तपते जेठ मे गुलमोहर जैसा - 8

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सुविज्ञ जब फ्रेश होकर आया तो नीरु और अप्पी तैयार थीं..... अप्पी उसी साड़ी में थी... ऊपर से शाॅल ओढा हुआ था उसने! चाय पीते हुए फिर वही बातें..... अप्पी खामोश पर भीतर की कलथन का क्या करे...... मन हो रहा था सुविज्ञ को पकड़ कर रो पड़े ..... न जाने दे उसे कहीं..... चेहरे पर जैसे सबकुछ हृदय का आकर लिख गया था..... बाँच मन की सारी बात..... अभी कुछ क्षण पहले तक कुछ कीमती खो देने के एहसास से भरी तड़प के बाबजूद जो आत्मविश्वास, ऊँचाई, धैर्य...... उसके पोर-पोर में एक उजास की तरह व्याप्त था..... अब उसकी जगह निहायत बेचारगी सिमट आई थी। उसने अपने दोनो हांथों को शाॅल के भीतर यूूँ समेट रखा था ज्यूँ अपने दर्द को समेट रखा हो।