Phir bhi Shesh - 28 - Last part in Hindi Love Stories by Raj Kamal books and stories PDF | फिर भी शेष - 28 - Last part

फिर भी शेष - 28 - Last part

फिर भी शेष

राज कमल

(28)

प्रशिक्षण के बाद हिमानी को एक परिवार की जिम्मेदारी निभाने के लिए जयपुर के बालग्राम में भेज दिया गया। वैसे एक परिवार में दस बच्चे होते हैं किंतु हिमानी के पास अभी आठ बच्चे थे। तीन लड़के, पांच लड़कियां। तीन कमरों का फ्लैट—हाउस नंबर पांच था। बच्चे दूर—दराज और अलग—अलग राज्यों से थे। चूंकि बच्चे अभी छोटे थे। इसलिए एक अपरिचित महिला को मां के रूप में स्वीकारने में उन्हें अधिक कठिनाई नहीं हुई। यह हिमानी के लिए भी अच्छा था। इस दौरान उसने वहां पुरानी मांओं से मिलकर अनुभव जुटाने की कोशिश की ताकि बच्चों के साथ शीघ्र—अतिशीघ्र तादात्म्य बिठाने में सुविधा हो जाए। हाउस नंबर बारह में मदर नलिनी थी। पिछले कुछ वर्षों से वह यहां है। अब तक चार लड़कियों और दो लड़कों की शादी कर चुकी है। उसने बताया ‘बहन जी ऐसा है कि सोते—जागते और उठते—बैठते हमेशा आपका ही चेहरा देखते—देखते बच्चों को आपमें ही मां दिखने लगती है। हां! शुरू—शुरू में बहुत मेहनत करनी पड़ती है, लेकिन बाद में सब ठीक हो जाता है। सारा समय बच्चों के साथ कैसे बीत जाता है, पता ही नहीं चलता।''

हिमानी ने गौर किया कि उनके चेहरे पर परम आनंद का भाव है। यह संतोष देखकर हिमानी को भी बहुत अच्छा लगा और उसका हौसला भी बढ़ा। मदर ने बताया कि वे गर्मी की छुटि्‌टयों में सभी बच्चों को साथ लेकर अपने गांव चली जाती हैं। हिमानी ने आश्चर्य से पूछ लिया, ‘‘वहां लोगों को कैसा लगता है...इतने बच्चे...किसके, कैसे? पूछते होंगे।''

‘‘पूछते हैं, मैं बोलती हूं, सब मेरे हैं...बाप मर गया।'' कहकर वह जोर से हंसी। आगे कहा, ‘‘यह शुरू की बात है। सब जान गए हैं, पर मेरे माता—पिता इन बच्चों को उतना ही मानते हैं, जितना मेरी दूसरी बहनों के बच्चों को...''

हिमानी पूछना चाहती थी कि वह यहां क्यों और कैसे आ गई, पर पूछ न सकी। किसी के दुःख को उकेरने से क्या लाभ, परंतु थोड़ी देर में नलिनी ने स्वयं ही बता दिया कि तीन बहनों में बह सबसे छोटी थी। मां—बाप गरीब थे। जैसे—तैसे शादी कर दी। पति मेरे एवज़ में किसी से पैसे लेकर शहर भाग गया। उस आदमी ने मेरे साथ जोर—जबरदस्ती की तो एक संस्था वालों ने मुझे बचाया। कुछ समय उस संस्था में रही। बाद में उन्होंने ही मदर ट्रेनिंग के लिए सेंटर भेज दिया था।

हिमानी एक दूसरी सीनियर मदर से मिली, जो दक्षिण भारतीय थी, जिसे यहां बीस वर्ष से भी अधिक समय हो गया था। उससे कुछ ज्यादा बात करने की हिम्मत हिमानी जुटा नहीं सकी। मणिमाला ने स्वयं ही बताया कि इस बालग्राम की जानकारी उसे पहले से ही थी। उसके परिवार का कोई सहारा नहीं था। इसलिए यहां चली आई।' उसने बड़े गर्व से बताया कि उसने बहुत सारे बच्चों को पाल—पोस कर अपने पैरों पर खड़ा कर दिया है...कभी नहीं लगा कि बच्चे मेरे नहीं हैं। बड़े होकर बच्चे जब दूर चले जाते हैं तब दुःख तो जरूर होता है, लेकिन खुशी इस बात की भी होती है कि वे सब समाज में सिर उठाकर चलने के काबिल हो गए हैं।'

हिमानी नए जोश के साथ अपनी नई जिम्मेदारियों को निभाने में जुट गई। बच्चे अलग—अलग परिवेश से थे। उनके अपने—अपने दर्द भरे अनुभव थे। अबोध—बच्चों के साथ तो मानसिक उलझाव उतना नहीं था, किंतु चार—पांच वर्ष से दस—बारह वर्ष के बच्चों के साथ तालमेल बिठाना उतना आसान नहीं था। बच्चे तो बच्चे थे ही उनके अपने दुःख, कुण्ठाएं, अपनी जिज्ञासाएं थीं। उनके मुंह से एक अजनबी महिला के लिए अचानक मां का संबोधन मुखर होना बहुत कठिन तो था ही, उनके भीतर प्रश्न उकेरने वाला भी था। आखिर एक दिन अचानक एक अपरिचित महिला कैसे उनकी मां हो गई, पर उधर हिमानी भी शुरुआती समय में उन बच्चों से मां का संबोधन सुनकर अचकचा जाती थी। बड़ा अटपटा लगता था, जब एक बच्चा भरसक प्रयत्न के साथ उसे मां कहकर बुलाता और वह उधर ध्यान न दे पाती, क्योंकि उसे लगता जैसे उसे नहीं किसी और को पुकारा है। वह तो कभी किसी की मां बनी ही नहीं। रितु और नन्नू ने कभी उसे मां नहीं कहा, मौसी ही कहते रहे। यह पुराना घाव था, जो अभी भरा नहीं था। आदित्य से तो उसने कह दिया था कि अब अतीत के सुख—दुःख उसके नहीं रहे, पर क्या ऐसा हुआ? हल्की—सी पुरवाई से उभर आया न दर्द।' सोचने लगी हिमानी, ‘तो क्या करे वह। कैसे बांधे मन में गांठ ताकि कल का विष आज पर न चढ़ आवे। इन बच्चों के साथ अन्याय न हो। उसे स्वीकार करना ही होगा कि यह उसी के बच्चे हैं, अपने बच्चे। उनकी मां की टेर पर उसे हुमक कर उन्हें गले लगाना ही पड़ेगा। पुचकारना पड़ेगा। काशी बाबा ने कहा तो था तेरे प्रारब्ध में कई बच्चे हैं...बच्चों में रहेगी तू। यही हैं मेरे बच्चे, अुतल, विशााल, पिंकी, हरीश, सुकन्या, बिंदिया, पद्‌मा तथा कावेरी! इन्हीं की परवरिश करनी है उसे। इन्हें इस लायक बनाना है कि समाज में सिर उठाकर चल सकें। पहले शिक्षा—कैरियर, फिर इनकी शादियां! वह सोचकर ही रोमांच से भर गई। रितु—नरेंद्र को नहीं बना सकी काबिल। नहीं कर सकी उनकी शादी। यह अधिकार या कहें कि अवसर नहीं मिला उसे। शायद यही हसरतें पूरी होने के लिए जीवन का नया अध्याय शुरू हुआ है। कुछ वर्षों के बाद वह भी नानी—दादी बन जाएगी। ग्यारह वर्ष की कावेरी चुपके से किचन में आकर उसके पीछे खड़ी हो जाती है। सबसे छोटा अतुल दिन भर उसके साथ खेलता है। गेंद के साथ उसे इधर—उधर दौड़ाता है। वह थक कर कभी—कभी बैठ जाती है तो वह ताली बजाकर हंसता है, ‘मम्मी हाल गई! मम्मी हाल गई!' वह भी हंसकर उसे बाहों में भरकर उठा लेती है। तब उसे एकाएक नन्नू याद आ जाता है। मां के मरने के बाद लगभग इतना ही बड़ा था वह। पूछता था, ‘मौसी! मम्मी कहां गई है?' हिमानी कहती थी, ‘भगवान के पास।' तब बड़े भोलपेन से कहता था, ‘तो चलो न मम्मी को लेने।' रितु थोड़ी समझदार बनकर उसे कह देती, ‘तू तो बुद्धू है। मम्मी अपने आप आ जाएंगी...भगवान से मिल कर...' फिर हिमानी की ओर समर्थन की चाह में देखकर कहती, ‘हैं न मौसी!'

वह दोनों को अपने सीने में भींच लेती थी।

धीरे—धीरे उनके बीच रिश्ते की नींव मजबूत हो रही थी। दिन पर दिन सहजता बढ़ रही थी। प्यार बढ़ रहा था और बढ़ रहा था जिम्मेदारी का एहसास। स्कूल से घर आने पर बच्चों को हिमानी समझाती कि सामान को घर में कैसे व्यवस्थित रखना है। नाश्ता करके तरोताजा होकर होमवर्क करना है। कावेरी और विशाल उसके काम में हाथ भी बटाने लगे हैं। चौदह साल के होने के बाद तो वे हॉस्टल चले जाएंगे, तब छुटि्‌टयों में अपनी मां और बहन—भाइयों से मिलने आएंगे, यही वहां का नियम है। वैसे तो पढ़ाई पूरी करने के बाद कहीं नौकरी भी करेंगे, तो भी अपने परिवार के सदस्य रहेंगे। जब तक उनकी शादी नहीं हो जाती, तब तक मां का उन पर अधिकार रहता है। मां के निर्णय की अवहेलना बच्चे नहीं करते हैं। हिमानी को ज्ञात हुआ कि कई बच्चे शादी के बाद विदेश में बस गए, तो भी वे अपनी ‘मदर' को नहीं भूले। विदेश में अपने पास बुलाने के लिए उन्होंने टिकट भी भेजे। रिश्तों की इस नयी संरचना से वह अभिभूत हो उठी थी। जब वह सोचती है कि इतने बच्चों के नाम के साथ आजीवन हिमानी का सरनेम लिखा जाएगा तो वह अव्यक्त भावना से भर उठती है। मन कैसा—कैसा तो हो जाता है, क्या कहे, किससे कहे। वह गौरवान्वित—सी उस निर्मल आनंद की कल्पना मात्र से रो पड़ती है।

उस दिन सुकन्या का जन्मदिन था। हिमानी ने अतिरिक्त रूप से घर की साज—संवार की थी। विशाल, कावेरी, पद्‌मा तथा हरीश ने उसके साथ मिलकर गुब्बारे तथा रंग—बिरंगे काग़ज़ की झालरें लगवाई थीं। बाज़ार से केक ऑर्डर किया गया था, कुछ मिठाई—नमकीन तथा चाकलेट्‌स भी स्वयं हिमानी लेकर आई थी। एक सुंदर फ्राक उसके लिए खरीदा था। शाम तक बच्चों ने खूब धमा—चौकड़ी मचाई। खूब हल्ला—गुल्ला करते रहे। सभी का जन्मदिन इसी तरह मनाया जाता है।

उस दिन घर खुशियों से भर जाता है। खूब हल्ला—गुल्ला, मौज—मस्ती, गाना—बजाना करते हैं बच्चे। सुकन्या का स्वर बहुत अच्छा है, बहुत अच्छा गाती है। हरीश को बजाने का शौक है। कोई भी बर्तन—डिब्बा लेकर बजाने लगता है। हिमानी उन्हें प्रोत्साहन देती है। सुकन्या ने अपने बर्थडे पर भी गाना गाया, ‘‘मन की शक्ति हमें देना दाता, मन का विश्वास कमजोर हो ना...' सभी भाई—बहनों ने उसे उपहार दिए— किसी ने पेंसिल, किसी ने चाकलेट, कावेरी ने रूमाल दिया, हरीश ने अपने हाथ से बना ग्रीटिंग कार्ड दिया। खाना खाते समय बच्चों ने हिमानी से पूछा, ‘‘मम्मी! आपका ‘बर्थडे' कब आएगा?'' हिमानी ने हमेशा, ‘भूल गई हूं बेटा! याद आएगा तो बताऊंगी' कहकर टाल जाती थी। आज भी बच्चे ज़िद करने लगे कि आपका बर्थडे भी मनाएंगे, खूब बड़ा केक काटेंगे।

पिंकी ने पूछा, ‘‘कितनी कैंडिल लगाएंगे भैया?''

जवाब में सबसे छोटा अपने हाथ फैलाकर बोला, ‘‘ढेर सारी।'' सब हंस पड़े।

अंदर ही अंदर रो पड़ी थी हिमानी। रितु और नन्नू ने उससे कभी झूठे—से भी नहीं पूछा था कि मौसी तुम्हारा ‘बर्थडे' कब है या कि हम मनाएंगे तुम्हारा ‘बर्थडे'... कभी ऐसे क्षण नहीं आए। उनकी जरूरतें पूरी करने में ही वह चक्करघिन्नी बनी रही। भूल ही गई कि वह भी कभी पैदा हुई थी, उसका जन्मदिन भी मम्मी—पापा कभी मनाते थे। दूसरों के लिए या परिजनों के लिए सोचना—करना, एक आदर्श भावना है, तो क्या अपने लिए सोच लेना या करना, स्वार्थी होना है? यह कोई दूषित भावना है? हिमानी के पूछने पर काशी बाबा ने कहा था, ‘‘नहीं बेटी, बिलकुल नहीं! हां! दोनों में संगत बिठा लेनी चाहिए, दोनों जरूरी हैं।''

अपने परिवार का दायित्व संभालने के कुछ दिनों बाद ही उसका जन्मदिन आकर निकल गया था। साल अभी हुआ नहीं था। उसने बच्चों को समझाया कि बच्चों का जन्मदिन मनाना अच्छा लगता है। मैं तो बहुत बड़ी हो गई हूं...टोपी पहनकर केक काटना कैसा लगेगा, बोलो?''

‘‘बहुत अच्छा लगेगा...'' सबने खुशी से आंखें चमकाकर कहा।

‘‘आपको केक—चाकलेट अच्छा नहीं लगता क्या?'' सुकन्या ने पूछा। तब हरीश बोल पड़ा, ‘‘और गिफ्ट भी तो मिलेंगे आपको।'' हिमानी ने जैसे बच्चा बनते हुए खुश होकर कहा, ‘‘अच्छा!'' फिर बुरा—सा मुंह बनाकर बोली, ‘‘पर मुझे कौन गिफ्ट देगा।'' इस प्रश्न पर सभी बच्चे एक—दूसरे का मुंह देखने लगे। हिमानी भी भोली बनकर उनकी भोली सूरतें देखने लगी। तब कावेरी, विशाल और बिंदिया ने एक साथ कहा, ‘‘हम देंगे मम्मी को गिफ्ट!'' बाकी बच्चों ने ‘हुर्रे' में हाथ उठाए, पर तभी पिंकी ने निराश होकर कहा, ‘‘मेरे पास तो पैसे भी नहीं हैं।'' इस पर अतुल भी झट से बोला, ‘‘और मेले पास भी।''

‘‘कोई बात नहीं, तुम मुझे चुम्मी दे देना।'' कहने के साथ हिमानी ने अतुल—पिंकी को चूम लिया।

हिमानी ने बच्चों को याद दिलाया कि अगले सप्ताह रक्षाबंधन है उसकी तैयारी करनी है। तीनों भाई सभी बहनों को उपहार देंगे। अपना पॉकेट—मनी संभालकर खर्च करना। उसके बाद सभी बच्चे सोने चले गए। मन से भरी—भरी हिमानी भी अपने बिस्तर पर जाकर लेट गई और देर तक जागती रही। रह—रहकर बच्चों के चेहरे अंधेरे में भी चमकते रहे। उनकी बाल—सुलभ चेष्टाओं को वह भुला नहीं पाती। कैसे बच्चों ने उसे प्यार के रेशों में जकड़ लिया है। वह बिंधती जा रही है। एक अद्‌भुत संसार—सा लगता है उसे। जैसे वह किसी दूसरे लोक में आ गई है। यह उसका सौभाग्य ही है कि उसके परिवार के सभी बच्चे इतने प्यारे और शांत हैं। कितने कम समय में सब उसके हो गए हैं और वह सबकी।

हिमानी ने तो मान लिया था कि उसके जीवन की डोंगी किनारे आ लगी है। भंवर और मझधारों से दूर अब वह किनारे—किनारे बहती हुई महासिंधु में विलीन हो जाएगी। वह अब न भूत को दोहराएगी और न भविष्य के लिए चिंतातुर रहेगी, परंतु सोचा हुआ होता कहां है! जीवन में अनेक बार स्वयं को संतुष्ट मान लेने की उसने चेष्टा की है। जब ब्याह कर आई, तब सोचा था। बच्चे बड़े हो गए, तब सोचा था। आदित्य से मिली, तब सोचा था, और सुखदेव नहीं रहा, तब भी। अब इन बच्चों से जुड़कर भी ऐसा ही लग रहा है, लेकिन बार—बार अनहोनी ने उसे असहज बनाया है।

आज इतने समय बाद अचानक फिर आदित्य ने उसके मन की झील में कंकड़ उछाल दिया। उसने फोन कर हिमानी को बताया कि उसकी शादी हो गई है। रोमा क्रिश्चियन है। अपनी मां के साथ बंगलौर आई थी ‘यूएस' से। उन दिनों मैं भी वहां था मां के पास। एक कॉमन फेमिली फ्रेंड के माध्यम से मुलाकात हुई और हम दोनों एक—दूसरे को पसंद करने लगे। वह ‘लेप्रोसी केयर आर्गेनाइजेशन' से जुड़ी हुई है। बहुत केयरिंग है तुम्हारी तरह...वगैरह—वगैरह।

यह खबर सुनकर पता नहीं क्यों वह परेशान है। बार—बार अपने को समझाती है किंतु दिल है कि मानता ही नहीं। एक आह! निकल ही जाती है : ‘वक्त करता जो वफा आप हमारे होते...' वह समझती है, यह सरासर बचपना है। यह पछतावा जायज नहीं है। निर्णय उसका ही था, बिना किसी दबाव के। वह नहीं चाहती थी कि आदित्य को पूर्णरूपेण पा लेने की चाह कहीं भविष्य में उन्हें मित्र भी न रहने दे! आज कम से कम वह उसका अच्छा मित्र तो है, यही क्या कम है। चौबीस घंटे की दुरूह निकटता से प्यार भरी दूरी कहीं अधिक सुखद होती है। फिर भी, एक उदासी उसके भीतर उतर आई है। अबूझ, अनचाही रिक्तता उसे पुनः तड़पाने लगी है। इस असहजता से बचने के लिए वह बच्चों पर ज्यादा आत्मीयता दिखा रही है, उन्हें दुलार रही है। कावेरी ने उसे टोका भी ‘मम्मी, आज आपने मुझे दो बार चाकलेट दे दी।' उसने पद्‌मा की चोटी गूंथकर फिर खोल दी। अतुल और पिंकी को तो दो बार नहलाकर कपड़े बदल दिए। कावेरी और हरीश तो हंसे भी कि आज मम्मी को हो क्या गया है। उसने झेंप मिटाने के लिहाज से थोड़ा डपटकर कहा, ‘‘मम्मी को कुछ नहीं हुआ, जाओ अपना—अपना होमवर्क करो।''

सूचनाएं मिलती हैं तो प्रभावित करती ही हैं। झील में कंकड़ गिरते हैं तो हिलोरें उठती ही हैं। आदित्य की शादी की खबर से वह विचलित होकर कुछ संभली ही थी कि एक दिन सूचना मिली कि उनके परिवार में एक नया सदस्य आने वाला है। यह भी एक विलक्षण संयोग था कि उस दिन उसका जन्मदिन था। जीवन के इस पड़ाव में उसे फिर से अपना जन्मदिन याद करना पड़ेगा या उसे याद करके दिल ‘हुम—हुम' करेगा या बचपन में बहन—भाइयों, मां—पापा के साथ मनाए बर्थडे याद आ जाएंगे, सोचा न था। फिर भी हिमानी संकोच कर गई, बच्चों को बताया नहीं उसने, किंतु आज बच्चों के बीच भी कुछ ‘गुप—चुप' पक रहा था। वे आपस में फुसफुसाकर बातचीत कर रहे थे। हुआ यह कि कावेरी और विशाल ने ऑफिस से अपनी मां की ‘डेट ऑफ बर्थ' मालूम कर ली थी। अब बच्चों की पूरी कोशिश थी कि मम्मी को ‘सरप्राइज' दिया जाए और वे इसकी तैयारी में जुटे हुए थे। पिंकी और अतुल कहीं भांडा न फोड़ दें, इसलिए उन्हें चाकलेट देकर उनका मुंह बंद करा दिया गया था। हिमानी भी अनजान बनी हुई घर के काम निपटा रही थी। उसने कपड़े धोए थे और कावेरी—विशाल ने उनको धूप में फैलाकर डाल दिया था।

निश्चित तौर पर फोन जन्मदिन की बधाई का नहीं था। आदित्य को भला कहां मालूम था हिमानी का ‘बर्थडे'। फिर फोन पर आदित्य ने ऐसी क्या सूचना दी कि हिमानी सुनते—सुनते जड़ होती चली गई और वहीं फर्श पर बैठ गई। वह सोच रही थी, अभी और कितने इम्तहान बाकी हैं। बार—बार वह हालात से हताहत हुई है और फिर—फिर जीवन की विडंबनाओं से लड़ने को उठ खड़ी हुई है। जीने और जीतने की अदम्य इच्छा ने उसे सशक्त और कठोर बनाया है। ईश्वर उस पर बहुत मेहरबान है। उसे हमेशा याद रखता है या फिर बहुत कठोर—निर्दयी है, जो उसे ऐसी विकट स्थितियों में धकेलकर मुस्कराता है कि ‘हिमानी हिम्मत है तो निकलो पार...'

आदित्य ने फोन पर पहले तो धैर्य रखने को कहा। फिर आगे बताया कि जो बच्ची तुम्हारे परिवार में आने वाली है, वह अभी डॉक्टरों की देख—रेख में है। एक साल की बच्ची दो दिन तक भूखी—प्यासी रोती रही अपनी मां की लाश के पास। बच्ची के रोने की आवाज से पड़ोसियों ने पुलिस को सूचना दी। उसकी मां एक मॉडल थी। फिल्मों में छोटे—मोटे रोल उसने किए थे। काम न मिलने का फ्रस्टे्रशन और अपने दोस्त की रुखाई से तंग आकर उसने शराब के साथ नींद की ढेर सारी गोलियां खा ली थीं। पुलिस रेकॉर्ड से मैंने उस केस को देखा है। वह कोई और नहीं, तुम्हारी रितु थी। उसने घर छोड़ने के बाद ही अपना नाम बदल लिया था जैसा कि आप जानती ही हैं। मैं ही जानता हूं कि इस बच्ची पर तुम्हारा हक है, लेकिन अहम सवाल यह है कि तुम क्या चाहती हो? तुम्हारे सामने फिर दोराहा खुल गया है। यदि इस बच्ची को यहां आकर ‘क्लेम' करो तो हो सकता है, तुम्हें अपना परिवार छोड़ना पड़े। दूसरा विकल्प यह है कि वह तुम्हारे पास तो रहेगी, किंतु इस रिश्ते का रहस्य तुम्हें अपने तक ही सीमित रखना पड़ेगा। एक सवाल यह भी है कि क्या तुम स्वयं को भेद—भाव से बचा पाओगी? यदि नहीं बचा सकीं तो यह परिवार के दूसरे बच्चों के साथ अन्याय होगा। मुझे खुद समझ नहीं आ रहा कि तुम्हें क्या सलाह दूं। स्वस्थ होने पर दो—तीन दिन में उसे अस्पताल से लेकर संस्था को सौंप दिया जाएगा। उसे तुम्हारे हाउस में ही भेजा जाएगा, ऐसा निर्णय हो चुका है। मैं समझता हूं, यह उस बच्ची और तुम्हारे दोनों के हक में है। अब तुम भी नहीं चाहोगी कि वह किसी दूसरे हाउस में रहे। नहीं जानता हिमानी, यह सूचना तुम्हें देकर मैंने अच्छा किया या बुरा। यदि नहीं बताता तो यह बोझ मेरी आत्मा पर बना रहता हमेशा। अगले महीने हम लोग ‘यूएस' चले जाएंगे। कह नहीं सकता, फिर कब मुलाकात होगी...'

हिमानी की ऐसी हालत देखकर बच्चे आस—पास घिर आए। कावेरी पंखा झलने लगी। हरीश दौड़ कर पानी ले आया। ‘क्या हुआ मम्मी?' सभी के चेहरे पर यही सवाल था। कुछ पल में ही हिमानी ने अपने आपको संभाल लिया। सकुचा भी गई कि बच्चे परेशान हो जाएंगे। उसने बड़ी सफाई से अपने मनोभावों को छिपाया और वह अपने कमरे में चली गई।

शाम घिर आई थी। हिमानी कुछ देर के लिए सो गई थी। उठने ही वाली थी कि अचानक सभी बच्चे हाथों में गुलाब के फूल लिये कमरे में घुसे और ‘हैप्पी बर्थडे टु मम्मी!' के उद्‌घोष के साथ फूल हिमानी के आगे बढ़ा दिए। हरीश ने अपना बनाया ग्रीटिंग भी दिया। सुखद आश्चर्य से भर गई हिमानी। उसने बनावटी गुस्सा दिखाते हुए पूछा, ‘‘तुम्हें, किसने बताया मेरा बर्थडे?'' एक क्षण को सन्नाटा छा गया, पर तभी अतुल, पिंकी ने बताया कि कावेरी दीदी और विशाल भैया ने ऑफिस से मालूम किया था।

हिमानी ने कावेरी और विशाल की ओर देखा। वे कुछ सहम से गए। बोले, ‘‘सॉरी मम्मी! आपको बुरा लगा क्या?'' हिमानी ने फिर बनावटी गुस्सा दिखाया, ‘‘हां! बहुत बुरा लगा... तुम सबको सजा मिलेगी।''

बच्चे एक—दूसरे का मुंह देखने लगे, ‘‘आज सबको चाकलेट—आइसक्रीम खानी पड़ेगी।' कहकर हिमानी हंस पड़ी और उसके साथ बच्चे भी खिलखिला उठे। सबको खिला—पिलाकर जब हिमानी सोई तो नींद उसकी आंखों से रूठी हुई थी।

वह रात बहुत भारी थी, हिमानी के लिए। वैसे तो अनगिनत ऐसी रातें उसने गुजारी थीं, किंतु आज अजीब कश—म—कश थी उसके लिए। बार—बार रितु का अक्स सामने आकर उससे बतियाने लगता था, ‘वह तुम्हारी अपनी नातिन है मौसी...तुम्हारा न सही, तुम्हारी बहन, तुम्हारे पति की वंशावली है वह। मेरे किए का उससे बदला मत लेना मौसी। अपनों के होते हुए क्या वह अनाथ बनकर रहेगी? उसे पता चलेगा कि तुम उसकी नानी हो तो देखना, कितना खुश होगी मेरी लाडली।' तब हिमानी खुद बड़बड़ाने लगती, ‘चुप रह नालायक! इतनी ही लाडली थी तो क्यों नहीं सोचा कि वह अबोध कैसे जिएगी, कौन पालेगा उसे। खुद तो चैन की नींद सो गई। अब तेरी बला से। बड़ी आई मौसी की भांजी

...जब घर छोड़ा, तब नहीं सोचा कि मौसी पर क्या गुजरेगी! तेरी बच्ची की तरह

यह सब भी अनाथ हैं। इन्हें भी मेरी उतनी ही जरूरत है, जितनी तेरी लाडली को।' मन

में फिर कचोट उठती, आखिर उस बच्ची का दोष? रितु का गुस्सा मैं क्यों उस पर

उतारूं... वैसे भी अनजाने में चाहे जो भी हो जाए, पर जानबूझकर...उसके बालिग होने तक, उसको एक रिश्ते से वंचित रखना...कहां तक उचित है। कैसे न्यायसंगत है। लेकिन! लेकिन इन बच्चों को छोड़ देना भी तो मानवीय नहीं हो सकता। कैसे—कैसे दुःखों से निकलकर इन बच्चों के जीवन में आशा की किरण दिखाई दी है। कितने उहापोह से गुज़रकर उन्होंने एक रिश्ते को अपनाया है। वह कैसे उन्हें फिर अनाथ कर दे। ठीक है, यहां उन्हें दूसरी मदर मिल जाएगी, पर क्या टूटे विश्वास को फिर पाना इतना आसान है? ...शायद नहीं! मैं भी नहीं समझ पा रही कि आदित्य ने सही किया या गलत। उसने तो अपनी आत्मा के बोझ से मुक्ति पा ली, पर मेरा क्या? अब मैं आजीवन इस बोझ को उठाए फिरूंगी। स्वयं ही समझाती है अपने को। मेरा तो प्रारब्ध ही यही है, फिर किसी से क्या शिकायत। अपने जख्म हैं तो दर्द भी अपने ही होंगे न।' जैसे काशी बाबा कह रहे हों, ‘तू रहेगी...मिटेगी नहीं...देना तेरा स्वभाव है, धर्म है... तू तो बच्चों में रहेगी, बच्चों के बीच...तेरे अपने बच्चे।' विचारों की इसी झंझा ने उसे कुछ समय के लिए नींद की खाई में धकेल दिया।

चार दिन बाद परिवार का नया सदस्य आ गया था। उसके साथ सील किया हुआ एक ‘कार्टन' था, जिसमें उसकी मां की उससे संबंधित वस्तुएं थीं, जिन्हें उसके बालिग होने पर उसे सौंप दिया जाएगा। ऐसी धरोहरें कई और बच्चों की भी थीं जो मां के पास संरक्षित थीं। वह तेरह—चौदह महीने की एक खूबसूरत बच्ची थी, पर थोड़ी कमजोर थी। आते ही हिमानी ने उसे अपनी छाती से चिपका लिया था। बच्ची भी काफी देर तक उसके साथ वैसी ही चिपकी रही, जैसे बिछुड़ी हुई मां मिल गई हो। हिमानी का मन भर आया था, पर उसने आंखें गीली नहीं होने दीं। यही लगा, कोई देखेगा तो क्या कहेगा...बच्चों को कैसा लगेगा? अब तो उसे इसी भांति दोधारी तलवार पर चलना होगा। हमेशा सतर्क! बच्चों और इस बच्ची के बीच खिंची रेखा को उसे अनदेखा करना होगा। इस बच्ची की खातिर वह दूसरे बच्चों के साथ अन्याय नहीं करेगी, कभी नहीं! सोचते हुए उसने उसे एक सुंदर ‘कॉट' में सुला दिया, जिसके ऊपर तरह—तरह के रंग—बिरंगे खिलौने लटके हुए थे। बच्चों ने उसे चारों ओर से घेर रखा था। कोई उसे हंसाना चाह रहा था तो कोई उसे दूध पिलाने को उतावला था। पिंकी तो बार—बार उसके लिए बिस्कुट ले आती थी। बच्ची कभी तो भाैंचक—सी होकर देखती, कभी हंसने लगती, कभी खिलौनों को पकड़कर मुंह में डालने की कोशिश करने लगती थी। पद्‌मा पूछ रही थी, इसका क्या नाम है मम्मी?''

‘‘यह अभी बहुत छोटी है...इसका कोई नाम नहीं है, है न मम्मी।'' पिंकी ने अपना ज्ञान बघारते हुए मां की ओर देखा।

‘‘जे तो छुटकी है!'' अतुल ने जैसे चुटकी ली। हिमानी हंस पड़ी। उसे बरबस रितु का नामकरण याद आ गया। शिवानी दीदी ने उसके पैदा होने पर हिमानी से ही आग्रह किया था कि वह अपनी भांजी के लिए सुंदर—सा नाम सुझाए। तभी—तभी उसने एक बांग्ला उपन्यास में पढ़ा नाम ‘रितुपर्णा' लिख भेजा था। ससुराल में तमाम विरोधों के बावजूद शिवानी ने वही नाम रखा था। आज रितुपर्णा की बेटी के नामकरण की जिम्मेदारी फिर उस पर आ गई थी। उसने बच्चों से कहा, ‘‘ठीक है, अभी इसको ‘छुनछुन' कहेंगे...बाद में नामों की एक लिस्ट बनाएंगे और जिस नाम को ज्यादा वोट मिलेंगे, वही इसका नाम रख देंगे... ठीक है!''

सबने ‘ओ.के.!' कहकर खुशी—खुशी समर्थन किया। हिमानी कार्टन को लॉकर में रखने के लिए अपने कमरे में चली गई। बच्चे ‘छुनछुन—छुनछुन' कहकर बच्ची के साथ खेल रहे थे। उनका समवेत स्वर हिमानी तक पहुंच रहा था।

समाप्त

Rate & Review

Wasavadatta Deshpande

प्रशंसनीय

Swati Irpate

Swati Irpate 9 months ago

Raj Gupta

Raj Gupta 9 months ago

gdas

gdas 12 months ago

Shikha Verma

Shikha Verma 1 year ago