गों...गों...गों...

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घर से यहाँ तक के सारे सफ़र और यहाँ बस से उतरकर नाना के गाँव की पगडण्डी पर पैदल चलते हुए लगातार यही लगता कि अभी कहीं से कोई परिचित व्यक्ति निकलेगा और मेरे कंधे पर पीछे से हाथ रख देगा। सड़क से नाना के गाँव तक चार किलोमीटर की यह दूरी मैंने कई बार तय की थी पर आज तो जैसे यह सड़क इलास्टिक की तरह लम्बी और लम्बी होती जा रही है। क्या कभी सड़क भी इलास्टिक की तरह लम्बी–छोटी हो सकती है।