कुमार किशन कीर्ति

कुमार किशन कीर्ति

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युवा लेखक,बिहार

कविता..…

एक दिन जब मैंने
खिड़की से झांका।
खिली-खिली धूप को
मुस्कुराते पाया।
मंद-मंद बहती हवा
धीरे से मेरे कानों में बोली।
"क्यों खामोश लब है तुम्हारे,
क्यों हँसी दूर है तुमसे?"
मैं बस,खामोश रहा
मेरा अंतर्मन खामोश रहा।
तभी गुनगुनाते भौरों ने कहा
"क्यों खामोश लब है तुम्हारे
गुनगुनाओ तुम भी हमारी तरह।"
इसी बीच धूप ने कहा,
"अब तो मुस्कुराओ।"
उड़ती तितलियों ने कहा
"अब तो खुशी के गीत गाओ।"
सुनकर सभी की बातें
मैं कवि मुस्कुराया।
सच कहता हूँ....
जीवन का सही अर्थ मैं तभी
समझ पाया।
:कुमार किशन कीर्ति
गोपालगंज(बिहार)

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