जूठन

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कहानी - जूठनकभी-कभी जीवन में इतने उतार -चढ़ाव दिखाई देते हैं, लगता है जैसे गमों का सारा समंदर ही, भीतर समा गया हो। कभी उथला, कभी गहरा जैसा भी हो, चुभन का दर्द गहराता ही जाता है, और मायूसी यदा -कदा उगने लगती है, बिल्कुल कटीली झाड़ की तरह। भीतर कुछ टूटता- फूटता है मगर स्थाई नहीं होता। थोड़े से आश्वासन का मरहम उसे जोड़ देता है। क्यों चटखता है कुछ? क्या बजह इतनी विशाल होती है जो उसे क्षीण कर देती है? या इतनी कमजोर की मरहम से भर जाती है। ऐसे चन्द सवाल हैं जो दिमाग में कौधँते