जमा-मनफ़ी

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जमा-मनफ़ी पपा के दफ़्तर पहुँचते-पहुँचते मुझे चार बज जाते हैं| वे अपने ड्राइंगरूम एरिया के कम्प्यूटर पर बैठे हैं| अपनी निजी सेक्रेटरी, रम्भा के साथ| दोनों खिलखिला रहे हैं| “रम्भा से आज कुछ भी ठग लो,” मुझे देखते ही पपा अपनी कम्प्यूटर वाली कुर्सी से उठकर मुझे अपने अंक में ले लेते हैं, “इसने अभी कुछ देर पहले ५०,००० रुपए बनाए हैं.....” “कैसे?” उनके आलिंगन के प्रति मैं विरक्त हो उठती हूँ| पहले की तरह उसके उत्तर में अपनी गाल उनकी गाल पर नहीं जा टिकाती| “शेयर्स से| सुबह जो शेयर ख़रीदे थे उनकी कीमत तीन बजे तक पांच गुणा