काफिर तमन्नाएं

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काफिर तमन्नाएं मै अमीरनबाई हूँ। उम्र यही कोई 80-85। वक्त के चढ़ाव-उतार खूब देखती रही हूँ। कभी अशरफियों की मलिका थी। आज फुटपाथ पे अमरूद लगाती हूँ। चंद सिक्कों की कमाई पर जिंदगी धकेल रही हूँ। मेरी पीढ़ी के बचे कुचे लोग ही रह गए हैं इस शहर में जिनका अता पता नहीं है। झिलमिल आँखों से मैं इस बदलती बदरंग दुनिया का तिलस्म टटोलती रहती हूँ। पर कुछ साफ नजर नहीं आता। अपनी बिरादरी की दूसरी-तीसरी पीढ़ी भी नजर नहीं आती कहीं। यदा-कदा कुछ नव-उम्र पेशा करने वाली लड़कियाँ दिख जाती हैं। मगर पहचान में नहीं आतीं। वो तो