विकासवाद

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विकासवाद गांव अपने स्वाभाविक सुरमईपन में घुल रहा था। खलिहानों से खेत की मेड़ों तक धीमे-धीमें उस अंधेरे में लोटम लोट हो रहे थे। खिलंदड़े बच्चे चिंहुंक चिंहुंक यहां वहां दौड़ लगाए थे। कोई तरफ बिसातिन अपने आठ साल के लड़के को पुकार रही थी- ‘‘रे बिरजुआ चल तनि खाना खाई ले, कत्ता उलरिहय रिये....‘‘ तीसरी बार हांक लगाने पर बिरजू प्रकट हो गया। बिसातिन उसका हाथ पकड़ के घर ले गई और चैके पर बैठा दिया। फिर खाना परोस के ले आई। बिरजू खाना खाने लगा। वह बिरजू के सिर पे बड़े नेह से हाथ फेरे जा रही थी।