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नफ़रत का चाबुक प्रेम की पोशाक - Novels
by Sunita Bishnolia
in
Hindi Love Stories
पूरे मोहल्ले में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं था जो 'म्माली' काकी को जानता नहीं था या उनसे बातचीत नहीं थी। मैं समझने लगी तब उनकी उम्र पचास -पचपन की रही होगी।
नाटा कद, तीखे नयन-नख्श और गेहुंआ रंग। दोनों हाथों में चांदी के एक-एक कड़े कड़े । जिन्हें देख-देख जिया करती थी काकी मैंने कभी ना उन कड़ों को हाथ से उतारते देखा ना कभी बदलते । कुर्ती-कांचली और घेरदार घाघरे पर सदा हल्के रंग की ओढ़़नी उन पर खूब फबती थी।
तेल पिला-पिलाकर चूं-चर्र की आवाज करती चमकती हुई जूतियां पहनकर जिधर से भी वो निकलती उनके सम्मान में लोग हाथ जोड़ दिया करते । उम्र के इस दौर में भी जब वो हँस दिया करती तो सबको बाँध लेती थी अपने आकर्षण में ।
सुबह आठ बजे तक घर के सारे काम निपटा लेती और जैसे ही ‘बन्ने खाँ’ को आवाज लगाती, बन्ने खां भी हिनहिना उठता। बन्ने खां को तांगे से जोतकर माली काकी हाथ में हंटर लेकर बैठ जाती तांगे की ड्राइविंग सीट पर और निकल पड़ती सवारी को हाँक लगाती।
सुबह आठ बजे की घर से निकली माली काकी दोपहर को साढ़े-बारह-एक बजे स्कूल के बच्चों की फिक्स सवारियों को घर छोड़ते हुए आती अपने घर।
घर आते ही बीमार बेटे को खाना खिलाती और थोड़ी देर आराम करके तीन साढ़े तीन बजे तक फिर निकल जाती रेलवे स्टेशन की तरफ जहाँ बाहर से आए यात्रियों को मंजिल तक पहुँचाती। स्टेशन पर दो तीन फेरों के बाद साढ़े छह-सात बजे के बीच वापस घर आ जाती और बीमार बेटे को संभालती ।
नफ़रत का चाबुक प्रेम की पोशाक पूरे मोहल्ले में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं था जो 'म्माली' काकी को जानता नहीं था या उनसे बातचीत नहीं थी। मैं समझने लगी तब उनकी उम्र पचास -पचपन की रही होगी। नाटा कद, ...Read Moreनयन-नख्श और गेहुंआ रंग। दोनों हाथों में चांदी के एक-एक कड़े कड़े । जिन्हें देख-देख जिया करती थी काकी मैंने कभी ना उन कड़ों को हाथ से उतारते देखा ना कभी बदलते । कुर्ती-कांचली और घेरदार घाघरे पर सदा हल्के रंग की ओढ़़नी उन पर खूब फबती थी। तेल पिला-पिलाकर चूं-चर्र की आवाज करती चमकती हुई जूतियां पहनकर जिधर से
माली काकी ने अपने घर के बाहर एक घंटी टांग रखी थी और एक रस्सी से उसे बांध रखा था रस्सी का दूसरा छोर उसने बेटे की खाट से बांध रखा था ताकि जरूरत पड़ने पर वो उसे खींच ...Read Moreघंटी बजा दे। उसका बेटा यों तो लगभग तीस साल का था परन्तु दिमाग बच्चों की तरह था। वह ठीक से बोल नहीं पाता था और चल भी नहीं पाता। एक खाट पर ही लेटा रहता था। बहुत ही कम बार ऐसा हुआ कि उसने उस घंटी को बजाया हो। वो बहुत समझदार बच्चे की तरह उस खाट पर सोया
कमरे के अन्दर लाने से पहले माली काकी उसके हाथ पैर अच्छी तरह से धोती थी। पड़ौस के लड़के भी इतने सब्र वाले थे कि वो उसके सारे काम होने तक वहीं रहते और उसे बिस्तर पर सुलाकर ही ...Read Moreआते। वो सारे बच्चों के लिए कभी बेर, कभी भुने चने, कभी इमली तो कभी चूर्ण की गोलियाँ लेकर आया करती थी। सारे बच्चे अपने अपने हिस्से की चीज़ लेकर ही वापस आते थे। लड़कों के जाने के बाद उसे भी कुछ ना कुछ खिला देती और कुछ देर बेटे के सिर पर हाथ फेर कर माथा चूमती थी और
"मुझे छोड़ गए बालम..! " विरह-वेदना की तड़प, उनके कंठों से निकले इस गीत में करूण पुकार खुद सुना जाती दास्तान प्रियतम के धोखे की । वो तड़प, वो सिसकियाँ सुनकर मोहल्ले भर की औरतें उस ओर खिंची चली ...Read Moreउनके गीतों में डूबकर वो भूल जाती कि वो काकी के दुख तकलीफ को बांटने आईं हैं और सभी महिलाएं काकी का संबल बनने की बजाय बैठ जाती उनके चारों ओर गीत सुनने । औरतें ही नहीं वरन मोहल्ले भर की लडकियाँ भी मंत्रमुग्ध हो सुनती थी काकी के गीत। आसपास बैठी औरतों की उपस्थिति से अनजान दीवार पर टंगी
काका की बात बताते समय उनके चेहरे पर दुख या पीड़ा का कोई भाव नहीं होता। वो तो भावों में बहती हुई डूब जाती थी पुराने दिनों में और बताती - "थारे काका खूब चाहते थे मैंने। कोई ना ...Read Moreबहाना सूं राणी सा री बग्घी रोज म्हारै घर रै सामणै रोकता था ।" हम लड़कियाँ भी कम नहीं थी हम भी पूछ बैठते -‘‘अच्छा..! काकी, काका आप के घर के सामने से रोज निकलते तो क्या आप भी उन्हें देखने के लिए बाहर आती थी।’’ हमारी बात सुनकर काकी शर्म से लाल हो जाती और कहती- ‘‘धत् छोरियों थारा