नश्तर खामोशियों के - 1

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नश्तर खामोशियों के शैलेंद्र शर्मा 1. बार-बार उमड़ आते उफान से मेरी आँखें गीली हो जाती थीं. और सच, मैं इतने दिनों बाद महसूस कर रही थी कि मैं अभी भी पत्थर नहीं हुई हूँ...मगर कैसी अजीब और कष्टदायक थी यह अनुभूति! सारा वातावरण उमस से भर आया था. एक तो वैसे ही डिसेक्शन हॉल में तीन घंटे काटने मेरे लिए मुश्किल हो जाते थे, ऊपर से उस दिन मेरे पिछले दिन बार-बार बड़ी बेशर्मी से सामने आ खड़े होते थे और भीतर कुछ पिघल-पिघल जाता था. डबडबाती आंखों से मैंने डेमोंस्ट्रेटर-कक्ष के पंखे की तरफ देखा...घर्र-घर्र-घर्र...वही मंद गति...वही मशीनी