विश्वास

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दरवाज़े की घण्टी जिस तरह से लगातार बज रही थी मैं समझ गई थी कि मनोज ही आए होंगे। दरवाज़ा खोलते ही उनके हाथ में मोबाइल पकड़ा दिया था। "इसे लेने ही इतनी दूर से वापिस आए हैं ना?" मुझे लगभग धकियाते हुए वे अंदर आ गये थे, "तुम्हें पता भी है तुम्हारी बेटी क्या गुल खिला रही है?" अपेक्षाकृत शान्त स्वर में मैंने प्रतिप्रश्न दाग दिया, “क्या हुआ? ऐसा क्या कर दिया उसने?" दांत पीसते हुए वो गरजे, “क्या किया? उसे कॉलेज बस में बिठाकर मैं ऑफिस चला गया था। वहाँ जाकर पता चला कि मोबाइल घर ही भूल