थे। हिमानी कितने आत्मविश्वास और उल्लास से उमग कर मिली थी। अधिकतर लोग चले गए थे। आदित्य को कोई जल्दी नहीं थी। यह उसका कार्यक्षेत्र था और वहां संस्था में उसका अच्छा परिचय था। उसने हिमानी को बताया था कि नरेंद्र को सजा हो गई है और आर.एन. सेठ राज्यमंत्री बन गया है।'' उसने आगे कहा, ‘महादेव भवन के प्लाट पर बिल्डर की नई बिल्िंडग खड़ी हो गई है। हरदयाल सिंह ने सुखदेव यानी तुम्हारे फ्लैट पर भी कब्जा ले लिया है।' हिमानी सोच रही थीउसका तो वहां, कभी कुछ था ही नहीं, फिर कैसा
अधिकार! और अब जो कुछ उसका है, उस पर कोई कब्जा नहीं कर सकता। तभी उसे कार्यशाला के दौरान डेलीगेशन के एक सदस्य द्वारा पूछा सवाल याद आ गया। उसने पूछा था, ‘‘आपका अपना कुछ नहीं है यहां! जैसे अपना घर, बच्चे, पति, रिश्ते वगैरह! यह एक नौकरी है, ड्यूटी है। जिसके लिए आपको तनख्वाह और कुछ सुविधाएं मिलेंगी। फिर क्यों इतनी बड़ी जिम्मेदारी...रात—दिन यहीं रह कर?''
जवाब हिमानी ने ही दिया था। ‘‘पहली बात यह है सर! कि यह साधारण नौकरी जैसी नौकरी नहीं है, यह तो ‘एडोप्टेशन' जैसा है। किसी को चाहने की भावना सबसे ऊपर है। उस चाह से ही कोई अपना बन जाता है, रिश्ता जुड़ जाता है उससे। यहां लेने—देने की केलकुलेशन नहीं है। अगर यहां आम नौकरी जैसा सिर्फ घटा—जोड़ होता तो इस नौकरी को पाने के लिए आवेदकों की भीड़ लगी रहती। यहां अपनों को पा लेने की तलाश पूरी होती है, जो ‘जेनेटिक' रिश्तों से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं। जो हमें पूर्णता देते हैं
‘फुलफिलनेस।''
उसे भावमग्न देखकर आदित्य ने कहा था, ‘‘अरे कहां खो गर्इं तुम! अब तो इस आदत से बाज आओ...'' वह हंसी थी।
‘‘छूटती नहीं है जालिम मुंह से लगी हुई...।'' नाटकीय अंदाज में कहा था हिमानी ने, ‘‘आदतें भी ऐसी ही होती हैं।''
‘‘एक बात है, यहां लोग तुम्हारी बहुत तारीफ करते हैं।''
‘‘बनाओ मत! क्या कहते हैं?''
‘‘यही कि संस्था को तुम्हारी जैसी पढ़ी—लिखी, लगनशील, संवेदनशील सदस्य मिली है।''
‘‘और कुछ...?''
‘‘सच कह रहा हूं...त्रिपाठी जी तक तुम्हारी रिपोर्ट है। उन्होंने भी कहा कि आदित्य तुमने एक बहुत अच्छे कंडीडेट के लिए एप्रोच किया।''
‘‘मुझे भी लगता है जैसे मैं अपने लक्ष्य तक पहुंच गई हूं।'' शून्य में देखते हुए हिमानी ने कहा। फिर तुरंत मुस्कराकर आगे कहा, ‘‘इसका श्रेय तो तुम्हें ही जाता है गुरुवर! बलिहारी गुरु आपने, जिन गोविंद दियो मिलाय।'' दोनों हंसे थे। जाते समय हिमानी ने कहा था, ‘‘मेरा अतीत पर कोई अधिकार नहीं है आदित्य! प्लीज! मुझे उन बंधनों से मुक्त रहने दो, याद न दिलाया करो। मेरा आज और आने वाला कल यहां है, मेरे सामने है। कर्त्तव्य भी यहीं है, अधिकार भी यहीं है।''
कुछ चुप रहकर आदित्य बोला था, ‘‘पर कुछ तो याद करने जैसा होगाकुछ दिन, कुछ रातें, चंद घंटे या कुछ पल!'' कहकर हिमानी की आंखों में झांका था आदित्य ने। वह मुस्कराई थी।
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