चिरनिद्रा

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चिरनिद्रा हरे रामा हरे कृष्णा हरे कृष्णा हरे रामा, हरे कृष्णा हर रामा हरे कृष्णा हरे रामा । मैं आहिस्ता -आहिस्ता सुरमयी सुबह के इन सुरों की डोर में बंध रही थी... उड़ रही थी दूर तक फैले गहरे नीले क्षितिज में ... मेरे आसपास अनगिनत खुशबुएँ तैरने लगी थीं ... मेरे नेत्र मुँद रहे थे और मैं अपने शरीर के बोध से अनभिज्ञ थी ... स्थान और समय के बोध से भी अनभिज्ञ ...बस कुछ तरंगें और मैं... इसके अतिरिक्त कुछ नहीं। इन तरंगों के वशीभूत होती मैं .. इन तरंगों की पीठ पर सवार मैं एक मन्त्र हो