परिणीता - Novels
by Sarat Chandra Chattopadhyay
in
Hindi Moral Stories
विचारों में डूबे हुए गुरूचरण बापु एकांत कमरे में बेठें थे। उनकी छोटी पुत्री ने आकर कहा-‘बाबू! बाबू। माँ ने एक नन्हीं सी बच्ची को जन्म दिया है।’ यह शुभ समाचार गुरूचरण बाबू के हृदय में तीर की भाति ...Read Moreगया. उसका चेहरा, ऐसे सूख गया मानो कोर्इ बड़ा भारी अनिष्ट हो गया हो! यहा पाँचवीं कन्या थी, जो बिना किसी बाधा के उतपन्न हुर्इ थी।
गुरूचरण बाबू एक साधारण आदमी थे। वह केवल साठ रूपए मासिक वेतन के नौकर थे। उनकी दशा शोचनीय थी, जीवन शुष्क तथा नेत्रो में निराशा की झलक थी। शरीर दुर्लब, मरियल, टट्टू की भांति था। देखने में ऐसा लगता था कि जान होते हुए भी बेजान हो। फिर ऐसी दशा में यह असुभ समाचार सुनते ही उनका खून ही सूख गया और हाथ में हुक्का लिए हुए निर्जीव की भांति, फटे-पुराने तकिए के सहारे लेटे रहे। जान पडंता है कि सांस लेने में भी उन्हें कष्ट हो रहा था।
विचारों में डूबे हुए गुरूचरण बापु एकांत कमरे में बेठें थे। उनकी छोटी पुत्री ने आकर कहा-‘बाबू! बाबू। माँ ने एक नन्हीं सी बच्ची को जन्म दिया है।’ यह शुभ समाचार गुरूचरण बाबू के हृदय में तीर की भाति ...Read Moreगया. उसका चेहरा, ऐसे सूख गया मानो कोर्इ बड़ा भारी अनिष्ट हो गया हो! यहा पाँचवीं कन्या थी, जो बिना किसी बाधा के उतपन्न हुर्इ थी।
गुरूचरण बाबू एक साधारण आदमी थे। वह केवल साठ रूपए मासिक वेतन के नौकर थे। उनकी दशा शोचनीय थी, जीवन शुष्क तथा नेत्रो में निराशा की झलक थी। शरीर दुर्लब, मरियल, टट्टू की भांति था। देखने में ऐसा लगता था कि जान होते हुए भी बेजान हो। फिर ऐसी दशा में यह असुभ समाचार सुनते ही उनका खून ही सूख गया और हाथ में हुक्का लिए हुए निर्जीव की भांति, फटे-पुराने तकिए के सहारे लेटे रहे। जान पडंता है कि सांस लेने में भी उन्हें कष्ट हो रहा था।
श्याम-बाजार के एक सुख-संपन्न भरपूर-वैभवशाली परिवार में शेखर की शादी की बात चल रही थी। वे लोग आज आए थे, विवाह मुहूर्त अगले माह ही निशिचत करने की बात कर गए हैं, लेकिन इस प्रस्ताव को शेखर की माँ ...Read Moreशायद मंजूर नहीं किया। उन्होंने अंदर से एक नौकरानी द्वरा संदेश भिजवा दिया कि जब तक शेखर लड़की देख न आए और पसंद न कर आए, तब तक मुहूर्त कैसे ठीक होगा?
नवीन राय की निगाह केवल घन-दौलत पर थी और शायद उन्हें उनके अनुमान से अधिक मिलता। उन्होंने मालकिन की यह बात सुनकर बड़ा क्रोध किया और कहा- ‘यह क्या कहती हो? लड़की देखने की क्या आवश्यकता? वह तो देखी ही है, पहले संबंध स्थापित हो जाने दो, फिर आशीर्वाद वाले दिन यदि शेखर चाहेगा तो देख आएगा, साथ ही और सभी लोग देख लेंगे।’
चारूबाला की माँ का नाम मनोरमा था। ताश खेलने से बढ़कर उन्हें और कोर्इ शौक न था। परंतु जितनी वह खेलने की शौकीन थीं, उतनी उनमें खेलने की दक्षता न थी। ललिता उनकी तरफ से खेलती थीं, तो उनकी ...Read Moreकमी पूरी होती थी। मनोरमा के ममेरे भार्इ गिरीन्द्र के इधर आने पर, मनोरमा के घर ताश की बाजियां कर्इ दिन से बराबर दोपहर को जमती हैं। गिरीनद्र अच्छा ताश खेल लेता है। वह सदैव मनोरमा के विपरीत खेलता था। इस कारण उसे ललिता का सहयोग बहुत ही आवश्यक था। उसके खेलने पर ही जोड़-तोड़ की बाजी होती थी।
उस मोहल्ले में अक्सर एक दीन-दुखी बूढ़ा फकीर भीख मांगने आया करता था। उस बेचारे पर ललिता की बड़ी ममता थी। जब कभी वह भजन गाकर भिक्षा मांगता था, तो ललिता उसे एक रूपया दिया करती थी। एक रूपया ...Read Moreहोने पर उसके आनन्द का ठिकाना न रहता था। ललिता को वह सैकड़ों आशीर्वाद देता था और वह बड़े चाव से उन आशीर्वादो को सुनती थी। फकीर कहता था- ‘ललिता उस जन्म की मेरी माँ है!’ पहली दृष्टि पड़ते ही फकीर उसे अपनी माँ समझने लगा है। वह बड़े ही करूण स्वर में उसे अपनी माँ कहकर पुकारता है। आज भी उसने आते ही माँ को पुकार- ‘ओ माँ! मेरी माँ तुम आज कहाँ हो?’
गुरुचरण बाबू बहुत ही मिलनसार व्यक्ति थे। किसी भी छोटे-ड़े व्यक्ति से वे निःसंकोच बातें कर सकते थे। अपनी मिलनसार आदत के कारण ही, गिरीन्द्र के साथ दो-तीन बातें हने पर ही उनकी गहरी मित्रता हो गई थी। वह ...Read Moreही र्दढ़ विश्वासी थे। सरल स्वभाव के कारण वे चुतराई को कम महत्त्व देते थे। वाद-वाद में तर्क-वितर्क होने पर यदि हार भी जते थे, तो भी किसी प्रकार के रोष की रेखा उनके चेहरे पर न झलकती थी।
कभी-कभी ललिता चुपचाप मामा की बगल में बैठकर सब कुछ सुनती रहती। जब वह आकर बैठ जाती, तो गिरीन्द्र के तर्क बहुत ही विद्वत्तापूर्ण होते। हृदय में आनन्द की लहरों के उज़ाव के साथ वह युक्तिययों को जुटाता चला जाता।
नवीन ने भूल तथा सूध जोड़कर रूपये गुरुचरण बाबू से लिए। अब कुछ भी बाकी नहीं रहा गया। तमस्सुक वापस करते समय उन्होंने गुरुचरण बाबू से पूछा- ‘कहो गुरुचरण बाबू, यह इतने रूपए तुम्हें किसने दिए?’
नवीन राय अपने रुपए ...Read Moreतनिक भी खुश नहीं हुए। रूपए वापस लेने की न तो इच्छा ही थी, और न ही वह गुरुचरण बाबू से ऐसी उम्मीद करते थे। उनके हृदय में तो एक दूसरी ही धारणा थी कि वह गुरुचरण बाबू का मकान गिराकर, उस पर अपना दूसरा महल खड़ा करेंगे। वह इच्छा पूरी न हुर्इ। इसी कारण वह आवेश में आकर व्यंग्यपूर्वक कहने लगे- ‘वह क्यों न मनाही की होगी, भैया गुरुचरण! इसमें तुम्हारा कोर्इ दोष नहीं है, सारा दोष और लगाव तो मेरा है, जो मैंने तुमसे रूपयों का तकाजा किया। यही कलियुग की उल्टी माया है।’
ललिता अपने विषय की बात होते देखकर वहाँ से चली आर्इ, और सीधे शेखर के कमरे में पहुंची। उसने शेखर के बक्स को खींचकर रोशनी में किया, और सभी कपड़े तथा आवश्यक सामान उसमें रखना शुरु किया। उसी समय ...Read Moreभी वहाँ आ गया। शेखर के आते ही ललिता की दृष्टि उस पर पड़ी और वह एकाएक चक्कर में पड़ गर्इ, कुछ बोल न सकी।
जिस प्रकार किसी मुकदमे का हारा मुवक्किल एकदम निर्जीव-सा हो जाता है, बोल नहीं पाता, उसकी सूरत बिगड़ जाती है, उसको पहचान सकना भी कठिन हो जाता है-ठीक वैसे ही हालत उस समय शेखर की थी। अभी एक घंटे में ही शेखर की मुखाकृति ऐसी बदल गर्इ थी कि ललिता उसे पहचान नहीं पा रही थी। न जाने कैसी उदासी और परेशानी शेखर के मुख पर छार्इ थी। मालूम होता था कि उसका सर्वस्व लुट चुका है। उसने कुछ भारी तथा सूखे स्वर में पूछा- ‘ललिता, क्या कर रही हो?’
लगभग तीन माह बाद, गुरुचरण बाबू मलिन मुख नवीन बाबू के यहाँ आकर फर्श पर बैठने ही वाले थे कि नवीन बाबू ने बड़े जोर से डांटकर कहा- ‘न न,न, यहाँ पर नहीं, उघर उस चौकी पर जाकर बैठो। ...Read Moreइस कुसमय में नहीं नहा धो सकता-तुमने जाति बदली है-यह सत्य है न?’
क्षुब्ध होकर गुरुचरण बाबू एक दूर की चौकी पर जाकर बैठे। कुछ देर वे मस्तक झुकाए बैठे रहे। अभी चार दिन पहले की बात है, उन्होंने विधिवत् ब्रह्मसमाज को ग्रहण कर लिया है। अब वह ब्रह्मसमाजी हो गए हैं- यह खबर आज ही नवीन राय को मिली है।
उस रात को काफी समय तक शेखर पागलों की भाँति, बिना किसी उद्देश्य के इधर-उधर गलियों में फिरता रहा फिर घर में आकर बैठा हुआ सोच-विचार में पड़ा रहा। उसे बड़ा आश्चर्य हो रहा था कि यह सीधी-सादी ...Read Moreइतनी बातें कहाँ से सीख आई? यह निर्लज्जता की बातें उसे कहाँ से कहनी आ गई। इतना साहस, गजब का साहसा! आखिर यह सब कहाँ से? ललिता के आज के व्यवहार पर उसे क्रोध तथा आश्चर्य दोनों हो रहे थे, परंतु वास्तव में यह शेखर की भूल थी। यदि वह तनिक भी बुद्धिमानी से सोचता, तो शायद उसे अपनी ही कमजोरी और कमी पर अपने ही ऊपर क्रोध आता। ललिता का कहना अक्षरशः सत्य था। वह बेचारी और कह ही क्या सकती थी?
शेखर ने असम्भव समझकर ललिता को पाने की आशा छोड़ दी। कर्इ दिन उसे डर अनुभव होता रहा। वह एकाएक सोचने लगता कि कहीं ललिता आकर सब बातें कहकर भण्डफोड़ न कर दे, उसकी बातों का जवाब न देना ...Read Moreजाए, परंतु कर्इ दिन बीत गए, उसने किसी ने कुछ नहीं कहा। यह भी पता नहीं चला कि किसी को ये बाते मालूम हुर्इ अथवा नहीं। किसी प्रकार की चर्चा ललिता के घर में नहीं हुर्इ और न कोर्इ शेखर के यहाँ ही इस विषय के लिए आया।
लगभग एक वर्ष बीता। गुरुचरण बाबू के मुंगेर जाने पर भी स्वास्थय को कोर्इ लाभ न पहुंचा और वह इस संसार को छोड़कर चल दिए। गिरीन्द्र उनको बहुत मानता था और उसने उनकी सेवा करने में कसर नहीं रखी।
आखिरी ...Read Moreनिकलने के समय गुरुचरण बाबू ने उसका हाथ पकड़कर आग्रह के साथ कहा था कि कीसी अन्य कि भांति उनके परिवार का बहिष्कार किसी दिन न कर दे, अपनी इस घनिष्टता को आत्मीयता का स्वरूप दे दे।
इसका संकेत था कि वह अपनी बेटी का ब्याह उसके साथ करना चाहते थे।
माँ को लेकर शेखर वापस आ गया, परंतु अभी शादी के दस बाहर दिन शेष थे।
दो-तीन दिन व्यतीत हो जाने पर, ललिता सवेरे के समय भुवनेश्वरी के पास बैठी हुर्इ, कोर्इ चीज उठा-उठाकर टोकरी में रख रही थी। इस ...Read Moreकी जानकारी शेखर को न थी कि ललिता आर्इ है। वह कमरे के अंदर आकर माँ को पुकारते ही चौकन्ना हो गया। ललिता ने सिर झुकाकर काम जारी रखा।
भुवनेश्वरी ने पूछा- ‘क्या है बेटा?’ जिस लिए वह अंदर माँ के पास आया था, उस आशय को भूलकर ‘नहीं’ कहता हुआ वह झट वहाँ से चला गया। ललिता की ओर भरपूर नजर न डाल सका था, परंतु उसकी निगाह उसके दोनों हाथों पर पड़ चुकी थी। उसके हाथों में कांच की दो-दो चूड़ियां पड़ी थीं। शेखर ने शुष्क मुस्कान में कहा- ‘यह तो एक तरह का ढोंग है। उसे पता था कि गिरीन्द्र ही उसका पति है। विवाहिता स्त्री की इस प्रकार खाली कलाइयों को देखकर आश्चर्य हुआ।