बिराज बहू - 13

(21)
  • 9.9k
  • 2
  • 3.8k

वैसे बिराज का मर जाना ही ठीक था, पर वह मरी नहीं। कई दनों से भूख और दु:ख-दर्द से आहत थी। अपमान की चोटों से उसका दुर्बल मस्तिष्क खराब हो गया। उसी रात मरने के चन्द क्षणों पूर्व उसने दूसरी राह पर अपने कदम बढ़ा दिए। मौत का इरादा करके वह अपने हाथ-पांव बांध रही थी, तभी बजली चमकी। भयभीत होकर उसने सिर उठाया। तेज रोशनी में नदी के पार घाट पर बनाए हुए मचान पर उसकी दृष्टि पड़ गई। लगा जैसे वह उसकी प्रतीक्षा में आँखें फाड़े हुए है। मानो उससे चार नजर हो गए हों और उसे बुला रहे हों। अचानक बिराज गरज उठी- “वे साधु-महात्मा तो मेरे हाथ का पानी नहीं पीएंगे, पर यह पापी तो पीएगा, ठीक है।”