लोहा और आग़... और वे…

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लोहा और आग़... और वे… (कवि केदारनाथ सिंह के लिए, सादर) कैलाश बनवासी वह दिसम्बर के आख़िरी दिनों की एक शाम थी. डूबते सूरज का सुनहला आलोक धरती पर बिखरा पड़ा था. यों तो शाम हर जगह की बहुत खूबसूरत होती है, किन्तु यदि आप भिलाई की सड़कों पर हुए तो क्या बात है! यहाँ, यदि आप स्कूटर पर भी हुए तो यहाँ की साफ-सुथरी सड़कें, सड़क के किनारों के हरे-भरे पेड़ और एक मनचाहा खुलापन और शांति – ये सब आपका मन इस कदर मोह लेंगी की आपकी इच्छा यहाँ साइकिल चलते हुए घूमने की हो जाएगी. यही बात