shadow of affection in Hindi Short Stories by Rk Mishra books and stories PDF | स्नेह की छाया

स्नेह की छाया

दीना स्कूल से घर आया। देखा घर में नौकर को छोड़कर और कोई नहीं था। भूख से पेट जल रहा था। उसकी मां थी तो शाम को सदा दरवाजे पर उसकी प्रतीक्षा करती मिलती थी। प्यार से गोद में उठाकर मुँह-हाथ धोकर स्वयं खाना खिलाती। चाचा-चाची सभी प्यार की वर्षा करते रहते। चाचा जी घर में घुसते ही पूछते-"दीना कहाँ है ?" लेकिन अब न कोई पूछता है, न दरवाजे पर खड़ा कोई इंतजार ही करता है। भूखे दीना का मन रो पड़ा। किताबें रखकर वह रसोईघर में घुसा तो बर्तन खाली पड़े थे-खाने के नाम पर वहां कुछ नहीं था। बड़ी देर तक खड़ा बिसूरता रहा। उसने इधर-उधर निगाह दौड़ाई तो देखा कि चूल्हे पर दूध का भगोना रखा था। कुछ देर तक तो वह असमंजस में पड़ा रहा कि क्या करे, पर अन्त में दूध को गिलास में निकालकर वह पी गया।

पीने को तो वह पी गया लेकिन गिलास को भूमि पर रखने के साथ ही चाची का तमतमाया चेहरा आंखों के सामने नाच उठा-उनकी फटकार कानों में गूंजने लगी। लेकिन साथ ही यह भी विचार आया कि क्या हुआ ? मां के सामने भी तो वह कभी-कभी ऐसे ही दूध पी लिया करता था। तब तो कोई कुछ नहीं कहता था और अब? यह सोचते ही वह कांप उठा- "अब चाची मुझे जलील करेंगी। मैंने नाहक पी लिया। न पीता तो मर थोड़े ही जाता। मुझ पर डांट पड़ेगी तो मेरा साथ कौन देगा ? कौन कहेगा कि पी लिया तो क्या हुआ ?"

“अब क्या करूं ? यही कि इसमें बाजार से दूध लाकर डाल दूँ। पर पैसे ?" दीना के पास पैसे कहां ? कौन था जो उसे पैसे देता और यदि पैसे ही होते तो दूध की जगह वह और कुछ न खा लेता। लेकिन दूध तो लाना ही था। मजबूर दीना चाचा के कमरे में गया, कोट-पैंट, सबकी जेबें खोज डाली, सब खाली थी। अलमारी खोलकर ढूंढने लगा। कागजों में दबी एक अठन्नी मिल गई। दीना खुशी से नाच उठा। लेकिन खुशी की कल्पना अभी साकार रूप भी न ले पाई थी कि चाची जी आ धमकी "यह क्या है रे अलमारी खोलकर चोरी कर रहा - है ? यह भी आदत सीख ली ?"
"मैं मैं दीना कुछ कहता कि इसके पूर्व ही चाची बोल पड़ी यह हाथ में
क्या है ?"
"अठन्नी ।"
दीना पकड़ा गया। उसने चोरी नही की थी। करना भी नहीं चाहता था पर अब कौन उसकी गलती को क्षमा करे ? वह तो अपराधी था । शाम को घर भर इकट्ठा हुआ। चोरी से दूध पीने और अठन्नी चुराने का आरोपउसके चचेरे भाई ने लगाया पैरवी चाची ने की और चाचा जी ने अभियुक्त दीना की सफाई में कोई गवाह न पाकर कुछ फैसला दिए बिना ही अपना सिर झुका लिया, जो इस बात का सबूत था कि दीना चोरी के इल्जाम को अस्वीकार करने के बाद भी अपने पक्ष की गवाही की कमी में दोषी करार पाया गया। दीना की आंखों से आंसुओं की झड़ी लग गई। चाचा जी ने डांटकर इतना ही कहा दीना, तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए।"

सब अपने-अपने काम में लग गए। दीना वहां खड़ा खड़ा रोता रहा। कोई नहीं था जो उसकी ओर स्नेह से देखकर सही बात समझे उसका मन बार-बार कह रहा था कि उसने चोरी नहीं की। पर वह अपने मन की बात कहे तो किससे कहे ? किसी ने उसकी सफाई को स्वीकार नहीं किया और फिर वह यह बात कैसे कह सकता है कि वह दूध खरीदने बाजार जा रहा था ? कौन उसकी बात मानेगा ? उसे लगा, मां होती तो मान लेती। उसका छोटा-सा दिल हाहाकार कर उठा। वह अब उस घर में कैसे रहेगा ? दीना बाहर भागा।

"दत्ता' और फिर वह फफक पड़ा। बार-बार दत्ता ने पूछा, लेकिन दीना कुछ बोल न पाया। दत्ता के कंधे पर सर रखे वह रह-रहकर सिसक उठता-जैसे शांत सागर में तूफान उठता हो। दत्ता भी असहाय था कि क्या करे कि दीना का दुःख दूर हो सके। बड़ी देर तक यह उसके सर पर हाथ फेरता रहा अपने सीने से लगाए उसके आंसू सोखने का प्रयास करता रहा। वह रोता तो दत्ता तिलमिला उठता। मन में आता कि उसका सारा आंसू, सारा दर्द पी जाए आंसुओं और कष्ट से एकदम शून्य कर दे उसका ओवन लेकिन कल्पना ही तो ठहरी, इच्छा इच्छा ही रह जाती।

रोते-रोते दीना के आंसू चुक गए, सिसकियां शांत हो गई। लेकिन उदासी अपनी मंजिल पर पहुंचकर विश्राम न ले सकी। दत्ता ने उसका सर अपने सीने से ऊपर उठाया। ठुड्डियों पर हाथ रखकर बोला-क्या है रे ! यह पागलपन ? क्या हो गया है तुझे ?" लेकिन उत्तर की जगह फिर वही दो बूंद आंसू दत्ता जितना ही स्नेह दिखाता, वह जितना ही उसके दर्द में समाहित होने की कोशिश करता, जितने ही स्नेह भीगे सांत्वना के शब्द बोलता, उतनी ही तेजी से दीना रो पड़ता। जाखिर दत्ता से न रहा गया। उसने कहा- भैया दीना । अब बहुत हो चुका, बस करो। तुम्हें क्या परेशानी है ? परमेश्वर ने अच्छा-खासा घर-परिवार दिया है, धन-सम्पदा दी है, मान-सम्मान, इज्जत सब कुछ तो है तुम्हारे पास। फिर भी तुम और दीना आगे न सुन सका। वह बड़े जोर से फूट पड़ा-भरे दिल से रुपे गले से बोला, "दत्ता । केवल ईंट-पत्थर की चहारदीवारी को ही तो घर नहीं कहते। इंसानों का जमघट ही तो परिवार नहीं है। लकड़ी का चौखट ही तो केवल दरवाजा नहीं है और केवल रोटिया ही तो पेट नहीं भर देतीं तुमसे अच्छा अब चला ।" और दत्ता के देखते-देखते दीना मुंह फेरकर चला गया। उसके दिल-दिमाग की सारी नसे एक साथ झनझना उठीन जाने कितना दर्द लिए घूम रहा है दीना।आंसू, शुक गए, लेकिन वेदना कम न हुई।" वही देर तक वह वही दृष्ट महाए कुछ बिसूरता सा खड़ा रहा।

दत्ता, दीना का दोरू, भाई, जिसे दुनिया के लोग अपना नाम की विभूषित करते हैं, पराया होते हुए भी उसका सब कुछ था अपना दर्द और अपनी परेशानियां लिए वह उसके पास इसीलिए जाता कि चलकर अभी खूब बातें लेकिन रोने और सिसकारियां भरने के सिवाय आज तक वह कुछ भी नही पाया। इतना जरूर था कि से लेने के बाद न जाने क्यों उसे ऐसा लगता कि दिल हल्का हो गया है। दुःख कम हो गया है। विभाग पर से कोई भार उत्तर गया है।

दीना बड़ी सावधानी से कार्य करता लेकिन उसकी हर सावधानी विपदा बन जाती। एक दिन चाचा व थाची कुछ काम से बाहर गए थे। घर में कोई नहीं था। जाते समय चाची उसे डांटकर कह गई थी कि घर पर ही रहना। कहीं बाहर निकले तो ठीक न होगा। चाचा जी ने जरूर पूछा था कि दीना, तुम्हे कहीं घूमने से नहीं जाना है।" तो उसने कह दिया था, नहीं चाचा जी मैं घर पर ही रहूगा वह कमरे में बैठा सामने से आते जाते लोगों को देखकर कुछ अपने बारे में और कुछ उन लोगों के बारे में सोच रहा था कि इसी बीच पड़ोस के गुप्ता जी दो तीन साथियों को लेकर आ पहुंचे। उनकी आवाज सुनकर दीना ने झांका बाहर। पुप्ता जी खड़े चाचा जी को पूछ रहे थे। वह बोला- अरे गुप्ता जी. आइए एन चाचा जी तो घर पर नहीं है, पर आते ही होगे।"

"ये मेरे मित्र हैं, बनारस से आए हैं। सोचा तुम्हारे चाचा जी से मिला हूँ। पर वे न जाने कब लौटेंगे ?" "नहीं, अभी आते ही होंगे ?*

"अच्छी बात है-बैठते हुए गुप्ता जी बोले, "भाई, जरा पानी पिताओं, प्यास लगी है।"

"बहुत अच्छा, अभी ताया।" दीना अन्दर गया। देखा, सब बरतन जूठे पड़े थे। न गिलास साफ थे, न

लोटे। बाहर से आए मेहमान लेकर गुप्ताजी आए थे। दीना ने सोचा, घर के का के गिलास और जार का जो नया सेट आया है उसी में क्यों न पानी पिता दिया जाए। वह झटपट गया। उस नए सेट में पानी भरकर ट्रे में से आया। मेहमानो ने पानी पिया। इतने में चाचा व चाची आ गए। दीना अपने कमरे में चला गया। दीना बहुत खुश था कि उसने बहुत सावधानी से मेहमानों का स्वागत किया है। आज उसके चाचा जी जरूर उसकी तारीफ करेंगे कि इसी बीच चचेरे भाई ने कहा "अम्मा बुला रही है।" वह खुशी-खुशी चाची के पास पहुंचा। चाची उसे देखते ही गरज पड़ी क्यों है दीना । तूने उस नए सेट में पानी क्यों पिताया ?" "चाची, सब बर्तन जूठे पड़े थे।जूठे पड़े थे तो मांज नहीं सकता था। अब कौन उन गिलासों को फिर से डोलची में दबाकर रखेगा। एक काम करेगा तो दस नए खड़े कर देगा। अजीव अक्ल पाई है और फिर जरूरत ही क्या थी उन गिलासों को भूने की कोई हमारे घर मेहमान तो नहीं आए थे।"

दीना सुनता रहा। चाचाजी भी कुछ नहीं बोले। उसने एक बार आंसू भरी आंखों से चाचा जी की ओर देखा। पर नहीं, उसकी अच्छाइयों पर शाबाशी देने याला जब कोई नहीं है। चाचा जी ने केवल यही कहा, 'रोते क्या खड़े हो लड़कियों सरीखे ? जाओ हटो।" उस रात दीना पढ़ाई न कर सका। बार-बार कोई उसके मन में कह रहा था, "तुम्हारी गलतियों को माफ कर उन्हें सुधारने वाला और तुम्हारी अच्छाइयों को समेटकर चारों तरफ तुम्हारी तारीफ करने वाला स्नेही इस घर में कोई नहीं है।" दीना सचमुच दीना हो गया था उसका अपने आप पर भी विश्वास नहीं रहा।

रात को सोते सोते ही उसकी नींद उचट जाती। लगता, उसकी मां उसे पुकार रही है और कह रही है, "बेटा। पढ़-लिखकर दुनिया में अच्छे काम करो। वह जागता रहता और घंटों जागते-जागते रात के सुनसान अंधेरे में सपने बनाया करता- 'जब मैं बड़ा होऊंगा तो किसी को उदास नहीं रहने दूंगा। फूल से मुरझाए चेहरों को प्यार और स्नेह से प्रफुल्लित कर दूंगा। फूल से भी सुकुमार दिलों को कभी टूटने न दूंगा क्योंकि ये फूल फिर सुगंध न ला सकेंगे।" अनेक मुरझाए चेहरे उसकी आंखों के सामने उभरते और देखते-ही-देखते प्रफुल्लित हो जाते। वह सपनों की अपनी इस अवस्था में इतना प्रसन्न हो जाता कि कभी-कभी तो अनजाने ही जोर से हंस पड़ता। उसे ये जागते सपने बड़े प्यारे लगते। स्वयं भी बड़ा सुख का अनुभव करता। रातें ऐसी कटती किन्तु दिन दिन दूभर हो जाते।

अपनी पुस्तकें, कमरा और बिस्तर छोड़कर दुनिया की ओर किसी बात में अब उसकी रुचि नहीं रही। जीवन अनजाने ही अस्त-व्यस्त होता गया। सुधारने की कोशिश करने पर और बिगड़ जाता। चाचा बिगड़ते दीना, तुमने दो दिन से स्नान नहीं किया" और चाची गरज पड़ती, "उसे क्या चिंता है कि लोग हमें क्या कहेंगे ? कमरे में घुसा दिन-रात पुस्तकें लिए बैठा रहता है। घर में और भी. वो बच्चे हैं।"

कभी-कभी लगता कि वह अपने अन्य भाइयों के साथ खेल-कूद एवं गप-शप

करे। और जब बड़ी ललक के साथ वह उनके बीच खेलने चलता तो भाई कह

उठते-

"अच्छा, तो राजा साहब । आज सज-धजकर किचर चले "अच्छा, ठहरो दीना मइया । इधर आओ सब उसे घेर लेते और पूछते, "अच्छा, पं. दीनानाथ जी। बताओ, दुनिया में सबसे बड़ा क्या है २० दीना सोचता, और बड़ी सावधानी से उत्तर देता- "सबसे बड़ा हिमालय, 29,000-फुट ऊंचा है।"

सहस पड़ते और एक साथ कहते "सबसे बड़ा बुद्ध और उसके सिर पर टी मार मारकर चारों ओर 'बुद्ध', 'बुद्ध' कहकर ताली बजाकर नाचने लगते। कभी-कभी तो चाची भी दूर से इस खेल को देखकर मुस्काने लगती। दीना का दिल टूट जाता और फिर वह रात के सपनों तक बेचैन रहता।

उस दिन मैट्रिक का परीक्षाफल निकलने वाला था। दीना जान-बूझकर स्कूल नहीं गया। उसे मालूम था कि वह पास होगा किन्तु प्रश्न या कि इस खुशी को सुनाने के लिए वह किसके पास दौड़ेगा ? कौन उसकी पीठ ठोकेगा ? यह सेह की छाया कहाँ है जहां पहुंचकर वह अपनी सफलता पर बधाई पा सके। इतने

में दरवाजे पर आवाज आई- बधाई हो दीना भाई ।" दीना जानता था कि वह पास होगा फिर भी उसे "बधाई" सुनकर अच्छा लगा। यह बाहर आया। उसके दोस्त उसे बधाई देने लगे

और साथ ही शिकायत भी कि "अरे यार । आज तो पुस्तकें छोड़ दे। कुछ पेड़े-बेड़े खिलाओ।" हंसी, विनोद और मस्ती का प्रसंग चल रहा था। दीना अपना दुःख भूल-सा गया। इसी बीच उसके चचेरे भाई मुँह लटकाए घर में घुसे। गजट में उनका नाम नहीं था। वे सब घर में घुसे ही थे कि उपर से एक कर्कश आवाज आई- "बड़ा पास हो गया तो दोस्तों को बुला लिया। इसको इस बात का जरा-सा

भी दुःख नहीं कि भाई फेल हो गए हैं। कला कहीं का कमरे में बैठा-बैठा

नकल करने के लिए कागज के पुरजे बनाता रहता था। बड़ा आया है पास होने

वाला "

चाची की कर्कश आवाज उसके कानों में घुसी और दिल पर गहरा घाव कर गई। एक-दो मनचले मित्र पूछ बैठे- "क्यों यार। यह आर्ट भी है क्या तुम्हारे पास ? हमें तो कभी नहीं बताया

बधाई देकर मित्र चले गए। लेकिन चाची का कर्कश प्रहार और मित्रों का व्यंग उसका अन्तर कुरेदता रहा। उसके कानों में चारों ओर से एक ही आवाज आ रही थी- दीना नकलची है।" वह देखता कि तिरस्कार की दृष्टि से देखकर सभी मुख फेर ले रहे है। कोई भी उसका पक्ष लेने वाला नहीं है जो उन सबसे कहता, उन्हें बताता कि यह सब झूठ है। किसी की घृणा एवं द्वेष द्वारा उसकी सफलता की उज्ज्वल रेखा को धूमिल करने का घृणित प्रयास मात्र है यह।

दीना को चारों ओर अंधेरा ही अंधेरा दिखाई दिया। उसके अन्तरमन में बैठा पौरुष बोल उठा - आखिर कब तक ? दीना । तुम कब तक इन अपमानों का घूंट पीते रहोगे तिरस्कार सहते रहोगे ? दीना की मुडियां बंध गई, दांत भिच गए। वह बोल पड़ा- "अब नहीं सहूंगा"और दो पंक्तियों का एक छोटा-सा पत्र लिखकर कि-"पूण्य चाचा जी, मैं आपको खुश नहीं रख सका, यह मेरा दुर्भाग्यहै। आप मेरे कारण दुःख न पाए, इसलिए मैं जा रहा हूँ। आपका आशीर्वाद मेरे साथ है - दीना ।" दीना घर से बाहर निकला तो दत्ता की याद आई। इन सारे संकटों में वही एक सहारा था जहां अपने आंसू बहाकर वह अपना गम गलत कर लिया करता था। जिसे देखकर उसे लगता था कि इस दुनिया में कोई उसका अपना भी है। वह उसके पास गया। सदा की भांति लिपटकर रोया। आंसुओं ने दुःख तो प्रकट किया लेकिन पूरी कहानी न कह सके। दत्ता ने सांत्वना दी, स्नेह दिया, प्यार से उसे सराबोर कर दिया। बार बार जानने की कोशिश की बड़े प्रेम से पूछा, लेकिन दीना सिवाय उसके कि केवल ईंट-पत्थर की चहारदीवारी को ही घर नहीं कहते, और कुछ नहीं कह पाया। अपने दोस्त का दक्ष आंसुओं से गीला कर, उसे ममहित करके आगे बढ़ा तो फिर घूमकर भी नहीं देखा दत्ता भी न जान पाया कि दीना कहां गया ?

अपने घर और गांव से दूर अनजानों के गांव में एक पेड़ के नीचे थका-मांदा, भूखा-प्यासा दीना दीनों की भांति आते-जाते राहियों को देख रहा था। लेकिन भय-वश किसी से कुछ न कहता। दोपहरी नजदीक थी। गांव के लोग खेतों से वापस जा रहे थे। चौधरी सुमेर अपनी पत्नी अचला के साथ घर लौट रहे थे। वे तो आगे निकल गए लेकिन अचला दीना को देखकर ठिठक गई। प्यास से सूखा हुआ चेहरा, और भूख से विल शरीर देखकर उनका मातृत्व जाग उठा। बिना किसी संकोच के पास आकर बोली- बेटा !

दीना चौंक उठा। "बेटा । शब्द सुनते ही शरीर की सारी तपन मानो शांत हो गई। मृत प्राणों में जैसे अमृत का संचार हो गया। इसी स्नेहसिक्त शब्द को सुनने के लिए तो वह वर्षों से तरस रहा था। उसने ऊपर देखा, अचला की स्नेहभरी आंखें उसे दुलरा रही थीं। दीना को वह घर ले गई। उसने नहाया, खाया और थके होने के कारण खाट पर लेटते ही सो गया। अचला पास में बैठी उसे निहार रही थी। बोली-"क्या हीरा लड़का है। धन्य हैं वे मां-बाप, जिसने इसे जाया और अभागे हैं वे जिन्होंने मोती को मिट्टी समझकर फेंक दिया। और दीना सोते-सोते बोल रहा था माँ ! तुम ! अब तक कहां थी ?" इतना अपमान, इतना व्यंग । जी इसलिए रहा था कि मरा नहीं। नहीं तो और फिर उसने करवट बदल ली।

स्नेह और सहानुभूति के अभाव में सूखती हुई दीना की वीरान जिन्दगी में फिर हरियाली के अंकुर उगे। वे लहलहाने भी लगे। उसके हर उल्टे-सीधे काम को ममता भरी निगाहों से देखने वाली अचला और सुमेर ने उसका जीवन संवार दिया। स्नेह की छाया में जीवन का रुका हुआ विकास आगे बढ़ा। जब वह कोई गलती करता तो अचला हंस देती 'पगले । किया तो अच्छा", और उसे ठीक करती हुई कहती-"लेकिन यदि ऐसा किया होता तो और अच्छा दिखाई देता। देखो, अब देखो।" और दीना' मगन मन झूम उठता। लोक-लज्जा से, पड़ोसियों के व्यंग ने दीना के चाचा को मजबूर कर दियाऔर न चाहते हुए भी वे इधर-उधर उसे ढूंढने निकले। जैसे-जैसे समय बढ़ता जाता बुराई करने वालों की संख्या भी बढ़ती जाती। चारों ओर एक ही चर्चा आ गया ? भाई ने भाई के बेटे की बेसरा भटकने को मजबूर कर दिया। जब तो अपने भी नहीं रहे, दुनिया की बातें कौन करे, भैया ?

उस दिन गांव के बाहर कच्ची सड़क के पास एक पेड़ के नीचे खड़ा दीना खेतों में काम कर रहे मजदूरों के काम की निगरानी कर रहा था कि उसने देखा कि पास कुएं पर कुछ मुसाफिर पानी पीते-पीते बातें कर रहे थे कि पता नहीं, कहां चला गया। ढूँ। अब अगर मिल जाए तो उससे कहूं कि चल दोना, तू घर रह हम लोग ही ह बाहर चले जाएंगे। कम-से-कम हम ये ताने सुनने से तो बच जाएंगे।"

'दीना' शब्द उसके कानों में पड़ा तो उसने उन्हें ध्यानपूर्वक देखा। उसके चाचा दो-तीन लोगों के साथ बैठे बातें कर रहे थे। पहले तो मन में आया, मुंह फेरकर दूर चला जाए। लेकिन फिर सोचा, घर आए से मुंह फेरना, यह कोई इंसानियत नहीं है।" और क्षण भर में दीना ने पैर छूते हुए यह कहकर कि चाचाजी, आप लोग यहां कहाँ ?" उन सबको चौका दिया। उसने एक मजदूर को आवाज दी, सामान उठवाकर घर ले गया। चौधरी सुमेर और अचला से परिचय कराते हुए बोला- "यह है मेरे पूज्य चाचाजी !"

मौका देखकर चाचाजी दीना के पास गए और बड़े प्रेम से बोले बेटा दीना । चलो, घर चलें।" दीना पहले तो उनकी ओर बड़े आश्चर्य से देखता रहा, फिर जोर से हंसकर बोला-'चाचाजी । यदि ईंट-पत्थर की चहारदीवारी को ही पर कहते है तो आपको वह घर मुबारक हो, मुझे नहीं चाहिए। मैं आपका हूं और रहूंगा. लेकिन उस घर से दूर जिसे आप घर कहते हैं।"

चाचाजी ने बड़ी कोशिश की। उनके साथियों ने बहुत समझाया, लेकिन सब व्यर्थ हो गया। वे घर लौटने लगे तो वह उन्हें विदा करने गांव के बाहर तक आया। पैर छूते समय उसे दत्ता की याद आ गई। बोला- 'चाचाजी, एक बात पूछूं- "वह दत्ता भैया कहां है ?"

कुछ देर चुप रहने के बाद एक धीमी-सी आवाज आई- "वह अब नहीं रहा यह सुनते ही 'दीना' का हृदय चीत्कार कर उठा दीना ! तू अब वहां जाकर क्या करेगा ? किसके कंधे पर सर रखकर रोएगा वहाँ ? कौन प्यार से तुझसे पूछेगा। कि "दीना, बताओ तुम्हें क्या हो गया है ?" चाचा अपनी राह गए, दीना दत्ता की याद में वहीं बड़ी देर तक कुछ सोचता सा खड़ा रहा लुटे हुए बटरोही की तरह।


Rate & Review

Kshama   Vachharajani
Prerna Jain

Prerna Jain 7 months ago

Tejas Verma

Tejas Verma 7 months ago

Rk Mishra

Rk Mishra 7 months ago

Share