फ़तह

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जिग्ना रोज़ की तरह बालकनी में सुबह की चाय पीने के बाद अख़बार पढ़ती है, ऎसे में आस पास के गमलों के छोटे पौधे व हरी भरी मनी प्लांट की बेल से लिपटकर तिरते हुए ताज़ी हवा के झोंकों का उसके गाल सहलाते हुए बहना उसे बहुत अच्छा लगता है. ---वह साँस रोककर एक समाचार पढ़ती जा रही है----- --उसका हाथ कंपकंपाता जा रहा है ---साँस तेज़ होती जा रही है ---वह कैसे सब कर सकी ?----किन लोगों का उसको भरपूर साथ मिला था ---ऎसा तो सदियों पहले ये हो जाना था लेकन ज़रूरी नहीं है कि जो ज़रूरी हो वह हो ही जाएँ. मुँह खोलने की हिम्मत तो बहुतों ने की होगी लेकिन उनका मुँह घावों से भर दिया होगा या वह 'पागल 'या' चुड़ैल 'करार कर दी गई होंगी----- बीती हुई सदियों की चादर कितनी अनजानी स्त्रियों के टपके खून के धब्बों से बढ़ रंग की जाती रही होंगी ---कौन जाने.