बाबूजी का चश्मा

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बाबूजी का चश्मा प्रेम गुप्ता ‘मानी’ सुबह के नौ बजे थे। आलोक ऑफ़िस चले गए थे और आशू कॉलेज...। मैं खाली होकर सोच रही थी कि आज घर के कुछ एक्स्ट्रा काम निपटाऊँगी। कई महीनों से टाँड़ पर रखे बर्तनों को नहीं देखा। उनकी साफ़-सफ़ाई करके जो पुराने और बेकार होंगे, उन्हें बेचने के लिए अलग रख दूँगी। बेकार सामान घर में रख कर काम का बोझ बढ़ाना ही होता है। नवीन मार्केट का कुमार बर्तनवाला पुराने बर्तनों के भी अच्छे दाम लगा देता है...। इसके अलावा बरामदे के एक कोने में रद्दी अख़बारों का