राजर्षि - 2

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बारहवाँ परिच्छेद जयसिंह उसके अगले दिन मंदिर में लौट कर आया। अब तक पूजा का समय निकल चुका है। रघुपति दुखी चेहरा लिए अकेला बैठा है। इसके पहले कभी ऐसा नियम भंग नहीं हुआ था। जयसिंह गुरु के निकट न जाकर अपने बगीचे में चला गया। अपने पेड़-पौधों के बीच जाकर बैठ गया। वे उसके चारों ओर काँपने लगे, दोलायमान होने लगे, छाया नचाने लगे। उसके चारों ओर है, पुष्प खचित पल्लवों की सतह, श्यामल सतह के ऊपर सतह, छाया भरे सुकोमल स्नेह का आच्छादन, सुमधुर आह्वान, प्रकृति का प्रीतिपूर्ण आलिंगन। यहाँ सभी प्रतीक्षा करते हैं, कोई बात पूछता नहीं, भावना में व्याघात उत्पन्न नहीं करता, माँगने पर ही माँगता है, बात करने पर ही बात करता है। इस नीरव श्रवणेच्छा के वातावरण में, प्रकृति के इस अंत:पुर में बैठ कर जयसिंह सोचने लगा। राजा ने उसे जो सीख दी है, मन-ही-मन उस पर विचार करने लगा।