तमाशा.

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तमाशा (कहानी - पंकज सुबीर) नमस्कार, कोई सम्बोधन इसलिये नहीं दे रहीं हूँ क्योंकि आपके लिये मेरे पास कोई सम्बोधन है ही नहीं। जब अपने चारों तरफ नज़र दौड़ाती हूं तो पाती हूं कि वे सभी जो मेरे आस पास हैं उनके लिये मेरे पास एक उचित सम्बोधन भी है किन्तु आपके लिये ...? आपके लिये तो मेरे पास कुछ भी नहीं है, न भावनाएँ और ना ही सम्बोधन। वैसे अगर रिश्तों की परिभाषाओं के मान से देखा जाए तो आपके और मेरे बीच में भी एक सूत्र जुड़ा है मगर मैं उस सूत्र को नहीं मानती इसीलिये ये पत्र