सठिया गयी हो

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घर मोहल्ले की घुटन भरे वातावरण से निकलकर व्यक्ति पार्क में जाकर कुछ ताज़ी हवा खाता है लेकिन कुछ लोग अपनी प्रवृत्ति के वशीभूत होकर ताज़ी हवा में भी अपने मन मुताबिक दूषित वातावरण अनायास ही तैयार कर लेंते हैं लोग अपने ही बनाये जाल में फंसते जाते हैं कई लोग माहौल-वातावरण के बदलाव होते ही धीरे-धीरे बदल जाते हैं, तो कई लोग अपने ही विचारों के मकड़जाल में जकड़तें जाते हैं कभी-कभी अपने उन्हीं विचारों के इर्द-गिर्द ख्याली स्वादहीन पुलाव तो कभी तीखापन लिए पुलाव पकाते रहते हैं इस कहानी की नायिका भी कुछ ऐसा ही पुलाव अपने आसपास पकाती रहती है उसका पति क्रोधित नहीं होता क्योंकि वह जनता है कि उसकी पत्नी थोड़ी देर भले भटके लेकिन नेक राह पर लौट आती है यहाँ इस कहानी में एक अकेली गर्भवती स्त्री को देखकर उसके अतीत-वर्तमान-भविष्य की सारी तस्वीरें अपने मन में बनाती जाती है लेकिन वातावरण का असर होते ही वह सचेत हो जाती है उसके किन विचारों के कारण उसका पति उसे अक्सर सठिया गयी हो कहता रहता था यह जानने के लिए पढ़िए -- सठिया गयी हो