तन्हाईयाँ

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तन्हाईयाँ जैसे ही उन्होंने व्हिस्की के पैग को हलक़ में उंडेला, व्हिस्की खिलखिला उठी- ‘‘पी डालूंगी ढक्कन को! जनबूझ के हमसे पंगा ले रहा है। खंजड़ न कर दूं तब कहना....पी...डालूंगी‘‘ पैग खाली हो गया। वह सूनी पथराई दृष्टि से कैफे के बाकी कोनों को घूरते रहे फिर सिगरेट सुलगाई, सिगरेट तमतमाई, फिर मुस्कुराई- ‘‘जला के राख कर दूंगी, फिर मत कहना हाँ‘‘ किंतु कौन किसकी सुनता है? बड़े बाबू या मोहन बाबू धुंए के धक्कड़ फेंकने लगे। कभी मुँह से कभी नाक से और आंखों में मिर्च की तुर्शी घुलती रहीं। सयास, सामने एक विस्मृत विगत पछाड़ खाने लगा