एक दिन मियाँ आजाद साँड़नी पर सवार हो घूमने निकले, तो एक थिएटर में जा पहुँचे। सैलानी आदमी तो थे ही, थिएटर देखने लगे, तो वक्त का खयाल ही न रहा। थिएटर बंद हुआ, तो बारह बज गए थे। घर पहुँचना मुश्किल था। सोचे, आत रात को सराय ही में पड़ रहें। सोए, तो घोड़े बेचकर। भठियारी ने आ कर जगाया - अजी, उठो, आज तो जैसे घोड़े बेच कर सोए हो! ऐ लो, वह आठ का गजर बजा। अँगड़ाइयों पर अँगड़ाइयाँ ले रहे हैं, मगर उठने का नाम नहीं लेते।