तीन-तेरह

  • 2k
  • 720

तीन-तेरह ‘हर्षा देवी नहीं रहीं’ कस्बापुर की मेरी एक पुरानी परिचिता की इस सूचना ने असामान्य रूप से मुझे आज आन्दोलित कर दिया है। हर्षा देवी से मैं केवल एक ही बार मिली थी किन्तु विचित्र उनके छद्मावरण ने उन्हें मेरी स्मृति में स्थायी रूप से उतार दिया था। पुश्तैनी अपने प्रतिवेश तथा पालन-पोषण द्वारा विकसित हुए अपने सत्व की प्रतिकृति को समाज में जीवित रखने के निमित्त उनके लीला रूपक एक ओर यदि हास्यास्पद थे तो दूसरी ओर करुणास्पद भी। पन्द्रह वर्ष पूर्व प्रादेशिक चिकित्सा सेवा के अन्तर्गत मेरी पहली नियुक्ति कस्बापुर के सरकारी अस्पताल में हुई थी और