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ओएनजीसी में कार्य किया। कुमायूँ विश्वविद्यालय नैनीताल(डीएसबी,महाविद्यालय नैनीताल) से शिक्षा प्राप्त की(बी.एसी. और एम. एसी.(रसायन विज्ञान)।विद्यालय शिक्षा-खजुरानी,जालली,जौरासी और राजकीय इण्टर कालेज अल्मोड़ा में।"दिनमान","कादम्बिनी" गुजरात वैभव,राष्ट्र वीणा(गुजरात) तथा अन्य पत्र-पत्रिकाओं में रचनायें प्रकाशित। 7 काव्य संग्रह प्रकाशित। बचपन में गाँव का जीवन जिया और खूब उल्लास से। धनबाद,कलकत्ता,शिवसागर,अहमदाबाद,जोरहट में कार्य किया।
मेरे प्यार का जंगल घना था पर उस वन में पतझड़ बड़ा था।...
माँ को खेतों से बेहद प्यार था, चिलचिलाती धूप में मूसलाधार बारिश में झड़ों के दिनों में खेतों में दिखती थी। माँ को खेतों से अद्भुत प्यार था, वैसा ही जैसा उसे अपने बच्चों से था। वह समय की तरह थी खेतों का विज्ञान जानती थी, जब तक स्वस्थ थी कभी नहीं थकती थी। हर खेत का हिसाब रखती थी लम्बे-चौड़े करोबार की हिम्मत थी। माँ अद्भुत थी अपने बच्चों की राह बहुत दूर तक देखा करती थी। वह पहाड़ सी होगी आकाश तक पहुँची बर्फ से ढकी नदियों सी बहती हुई। माँ जब तक स्वस्थ थी कभी नहीं थकती थी। * महेश रौतेला *** 08-05-2016**
हमने अपनी बातों से प्रभात लिया,इतिहास लिया, जब तक चलने को मन था स्वर्णिम अपना इतिहास किया। कुछ तो है इस मिट्टी में जो गौरव का पर्याय बना, जहाँ-जहाँ भी लेटा है मन देवत्व भाव अटूट बना। जिस तीर्थ पर होता हूँ वह कुछ बोल अनमोल कहा स्नेहभक्ति इस जीवन में किसी कारण अराध्य हुआ। * महेश रौतेला
प्रजातंत्र बरगद की तरह खड़ा गालियां, गलबहियाँ झूले की तरह पड़ी गणतंत्र को करतीं हैं पीला, हर टहनी पर भूतों का डेरा हर शाखा पर चोरों का कबीला जन-गण के मस्तक पर प्यास-पसीना, पर छत्ते पर मधुमक्खियों का घेरा दूर-दूर तक घना अंधेरा लेकिन बरगद पर है हमें भरोसा । * महेश रौतेला ०३.०५.२०१४
बात रूखी ही सही, हो तो सही प्यार आधा ही सही,मिले तो सही। * महेश रौतेला
पृथ्वी दिवस की शुभकामनाएं पृथ्वी इधर भी है पृथ्वी उधर भी है, शुभ्रता के शिखर पर वह हमारा पता भी है। वृक्ष उसके हृदय हैं जल उसका लहू है, उसकी आत्मा की अमरता के हम सजीव संकल्प हैं। * महेश रौतेला
हमारे गांव की गूल में पानी पहले से कम रहता है नदी पहले जैसा शोर नहीं करती है, पहाड़ पहले जैसे ऊँचे हैं पर वृक्ष पहले से कम हो चुके हैं। पुराने लोग कहते थे पहले जहाँ बाँज के पेड़ थे वहाँ चीड़ उग आया है, जहाँ बाघ दिखते थे वहाँ सियार आ गये हैं। प्यार के लिये नया शब्द नहीं आया है, चिट्ठी के अन्त में लिखा जाता था" सस्नेह तुम्हारा" अब बस केवल संदेश होते हैं, संदेशों में चिट्ठी की सी मिठास नहीं अखबारों सी खबर आती है या फिर चैनलों के शिकार हैं, पर ये कभी कभी मीठी चाय से उबलते हमारी ईहा बन जाते हैं। पुरानी कथाओं में अब भी रस है जैसे राम वनवास को जा रहे हैं कृष्ण महाभारत में हैं, भीष्म प्रतिज्ञा कर चुके हैं परीक्षित को श्राप मिल गया है, ययाति फिर जवान हो गये हैं शकुन्तला की अंगूठी खो गयी है, सावित्री से यमराज हार चुके हैं। **महेश रौतेला २१.०४.२०२१
एक चित्र अपना भेज देना उन आँखों का जहाँ स्नेह सुरसुराता था, उन कानों का जिनसे प्यार सुना जाता था।
मुझे भी एक बोधिवृक्ष मिल जाय जिसके नीचे मैं, सत्य-अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह आदि पर मनन-चिन्तन कर, मोक्ष का पात्र बन जाऊँ, मेरी ईहा, मेरा ज्ञान, कर्मशील बन मुस्करा दे हँस दे, सारनाथ से नहीं, तो कहीं और से स्नेह-दया उडेल दे । **** * महेश रौतेला
तेरे घर की तस्वीर देख सीढ़ियां चढ़ने लगा , मैं हवाओं को बदल सुगंध में बहने लगा , पर्वतों के बहाने सही ऊँचाइयों में जाने लगा, आदमी की सच्चाई से मन को समझाने लगा , अच्छाई और बुराई से कहाँ-कहाँ मिलने लगा , मैं सत्यार्थ एक प्रकाश को पल-पल चाहने लगा । * महेश रौतेला
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