तुम्हारी नन्दिनी!

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तुम्हारी नन्दिनी! नन्दिनी! ....हाँ वही थी तीस साल बाद अचानक उसे देखकर मेरे दिल की धड़कने बढ़ गईं थीं। कभी एक-दूसरे के साथ जीने-मरने की कसमें खायीं थीं हमने। हडबडाती सी वह सामने से चली आ रही थी। प्लेन में केवल मेरे बगल वाली सीट ही खाली थी ज़ाहिर सी बात थी वो वहीं बैठती। मैं ज़बरन अख़बार में आँखे गड़ाये बैठा रहा। विंडो सीट पर निशा पसरी हुई थी। कॉलेज में नन्दिनी के साथ अकेले वक्त बिताने की चाह में जिस निशा से पीछा छुड़ाने के लिए मैं कई तरह के झूठ बोला करता था वही निशा मेरी पत्नी