खेमा

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खेमा बाबा के संग पहली बार किस्सा खड़ा तो किया था मैंने उन्नीस सौ पैंसठ में मगर उसकी तीक्ष्णता आज भी मेरे अन्दर हाथ-पैर मारती है और लंबे डग भर कर मैं समय लांघ जाता हूँ... लांघ रहा हूँ... “कलाई और कंधे वाली बात याद है न?” हमारे पुराने घर की खाने की कुर्सी पर बाबा बैठे हैं। अपनी दाहिनी कुहनी मेज पर टिकाये। पेट मेज के निकट चिपकाये। दांये कुल्हे और पैर को आगे बढ़ाये। मेरे संग बाँह की कुश्ती करने को आतुर। “याद है न? तुम्हारी और मेरी कलाई का एक-दूसरे से संपर्क छूटना नहीं चाहिये। तुम्हारे कंधे