तक्सीम - 1

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ये शहर भी अजीब हैं न अनोखे? लाख गाली दे दिया करें रोज मैं और तू इन्हें पर इनके बिना तेरे-मेरे जैसों का कोई गुजारा है बोल? कितने साल बीत गए हम दोनों को यहां आए। अब तो ये ही दूसरा घर बन गया है हमारा। हम रहते यहीं हैं, कमाते-खाते यहीं, यारी-दोस्तियां भी अब तो यहीं हैं बस एक परिवार ही तो गांव में हैं। याद है न तुझे शुरू-शुरू में मन कैसा तड़पता था कि थोड़े पैसे जोड़ें और भाग लें अपने गांव। कुछ भी न सुहाता था मुझे तो यहां का। आज से कई साल पहले जब आया था तो कुंवारा था। होगा कोई सोलेह-सत्रह का। बस पूछ न ऐसा लगता था कि कोई रेला बह रहा हो शहर में। रेला भी कैसा कि बस सब एक-दूसरे को बिना पहचाने भागे जा रहे हों। हर समय अम्मी का चेहरा याद आया करता और खाने के नाम पे रूलाई छूट जाती। एक कमरे में चार-पांच हम लड़के। न कायदे का बिछौना, न खाना। पांच लोगों के कपड़ों-बर्तनों से ठुंसा एक जरा-सा कमरा। मजबूरी जो न कराए थोड़ा। गंदी- सी बस्ती, बजबजाती नालियां। अब तो फिर भी मोटर की सुविधा हो गयी है नहीं तो पहले दो-एक नल। बस... वहीं नहाना, पानी भरना। मार तमाम गंदगी और शोर-शराबा, आए दिन के लड़ाई -झगड़े।’’