चोखेर बाली - 6

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रात को जब उसे पटलडाँगा के डेरे पर छोड़कर महेन्द्र अपने कपड़े और किताबें लाने घर चला गया, तो कलकत्ता के अविश्राम जन-स्रोत की हलचल में अकेली बैठी विनोदिनी अपनी बात सोचने लगी। दुनिया में पनाह की जगह काफी तो उसे कभी भी न थी, इतनी ज़रूर थी कि अगर एक ओर गरम हो जाए, तो दूसरी तरफ करवट बदलकर सो सके। आज लेकिन निर्भर करने की जगह निहायत सँकरी हो गई थी। जिस नाव पर सवार होकर वह प्रवाह में बह चली है, उसके दाएँ-बाएँ किसी भी तरफ ज़रा झुक जाने से पानी में गिर पड़ने की नौबत। लिहाज़ा बड़ी सावधानी से पतवार पकड़नी थी- ज़रा-सी चूक, ज़रा-सा हिलना-डुलना भी मुहाल। ऐसी हालत में भला किस औरत का कलेजा नहीं काँपता। पराये मन को मुट्ठी में रखने के लिए जिस चुहल की जरूरत है, जितनी ओट चाहिए, इस सँकरेपन में उसकी गुंजाइश कहाँ! महेन्द्र के एकबारगी आमने-सामने रहकर सारी जिंदगी बितानी पड़ेगी। फर्क इतना ही है कि महेन्द्र के किनारे लगने की गुंजाइश है, विनोदिनी के लिए वह भी नहीं।