विविधा - Novels
by Yashvant Kothari
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बात होली की हो और कविता, शेरो-शायरी की चर्चा न हो, यह कैसे संभव हैं ? होली का अपना अंदाज है, और कवियों ने उसे अपने रंग में ढाला है। जाने माने शायर नजीर अकबराबादी कहते हैं:
जब ...Read Moreरंग झमकते हों, तब देख बहारें होली की।
और दफ के शोर खड़कते हों, तब देख बहारें होली की।
परियों के रंग दमकते हों, तब देख बहारें होली की।
महबूब नशे में छकते हों, तब देख बहारें होली की
कपड़ों पर रंग के छींटों से खुशरंग अजब गुलकारी हो।
मुंह लाल, गुलाबी आंखें हों, और हाथों में
पिचकारी हो, तब देख बहारें होली की।
लेकिन बहादुरशाह जफर अपना अलग ही तराना गाते हैं, वे कहते हैंः
क्यूं मों पे मारी रंग की पिचकारी
देखो कुंवरजी दूंगी गारी।
भाज सकूं मैं कैसे मोंसो भाजयों नहीं जात
थाडे़, अब देखूं मैं, कैान जो दिन रात।
सबको मुंह से देत है गारी, हरी सहाई आज
जब मैं आज निज पहलू तो किसके होती लाज।
बहुत दिनन मैं हाथ लगे हो कैसे जाने दूं
आज है भगवा तोसों कान्हा फटा पकड़ के लूं।
शोख रंग ऐसी ढीठ लंगर से खेले कौन होरी।
और कबीर की फक्कड़ होली का ये रंग तो सबको लुभाता ही है:
यशवंत कोठारी 1-कवियों-शायरों की होली बात होली की हो और कविता, शेरो-शायरी की चर्चा न हो, यह कैसे संभव हैं ? होली का अपना अंदाज है, और कवियों ने उसे अपने रंग में ढाला है। जाने माने शायर नजीर ...Read Moreकहते हैं: जब फागुन रंग झमकते हों, तब देख बहारें होली की। और दफ के शोर खड़कते हों, तब देख बहारें होली की। परियों के रंग दमकते हों, तब देख बहारें होली की। महबूब नशे में छकते हों, तब देख बहारें होली की कपड़ों पर रंग के छींटों से खुशरंग अजब गुलकारी हो। मुंह लाल, गुलाबी आंखें हों, और हाथों
2-समकालीन साहित्य: सही दिशा की तलाश मूल प्रश्न है, साहित्य क्या है आजकल के साहित्य दो तरह का लेखन करते हैं। एक जो आसानी से पाठक के तक पहुंचता है और पाठक उसे पढ़ता भी है। दूसरा लेखन वह ...Read Moreकेवल अभिजात्य वर्ग के लिये लिखा जाता है। इस दूसरे साहित्य के लेखक यह मानते हैं कि अगर इनकी कोई रचना किसी सामान्य पाठक की समझ में आ गयी तो उन्होंने कुछ घटिया लिख दिया है और तत्काल वे अपना लेखन ‘सुधारने’ में लग जाते हैं। एक और प्रश्न ! क्या अखबारों का पेट भरने के लिये लिखा जाने वाला
3-व्यंग्य -दशा और दिशा हिन्दी साहित्य मे लम्बे समय से व्यंग्य लिखा जा रहा है, मगर आज भी व्यंग्य का दर्जा अछूत का ही है, इधर कुछ समय से व्यंग्य के बारे में चला आ रहा मौन टूटा है, ...Read Moreकुछ स्वस्थ किस्म की बहसों की २ाुरूआत हुई है। आज व्यंग्य मनोरंजन से उपर उठकर सार्थक और समर्थ हो गया है। आज व्यंग्य-लेखक को अपने नाम के साथ किसी अजीबोगरीब विशेशण की आवश्यकता नहीं रह गई है। मगर स्थिति अभी इतनी सुखद नहीं है, आज भी कई बार लगता है, व्यंग्यकार छुरी से पानी काट रहा है। आवश्यकता व्यंग्य को
4-व्यंग्यकार यशवन्त कोठारी से साक्षात्कार ‘व्यंग्य में बहुत रिस्क है।’ इधर जिन युवा रचनाकारों ने प्रदेश से बाहर भी अपनी कलम की पहचान कराई है, उनमें यशवन्त कोठारी अग्रणी हैं। नवभारत टाइम्स, धर्मयुग, हिन्दुस्तान आदि प्रसिद्ध पत्रों में श्री ...Read Moreकी रचनायें सम्मान के साथ छप रही हैं। 3 माई, 1950 को नाथद्वारा में जन्मे श्री कोठारी जयपुर के राश्टीय आयुर्वेद संस्थान में रसायन शास्त्र के प्राध्यापक हैं। व्यंग्य में उनकी पुस्तकें, कुर्सी-सूत्र, हिन्दी की आखिरी किताब, यश का शिकंजा, राजधानी और राजनीति, अकाल और भेडिये, मास्टर का मकान, दफतर में लंच, मैं तो चला इक्कीसवीं सदी में, बाल हास्य
5-साहित्य के शत्रु हैं सत्ता, सम्पत्ति और संस्था डॉ. प्रभाकर माचवे डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने डॉ. माचवे के लिए लिखा है- ‘ श्री प्रभाकर मचवे हिन्दी के उन गिने चुने लेखकों में हैं, जिनकी सरसता ज्ञान की आंच ...Read Moreसूख नहीं गयी।’ वास्तव में डॉ. माचवे सहज-सरल हैं, गुरू गंभीर नहीं। वे एक बहुमुखी भारतीय साहित्कार हैं, केन्द्रीय साहित्य अकादमी के वे सचिव रह चुके हैं। रेडियो, भारतीय भाशा परिशद आदि से जुडे रहे हैं। संप्रति वे इंदौर से प्रकाशित हो रहे दैनिक पत्र चौथा संसार के प्रधान सम्पादक हैं उन्होंने हिन्दी, अंग्रेजी तथा मराठी में लगभग 80 पुस्तकें
6-नाटक दर्शक की जिंदगी की लड़ाई है ! -मुद्राराक्षस मुद्राराक्षस हमेशा से ही विवादास्पद और चर्चित रहे हैं। क्षेत्र चाहे नाटकों का हो या अन्य कोई, वे हमेशा बहस में कूद पड़ते हैं धारा को अपनी ओर मोड़ लेने ...Read Moreक्षमता रखते हैं। उन्होंने संसद का चुनाव भी लड़ा है लगभग 10 नाटकों व 20 अन्य पुस्तकें वे लिख चुके हैं। उनके साथ हुई बातचीत यहां पेश है। मुद्राराक्षस नाम कैसे पड़ा ? मेरा पहले का नाम तो सुभाशचन्द्र ही था। मद्राराक्षस उपनाम शायद 1953 के आसपास डॉ. देवराज के कारण चल पड़ा। उन दिनों में वे ‘युग-चेतना’ निकालते थे।
7-यहां नाटक संस्कार से जुड़ा हुआ नहीं है हमीदुल्ला भारतीय नाट्य आन्दोलन में सृजन व मंचन पक्ष से जुड़ा एक प्रयोगधर्मी नाम है- हमीदुल्ला, जो प्रदेश के बाहर भी जाना पहचाना है। ‘दरिन्दे’, ‘उलझी आकृतिया’, ‘ख्याल ...Read More‘उत्तर उर्वशी’ तथा ‘एक और युद्ध’ उनकी प्रकाशित नाट्य कृतियां है। इसके अलावा आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनके लगभग सौ नाटक अब तक प्रसारित हो चुके हैं, अनेक अखिल भारतीय नाट्य प्रतियोगिताओं में उनके नाटक प्रशंसित, पुरस्कृत हुए हैं। अभी हाल ही में उन्हें पुरस्कृत कर सम्मानित भी किया गया है। आजकल नया क्या लिख रहे हैं ? ‘हरिओम
8-मेरे नाटक व्यवस्था विरोधी हैं। मणि मधुकर मणि मधुकर एक नाम जो हमेशा चर्चित और विवादास्पद रहा। हर विधा में लिखा। खूब लिखा। खूब पुरस्कृत हुए। 1942 में राज्स्थान में जन्में। 1995 में दिल्ली में दिवंगत हुए। इस बीच ...Read Moreउपन्यास, कविताएं, कहानियां जमकर लिखें छपे। 1982 में मेरी उनकी बातचीत इस प्रकार हुई- आपकी प्रिय विधा कौन -सी है ? मेरे सामने असली मुद्दा हमेशा यह रहा है कि मैं कहना क्या चाहता हूं विधा का खयाल बाद में आया है ओर जब आया है तो मैंने चाहा है कि जहां तक हो सके ‘उस’ विधा की रचनात्मक गहराइयों
9-मैं साहित्यकार को तीसरी ऑंख मानता हू -विष्णु प्रभाकर विश्णु प्रभाकर हिन्दी के वरिश्ठ साहित्यकार हैं। पिछले पचास वर्शो से निरन्तर साहित्य साधना करते हुए उन्होंने चालीस से भी अधिक पुस्तकें लिखीं। साहित्य में वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी ...Read Moreनाटक, कहानी, एकांकी, उपन्यास, जीवनी आदि कई विधाओं में उन्होंने समान अधिकार से लेखनी चलाई। ‘आवारा मसीहा’ तो उनकी श्रेश्ठ कृति के रूप में समादृत हुई ही साथ ही उनके अनेक नाटक और एकांकी भी आकाशवाणी और रंगमंच पर काफी लोकप्रिय हुए हैं। 21 जून, 1912 को जन्में, स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी और गांधीवादी लेखकों में प्रमुख श्री प्रभाकर इन
10- शब्द-शिल्पी यशवन्त कोठारी साधारण तीर की अपेक्षा जहरबुझा तीर अधिक प्रहारक होता है, क्योंकि वह दुहरी मार करता है। इसी प्रकार साहित्य में भी दुहरी मार करने वाली एक ही विधा है और वह है व्यंग्य। यही कारण ...Read Moreकि व्यंग्य विधा में लेखक हेतु दो विशिश्टताएं अनिवार्य हैं। इनमें से एक है विसंगतियों का स्पश्टीकरण और दूसरी है टेढ़ा प्रहार करने की क्षमता। यदि किसी रचना में इन दोनों मेंसे एक का भी अभाव है तो वह व्यंग्य विधा में नहीं रखी जा सकती है। यदि विसंगतियां युगीन सत्य को ईमानदारी के साथ प्रकट करे तो टेढ़ा प्रकार
11-अंग्रेजी बनाम हिन्दी बहस पुरानी जरूर है, मगर घटिया नहीं। पिछले दशक में हिन्दी पत्र पत्रिकाओं की प्रसार संख्या अंग्रेजी की तुलना में ज्यादा बढ़ी हैं। लेकिन हिन्दी पत्रकारिता का ग्राफ उनके समानान्तर नहीं चल पा रहा है। आजअनेक ...Read Moreपत्रों में खुशवंत सिंह, जनार्दन ठाकुर, रजनी कोठारी, कुलदीप नैयर आदि के अंग्रेजी लेखों के अनुवाद एक साथ छप रहे हैं। क्या हिन्दी और प्रादेशिक भाशाओं के पत्र अपने खुशवंत सिंह या ठाकुर या रजनी कोठारी नहीं पैदा कर सकते। आज सांस्कृतिक, साहित्यिक तथा कला संबंधी समाचारों के संकलन में संवाद समितियां अंग्रेजी की बाट जाहती हैं और अंग्रेजी संवाददाता
12-ये आकाशवाणी है इक्कीसवीं शताब्दी मंे आकाशवाणी को शब्द हत्या के लिये याद किया जायेगा। शब्द की मृत्यु इस युग की सबसे बड़ी टेजेड़ी है और इस टेजेड़ी में आकाशवाणी ने अपना पूरा योगदान किया है। अपने प्रसारण, कार्यक्रमों ...Read Moreविराट जन समूह, तक पहुंचने की क्षमता के कारण आकाशवाणी शब्द के वर्चस्व को स्थापित कर सकती थी और कुछ वर्शों तक आकाशवाणी ने ऐसा किया भी मगर माध्यम के सरकारीकरण, लालफीताशाही और खोखले नारों के जाल में फंसकर आकाश्वाणी बेईमानी और बकवासों का ऐसा पुलिन्दा बन गई कि न निगलते बने और न ही उगलते। रेडियो हमारे जीवन की
13 यदि प्रधानमंत्री न बनते तो साहित्यकार बनते राजनेता या चिन्तक नेहरू पर बहुत कुछ लिखा गया है मगर साहित्यकार नेहरू के बारे में बहुत कम जानकारी है। 1937 में कलकत्ता के ‘माडर्न रिव्यू’ में चाणक्य उपनाम से ...Read Moreएक रिपोर्ताज में स्वयं के बारे में लिखा था, उसे फिर से देखिए-‘एक विशाल जुलूस, उसकी कार घेर कर नाचते कूदते चिल्लाते हजारों हजार लोग। वह कार की सीट पर अपने को ठीक से संभालते हुए खड़ा होता है-सीधी लम्बी आकृति देव पुरूश जैसी-उमड़ती भीड़ से एकदम असंप्रक्त। अचानक वही एक स्पश्ट हंसी और सारा तनाव जैसे घुल गया और
14-साहित्य की संवेदना साहित्य में जब जब भारतीता की बात उठती है तो यह कहा जाता है कि साहित्य में भारतीयता तलाशना साहित्य को एक संकुचित दायरे में कैद करना है, मगर क्या स्वयं की खोज कभी संकीर्ण हो ...Read Moreहै ? वास्तव में संकीर्णता की बात करना ही संकीर्ण मनोवृत्ति है। सच पूछा जाए तो ‘को अहम्’ अर्थात अपने निज की तलाश ही भारतीयता है और जब यह साहित्य के साथ मिल जाती है तो एक सम्पूर्णता पा जाती है। पश्चिमी साहित्य से आक्रांत होकर जीने के बजाए हमें अपने साहित्य, अपनी संस्कृति से उर्जा ग्रहण करनी चाहिए। वैसे
15-समकालीन साहित्य: सही दिशा की तलाश मुल प्रश्न है, साहित्य क्या है ? आजकल के साहित्यकार दो तरह का लेखन करते हैं। एक वह जो आसानी से पाठक तक पहुंचता है ओर पाठक उसे पढ़ता भी है। दूसरा लेखक ...Read Moreकेवल अभिजात्य वर्ग के लिये लिखा जाता है। इस दूसरे साहित्य के लेखक यह मानते हैं कि अगर इनकी कोई रचना किसी सामान्य पाठक की समझ में आ गयी तो उन्हेांने कुछ घटिया लिख दिया है और तत्काल वे अपना लेखन ‘सुधारने ’ में लग जाते हैं। एक और प्रश्न! क्या अखबारों का पेट भरने के लिये लिखा जाने वाला
16-गाथा कवि सम्मेलनों की पिछले दिनों एक शहर के संयोजक नुमा व्यक्ति का पत्र आया, प्रियवर! दो वर्पो बाद पत्र दे रहा हूं। पिछले वर्प हम कवि सम्मेलन नहीं कर सके। इस बार हमने एक कवियित्री सम्मेलन करना तय ...Read Moreहै। कृपया 8-10 कवयित्रियों के नाम पते भे जें। इनकी ष्शक्ल ठीक ठाक हो। कुछ मंच पर लटके-झटके दिखा सकें। कविता रद्दी हो तो भी चलेगी। गला और चेहरा बढ़िया होना चाहिए। पारिश्रमिक की चिन्ता न करें। स्वस्थ्य होंगे। ‘इसे कल्पना की उड़ान न समझे।’ तो मेरे प्रिय पाठकों। आज के कवि सम्मेलन कितने गिर चुके हैं। देखा आपने। सोचिए.....ष्शायद
17 - हास्य व्यंग्य का बोलवाला आज की स्थिति भिन्न है। हास्य व्यंग्य की सतही रचनाओं के कारण कवि सम्मेलनों की गिरावट हुई है। कवि सम्मेलनों के विकास काल में हास्य व्यंग्यकार मर्यादा का ध्यान रखते थे, इसी काल ...Read Moreपदमश्री गोपाल प्रसाद व्यास और पद्मश्री काका मंच पर अवतरित होकर जम गये और आज तक जमे हुए हैं। लेकिन सन् 60 के बाद वाले दौर में इन हास्य कलाकारों की ऐसी बाढ़ा आई कि सारी मर्यादाएं, सीमाएं,बह गई, रह गई केवल हास्यस्पद रस की चाहें। उन दिनों अश्लील और भेदस रचनाओं को पढ़ना मुश्किल होता था, लेकिन कवि सम्मेलनों
18-फाग का अमर कवि : ईसुरी ळोली का मौसम हो। फाग गाने का मन हो और बुन्देलखण्ड के कवि ईसुरी की याद न आये, यह कैसे संभव है ? जनकवि और बुन्देलखण्ड के ‘कबीर’ ईसुरी के फागों से पूरा, ...Read Moreआधीरात को खिलने वाले बेले की तरह अनुप्रेरित है। ईसुरी का पूरा नाम ईश्वरी प्रसाद था। उनका जन्म 1841 में झांसी जिले के मउरानीपुर के पास के मेढ़की गांव में हुआ। वास्तव में ईसुरी मस्तमौला और रसिक मिजाज के आदमी थे। पढ़े कम गुने ज्यादा यह वह समय था जब प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की तैयारियां जोरों पर थीं तथा उन्मुक्त
19-फिल्में बनाम रंगमंच एम. के. रैना कहते हैं- ‘रंगमंच से फिल्मों में अपनी इच्छा से कोई नहीं आता। ओम श्विपुरी भी भीगी पलकों से फिल्मों में आये थे और कारन्त से आज भी नाटकों का मोह नहीं छूटा। पर ...Read Moreपैसा नहीं हो, सुविधाएं नहीं हों, वहां आदमी कब तक रंगकर्म में जुटा रह सकता है।’ फिल्म संसार और रंगमंचीय दुनिया में आज भी यही कशमकश जारी है। एक तरफ कला, आत्मसन्तुप्टि और ज्ञान है तो दूसरी ओर पैसा, ग्लैमर, सुविधाएं और स्टार बनने के अवसर हैं। आज फिल्मी दुनिया में सर्वाधिक चर्चित वे ही नाम है जो कल तक
20-फिल्मों में हास्य को गंभीरता से क्यों नहीं लिया जाता ? इस तनाव युक्त आधुनिक जीवन में मनोरंजन और हास्य का महत्व अधिक है। एक अजीब समय आया है, हर व्यक्ति भाग दौड़, तनाव में जी रहा है। इससे ...Read Moreहेतु सामान्य आदमी फिल्मों की ओर दौड़ता है और फिल्मों में हास, परिहास और व्यंग्य ढुंढता है। आईये, देखें कि फिल्मों में हास्य का स्तर कैसा है और किन लोगों ने फिल्मी हास्य के चेहरे का संवारा है या बिगाड़ा है। जिन लोगों ने चार्ली चेपलिन की या अन्य विदेशी हास्य फिल्में देखी हैं वे अवश्य ही इनके हास्य के
21-दास्तान फिल्मी गीतों की ‘बैइ जा, बैठ गई......’ ‘खड़ी हो जा, खड़ी हो गई.....’ ‘जीजाजी जीजाजी......’ सूर्योदय के पहले से, देर रात तक किसी भी रेडियो स्टेशन से आप ऐसे फूहड़ और घ्टिया फिल्मी गीत सुन ...Read Moreहैं। कई बार रेडियो बन्द कर देना पड़ता है, लेकिन रेडियो बन्द कर देने से ही समस्या का समाधान नहीं हो जाता है। ये सस्ते फिल्ती गीत हमारे राप्टीय चरित्र और नई पीढ़ी के लिए जहर साबित हो रहे हैं। गीतो की यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति लगभग 20 वर्प पूर्व शुरु हुई, जब फिल्मी गुट ने सभी मानदण्ड ताक पर रखा
22-श्रद्धया दीयते तत् श्राद्धम् हमारे समाज की मान्यता है कि पितृ पक्ष में ही पूर्वजों की आत्माएं धरती पर पुनः अवतरित होती हैं। घर-परिवार के सदस्य इस समय ही उन मृतात्माओं की शांति के लिए पिंडदान तथा तर्पण करते ...Read Moreपिंडदान और तर्पण हमारी संस्कृति का अत्यंत महत्वपूर्ण बिन्दू है। विश्वास है कि पिंडदान और तर्पण से ही आत्मा को मुक्ति मिलती है। ‘श्रद्धया दीयते तत् श्राद्धम्’ सितम्बर के प्रारंभ में ही आश्विन मास का कृप्ण पक्ष आता है जिसे पितरों का पखवाड़ा कहते हैं। इस मास की अमावस्या का सर्वाधिक महत्व है। पूर्वमास की पूर्णिमा से आश्विन की
23-पर्यावरण और भारतीयता भारतीयता सम्पूर्ण रुप से हम सभी को रक्षित करती है। उसमें प्रारम्भ से ही र्प्यावरण को अत्यन्त मुखर स्थान दिया है। हमारी संस्कृति में वृक्ष, पेड़-पौधों, जड़ी बूटियों को देवता माना गया है। पवित्र और देवतुल्य ...Read Moreकी एक लम्बी परम्परा भारतीयता के साथ गुंथी हुई है। भारतीयता किसी व्यक्ति विशेप से नहीं प्रकृति, र्प्यावरण सांस्कृतिक चेतना और सांस्कृतिक विरासत में जुड़ी हुई है। तमाम विविधताओं के बावजूद भारतीयता के रक्षकों, पोपकों ने वृक्षों को पूजने की, उन्हें आदर देने की एक ऐसी परम्परा विकसित की जो भारतीयता में रच बस गयी। घुल मिल गयी। वृक्षों के
24-नटराज के लिए पूरा संसार नाट्यशाला है ! हमारी संस्कृति में मोक्ष जीवन का परम लक्ष्य माना गया है। मोक्ष के लिए शिवरात्रि का ही व्रत पुराण में वर्णित है। वास्तव में यह व्रत देवाधिदेव महादेव की महान् शक्ति ...Read Moreप्रतीक माना गया है। शिव के विभिन्न स्वरुप देश में हैं। शत रुद्र संहिता में शिव की अप्टमूर्तियों के निम्न नाम दिए गए हैं। शर्व, भव, भीम, पशुपति, ईशन, महादेव व रूद्र भगवान शिव को अर्धनारीश्वर तथा भैरव माना गया है। इसी संहिता में शिव के अन्य कतिपय प्रमुख अवतारों का भी वर्णन है। जो इस प्रकार हैं-श्रभ अवतार, गृहपति
25-मारुति -चरित्र भगवान राम के अनन्य भक्त वीर हनुमान को भारतीय पौराणिक चरित्रों में उत्तम पद प्राप्त है हनुमान जी को रुद्र का अवतार माना गया है। हनुमान जी के रोम रोम में राम बसा है। सुन्दर काण्ड में ...Read Moreचरित्र का अदभुत वर्णन है। हनुमान जी का जन्म मॉं अन्जना की कोख से हुआ है। उनके पिता केसरी है। वाल्मिकी रामायण किसकिन्धा काण्ड के अनुसार एक बार मां अन्जना ने अद्भुत श्रृंगार किया।पीली साड़ी में उनकी शोभा अपरम्पार थी। वे पहाड़ पर चढ़कर प्रकृति को नीहार रही थी, उसी समय उनके मन में एक सुयोग्य पुत्र प्राप्ति की इच्छा
26-मध्ययुगीन तहजीब का प्रतीक-हुक्का सामन्तवादी विरासत हुक्का अब बीते दिनों की बात रह गयी है। तम्बाकू का रूप बीड़ी, सिगरेट हो गया है, लेकिन हुक्का महज तम्बाकू पीने का उपकरण नहीं था,एक पूरी जिन्दगी होता था हुक्का हजूर। हूक्का ...Read Moreपरम्परा और संस्कृति का प्रतिक हुआ करता था। एक कहावत प्रसिद्ध है कि सजा देने के लिए हुक्का पानी बन्द। आज भी किसी व्यक्ति की सबसे बड़ी सजा हूक्कापानी बन्द ही है। वास्तव में हुक्के, हुक्कमरानों, राजों, महाराजों, अमीर उमरावों, रंगीन रानियों बादशाहों की बैठकों और जनानी ड्योढ़ियों से जुड़े रहे हैं। लेकिन साहब वो हुक्का ही क्या जो गरीब
27-मानव हाथों से बने देवी-देवता सफेद और काले हल्के पीले और गुलाबी, रंगीन और सादे, पारदर्शी या इन्द्रधनुषी, अनगिनत रंगों में कलात्मक मूर्तियां पत्थरों की। जयपुर मूर्ति उद्योग विश्व-विख्यात हैं। हजारों लाखों की संख्या में ये मूर्तियां प्रतिवर्ष देश ...Read Moreके हजारों मंदिरों में प्रतिष्ठित होकर श्रद्धा से पूजी जाती है। इनकी अर्चना की जाती है। मन्नतें मानी जाती है। मूर्ति बनाने के आरंभ से ही मनुष्य के मुख्यतः दो उद्देश्य रहे है। एक तो किसी स्मृति को या अतीत को जीवित बनाये रखना, दूसरे अमूर्त को मूर्त रूप देकर व्यक्त कर अपना भाव प्रकट करना। यदि पूरे संसार की