डायरी के पन्ने

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लॉकडाउन में कुछ पन्ने ज़िन्दगी के ——————————15 अप्रैल 2020——————ज़िन्दगी के इस बोझिल वातावरण में जीवन को संतुलित करने की ग़रज़ से ख़ुद को कविताओं में खोने का प्रयास करती हूँ ।प्रिय कविराजेश जोशी जी की कुछ पंक्तियाँ मेरी डायरी के पन्ने पर चमकती हैं , बार- बार पढ़ती हूँ और सोचती हूँ कितनी मौजूँ हैं ये पंक्तियाँआज के परिप्रेक्ष्य में , जब हम सब अपने अपने घरों में क़ैद हैं, नदियाँ, समंदर , परिंदे , दरख़्त सब कितने दूर हो गए हैं हमसे —- नदियों से बात करना चाहता हूँ इस समय पर टेलीफ़ोन पर यह मुमकिन नहीं उन दरख़्तों का भी मेरे पास कोई नंबर नहीं जो अक्सर रास्तों में मिल जाया करते हैं परिंदों के पास मोबाइल होगा इसकी उम्मीद नहींरात के एक बज रहे हैं नींद आँखों से ग़ायब है । अपने बिस्तर से लगी खिड़की के पारदर्शी काँच से बाहर झांकने की कोशिश करती हूँनीचे अजीब सा सन्नाटा पसरा है ।झींगुर की भाषा में एक अनजानी कहानी कानों तक पहुँच रही है जिसे सुनते ही त्वचा पर अजीब सीसरसराहट होने लगती है । बाहर रोशनी तो है पर एकदम ख़ामोश दूर तक कहीं कोई कोलाहल नहीं । सामने बिल्डिंग की खिड़की से एकझीनी सी रौशनी तैरती हुई झाँकती है बीमार पीली सी रौशनी । रात के सन्नाटे में अनायास ही ऊपर के किसी माले में थोड़ी हलचल सी सुनाई देती है, मन में कुछ खटकता है , खिड़की से नीचे झांकतीहूँ , नीचे एम्बुलेंस खड़ी देख कर मन आशंकाओं से भर जाता है । ऊपर से देखने पर आकृतियों को पहचानने में मुश्किल हो रही है , सभीके चेहरों पर मास्क है । शायद कोविड-19 पॉज़िटिव है कोई शख़्स, अब जल्द ही सोसायटी से अपडेट आएगा ।मन में ढेरों विचार कौंधजाते हैं , बाहर बिखरी रौशनी ज़्यादा बीमार लगने लगती है ।भयग्रस्त सन्नाटों को चीरती झींगुर की आवाज़ों से बचना चाहती हूँ , खिड़कीबंद कर सोने का उपक्रम करने लगती हूँ ।1 मई 2020—————देखते ही देखते दिन बीत गए और बिना आहट ही मई का महीना भी आ गया ।आज मई की पहली तारीख़ है , कामगारों को समर्पित दिन, मई दिवस ।जबकि पूरी दुनियाँ में प्राय: सब कामकाज ठप्प हैं , किसी तरह रोटी का जुगाड़ करता आम आदमी जीवन के मकड़जाल मेंउलझा , कोशिश कर रहा है सभी समीकरणों को हल करने का , ऐसे में कामगारों की बेहतर स्थिति की उम्मीद भी कैसे हो । हालाँकिअपनी क्षमताओं के अनुरूप सभी कोशिश कर रहे हैं ज़रूरतमंदों की सहायता करने की, इंसानियत का तक़ाज़ा भी यही है । सुबह के सात बज रहे हैं आँखें खुलते ही अपने कमरे की खिड़की का गुलाबी पर्दा एक तरफ़ सरका कर सुबह का दीदार करतीहूँ । दूर खड़ा , धूप धुला, नहाया गुलमोहर ताकता है एकटक , हाथ हिलाता , मुस्काता ।ज्यों -ज्यों सूरज गदराते गुलमोहर के लाल रंगपर सुनहरा रंग बुरक़ जाता त्यों-त्यों गुलमोहर थोड़ा और निखार आता है। बावजूद इसके लॉकडाउन के इस दौर में सब कुछ ठहरा सा प्रतीत होता है ।ख़ामोश सड़के ,ऊँची इमारतें, नीला आकाश बस इतनाही देख पाते हैं हम बिल्डिंग की ऊँचाई से । हमारे आसपास के अनगिनत फ़्लैटों में जाने कितने लोग रहते हों पर सब ओर बेचैनी पसरीदीखती है , एकरसता का अहसास होता है , एक अनिश्चितता सी दीखती है । स्थिति सामान्य होने की कामना लिए सभी सिमट गए हैंअपने - अपने दायरों में । यूँही गुज़र रही है ज़िन्दगी.......बस , दूर खड़ा खिलखिलाता, निरंतर हँसता जाता है गुलमोहर..... लाल सुर्ख़फूलों से लदा , गदराता गुलमोहर ।24 मई 2020——————- माँ का आज पच्चासी वाँ जन्मदिन है । कल ही माँ से बात हुई थी , ज़रा थकी सी आवाज़ थी , तबियत थोड़ी ढीली थी पर बीमार तो नहींथीं ।सोच ही रही थी कि उन्हें कॉल कर जन्मदिन की बधाई दूँ कि मोबाइल पर एक मैसेज चमका, झुक कर पढ़ा तो होश फ़ाख्ता हो गए, लिखा था माँ आई सी यू में हैं ।मन बदहवास हो गया , मायके फ़ोन कर सारा हाल जान कर बहुत दुखी हो गया मन, ब्रेन स्ट्रोक के कारणउन्हें अस्पताल ले जाना पड़ा , अचानक ही जाने कैसे , हैरान हूँ ।कितना कठोर समय है कितना निष्ठुर ! चाह कर भी हम माँ को देखने नहीं जा सकती।यहाँ तो घर की चौखट तक लाँघना मना है , मन पिघल रहा है , उड़ना चाहता है, जानाचाहता है अपनी बीमार माँ के पास । आँखें भींचकर सचमुच पहुँच जाती हूँ माँ के सिरहाने , सहला देती हूँ उनके तलवे , प्यार से छूती हूँउनका ललाट ........ बैठती हूँ वहीं उनके पास अपनी ढेरों दुआओं के साथ , इस उम्मीद के साथ कि माँ लौट आएँगी घर जल्दी ही अपनीखनकती आवाज़ के साथ ।2 जुलाई 2020—————— वर्ष आधा खिसक गया पर समय की गति नहीं बदली ।देह पर सूरज की किरणों को ओढ़े हुए चार महीने बीत गए ।बस खबर दे जाती हैंसुबहें , सूरज के उगने की शामें बता जाती हैं खबरें सूरज के अस्ताचल की , वरना सूरज के दर्शन किये जाने कितने महीने बीत गए, कोलतार की सर्पीली सड़कों पर चलना भूल से गए हैं पाँव , कितनी बदल सी गई है ज़िन्दगी, बदल गए हैं सारे मायने । बाहर हल्की बारिश होने लगी है, मन भीग रहा है और आँखें भी । बस बाहर और भीतर के बीच एक झीनी सी दीवार है , इस दीवार कोढाहना चाहती हूँ मैं पर अनचाहे ही दिनोंदिन यह दीवार पहाड़ बनती जा रही है , मन समंदर हुआ जाता है । एक अजीब सी बेचैनी काआलम है , मैं रसोई में जाकर एक ग्लास पानी लेकर गटक जाती हूँ ।हलक़ तर है पर मन की परतों में उदासी की तहें बरक़रार है । किताबों में डूबना चाहती हूँ , अपने सिरहाने ढेरों किताबों को चूमती हूँ ।सोचती हूँ इस कमरे में यदि खिड़की ना होती तो क्या होता ,तभी खिड़की से झांकता आसमान का एक टुकड़ा भीतर तक सहला जाता है।उसके नीलेपन में पाती हूँ अपना वजूद तभी तो गले से लग जाती हूँ उसके ।वहीं पास में दीवार से टिके कैनवस पर पड़ती है मेरी नज़र,जिसपर बी प्रभा की साँवली सलोनी ग्राम्या को उतरने की कोशिश की है मैंने ।गहरे साँवले रंग की औरतें और उनका ग्रामीण जीवन की झलक से पेंटिंग जीवंत हो उठी है ।इन्हें देखकर अपनी सहायिका सरला कीयाद आ रही है ।कल ही कॉल कर उसने बताया कि उसके गाँव में जो कि महाराष्ट्र के ठाणे ज़िले के अंतर्गत आने वाली वसई तहसीलपंजू गाँव हैं वहाँ उसकी बूढ़ी सास अकेलीहै ।वह जाना चाहती है उसके पास पर पूरा का पूरा गाँव आइसोलेशन में है ।गाँव में आवाजाहीपर सख़्त पाबंदी है ।खेतीबाड़ी की भी देख-भाल करने वाला कोई नहीं ।सरला की बातें सुनकर मन उदास है , समझ में नहीं आता किकैसे मदद करूँ उसकी । पर सच कहूँ तो अब तो सिर्फ़ कोविड-19 से बचाव के सिवा कुछ और नज़र नहीं आ रहा । सरला भी ऐसा ही करेगी और हिम्मतसे समय का सामना करेगी , उसने मुझसे वादा किया है ।आज की डायरी 30/07/2020मेरे लिए , आज बेहद ख़ास दिन है ।ख़ास इस मायने में कि आज तीस जुलाई को बड़े इंतज़ार के बाद बड़े बेटे आकाश को बम्बई सेदिल्ली की फ़्लाइट मिली और वहाँ से दरअसल आकाश की , फ़रवरी के आख़िरी हफ़्ते में विक्टोरिया से दिल्ली पहुँच कर ,अपने भाई शिखर (अपने बीच वाले भाई) की शादी में शामिल होने के बाद ,अट्ठारह मार्च 2020 को कनाडा वापसी थी । घर की पहली शादी, ख़ूब मस्ती में हँसीं ख़ुशी से दिन बीते।शादी में शामिल होने के लिए सभी लोग विलासपुर में इकट्ठे हुए , शुभ कार्य निर्विघ्न समाप्त हुआ और हम दोनों के साथ सबसे छोटा बेटा, यानि हम तीन लोग बम्बई, वर-वधु गोवा और आकाश दिल्ली पहुँच गया , इस बीच कोविड-19 की खबरें ज़ोर पकड़ तो ज़रूर रही थीं , पर हमसब बड़ी बेफ़िक्री से अपने काम में मगन थे कि हमें क्या करना इस बीमारी से , हम तक थोड़े ही आएगी।पर कुछ ही दिन बीते थे कि देखते ही देखते दुनियाँ सकते में आ गई , सबका मुँह खुला का खुला रह गया , पर मुँह ही तो नहीं खोलना था......सो कोई कुछ समझ पाता इससे पहले ही सबके चेहरे पर मास्क ? चस्पाँ कर दिया गया और ताक़ीद की गई कि अपने-अपने घरके भीतर रहें , यानि जनता कर्फ़्यू । उधर आकाश ने ख़बर दिया कि विक्टोरिया जाना टल गया है क्योंकि सारी विदेशी उड़ान रोकी जा रही हैं जब तक सरकारकोई नोटिस जारी नहीं करती , हमने भी सोचा कोई बात नहीं, चंद दिनों की बात है सब सामान्य हो जायेगा सो आकाश को मुम्बई बुलालिया ।हालाँकि वह बहुत इच्छुक नहीं था मुम्बई आने को क्योंकि उसे मुम्बई का मौसम बिलकुल पसंद नहीं, वह पूरी तरह से दिल्ली काबंदा है , उसे दिल्ली में ही रहना पसंद है पर सारा मामला ही गड़बड़ा गया था , वापस जाने को मिल नहीं रहा था और दिल्ली भी दिनोंदिनरोगग्रस्त हो रही थी सो हालात की माँग देख अनमनेपन से मुम्बई की फ़्लाइट पकड़ कर घर पहुँच गया ।हम बड़े ख़ुश बड़े दिनों बाद बेटाघर आया था , ख़ूब आवभगत में जुट गई । शुरूआत में तो ख़ूब अच्छा लगा अर्से बाद एक साथ , घर पर ही रहना था , न कहीं आना नजाना , बस लैपटॉप, मोबाइल फ़ोन और टी वी का सहारा था .....एकाएक दुनियाँ इतनी बदल गई। ले दे कर समाचारों पर हमारी नज़र होती लगा मार्च बीता तो चलो कोई नहीं, अप्रैल तो अपना है , लॉकडाउन खुलते ही सबकुछ पटरी पर आ जाएगा, पर मार्च के बाद अप्रैल भी सरक गया , स्थिति ज्यों के त्यों । हमारी ज़िंदगी अलग हलकान थी , सहायिका के बिना अनगिन काम कमर तोड़ रही थी तिस पर पहले ही मैंने * घर का खाना * के तहतखाने की सप्लाई और बेकिंग का काम शुरू कर दिया था , ठाणे आने के दो महीने बाद ही यानि फ़रवरी से ही , बीच में कुछ दिनों छुट्टीली फिर शुरू किया पर तब दो सहायिकाओं के साथ-साथ, पर अब बंद कैसे करती आशा के विपरीत आर्डर अच्छे आने लगे , दरअसलहुआ ये कि लोग कोविड के डर से बाहर से खाना मँगवाने से परहेज़ कर रहे थे सो घरेलू उत्पाद पर उन्हें विश्वास था सो काम बढ़ गया , दिन-रात मेरे कैसे गुज़रे मुझे पता ही नहीं लगा , खाना बनाने के बाद मैंने अपने पेंट-ब्रश और कलम के बीच भी इस क़दर समय गुज़ाराकि अप्रैल से अगस्त कब आ गया पता ही न चला ।हाँ इस दौरान कई बार मन विचलित ज़रूर हुआ , कुछ आत्मीय जनों की तकलीफ़ों ने रातों की नींद भी उड़ाई, कई बार अपनों के दुखों मेंशामिल ना हो पाने की बेबसी ने चुपके -चुपके से आँखों को बेसाख़्ता रूलाया भी पर हर बार सँभाला ख़ुद को , सबके साथ ख़ुद केस्वास्थ्य का ख़ूब ख़्याल रखा , अब चाहे रोज़ व्यायाम करना हो या हल्दी आँवला खाना , कुछ भी नहीं छूटता ।बस वक़्त बेवक़्त अपनेकोने में ज़रूर बैठती , अपनी खिड़की पर जहाँ मिलता है मुझसे मेरे हिस्से का आकाश, जहाँ बैठकर मैं देख पाती हूँ पेड़ों के झुरमुट को , महसूस कर पाती हूँ हवा स्पंदन को , जहाँ से दीखती है सीधी सपाट सड़क और उस पर चलती फिरती कुछ आकृतियाँ ..... आज का दिन मेरे लिए ख़ास इसलिए भी है क्योंकि आज 20मार्च 2020 के बाद पहली बार अपने घर से निकल कर नीचेउतरी , इतने दिनों बाद पहली बार जूते पहने , कपड़ों से भरी आलमारी को खोल कर जी भर निहारा कि क्या पहनूँ वरना चार जोड़ी कपड़ोंमें क़रीब पाँच महीने बीत गए और इनकी सुध तक न आई ।चार -पाँच महीने राशन और छिट-पुट दवाइयों को छोड़ कर कुछ न ख़रीदा , ना पार्लर गई , न शॉपिंग की , न दोस्तों से मिली बल्कि इस बीच बहुत कुछ सीखा और अपने हुनर को पैना करने का मौक़ा मिला , लब्बोलुआब ये कि जीवन की ज़रूरतों की लंबी फ़ेहरिस्त में कैंची लगायी जा सकती है , समय के साथ समझौता किया सकता है बशर्तेशारीरिक और मानसिक संतुलन ठीक- ठाक हो । समय हर बार चेताता है स्वस्थ होने को , साफ़-सुथरी आदतों से दो चार रहने को ,पर हमारी लापरवाही आड़े आ जाती है , तोइसके दुष्परिणामों को भोगना भी तो होगा। अब देखिए कि आज सड़कों पर थूकना एक दंडनीय अपराध है किन्तु कुछ महीनों पहले यहाँ-वहाँ थूकना जैसे लोगों का अधिकार था ,सब लापरवाह,सब बिंदास थे।दुनियाँ ऐसे ही चलती थी ,ऐसे ही चलेगी बाक़ी हम बीते समय सेसीख सकें तो सीख लें । हाँ , एक फ़ील और आई इन दिनों कि हर दिन इतवार है , अक्सर सुबह तनिक देर से उठना कनखियों से घड़ी देख कर फिरमटिया कर तकिये में मुँह घुसा कर सोने का स्वाँग रचना ताक़ि पतिदेव मुझ बेचारी को थका समझकर रसोई के सिंक में अटे पड़े सारेबर्तनों को रगड़ रगड़ कर साफ़ कर , जगह पर रख दें , ज़रा चाय चढ़ा दें , बस और क्या चाहिए मुझ ग़रीब को । तो , दया माया तो पूरी मिली काहे को झूठ बोलें , तभी तो घर एकदमे झकास रहता है , वैसे हम भी कम नहीं खट रहे हैं , पर एक अच्छा फ़ील और आया कि अब हम पाताल हो या पहाड का कंदरा कहीं भी सरवाईव कर सकते हैं बस करोना से दूर रहें, इम्यूनियूनिटी बनी रहे ,इस बिना बुलाये मेहमान बस दूर से सलाम । आज एक कमाल और किये हम , हुआ ये कि सुबह नौ बजे ही आकाश के साथ हम तीनों एअरपोर्ट तक गए उसे छोड़ने , हलाँकि उसनेमना किया कि मम्मी रहने दीजिए आपलोग नाहक क्यों परेशान होंगे मैं कैब से चला जाऊँगा पर छोटे बेटे अश्विन ने कहा कि नहीं भैयामाँ-पापा पाँच महीनों से नीचे नहीं उतरे हैं आज चलेंगे हमलोगों के साथ , बोलकर वो गाड़ी लाने चला गया । हमलोग सामान के साथ-साथ नीचे उतरे , बेटा जा रहा था तो मन ही मन उदास तो थी पर मुस्कुराहट तैर रही थी होंठों पर ।हम एअरपोर्ट जल्द ही पहुँच गए , रास्तेमें भीड़भाड़ बहुत कम थी शायद , इसी वजह से । बेटे को विदा कर हम वापस चले घर की ओर ।मैं असहज तो थी पर अपनी असहजता ज़ाहिर करना नहीं चाहतीथी सो रास्ते भर हँसती बोलती रही।घर आ गया , गाड़ी से उतरकर हम अपने विंग में घुसे , मुँह पर मास्क था तभी सिक्योरिटी गार्ड नेरोका- मैडम कहाँ जाना है ?मैं अकबकायी - हें , ये कैसा सवाल है ? घर जाना है और कहाँ ? मैडम फ़्लैट नं ० ?येल्लो मैं तो भूल गई पर उसे तो बताना था वरना जाने न देता , बेटा गाड़ी पार्किंग के लिए गया था और पति महाशय चाबी ले कर लिफ़्टतक पहुँच चुके थे , मैंने भी आव न देखा ताव बोल दिया - फ़्लैट नं 108 8th फ़्लोर और ठसके से आगे बढ़ी, तभी पीछे से आवाज़ आई अरे मैडम , इस नंबर का तो कोई फ़्लैट नहीं ?लो मेरी तो मिट्टी पलीद अरे सुनो , मैंने आवाज़ दी पतिदेव को - ज़रा चाबी दिखाइए इनको ,पतिदेव के पास ओनर की चाबी और फ़्लैट नं देख कर वह आश्वस्त हुआ , ज़रा मुस्कुराया ।अबकी बार झेंपने की बारी मेरी थी पर मुस्कुराहट लिए बोली - दरअसल पाँच महीने से फ़्लैट से निकली ही नहीं न नीचे उतरी तो भूल गईअपने फ़्लैट का नं भी ।क्या बोलता बेचारा वो तो ऐसे लोगों को रोज़ झेलता होगा , पर मेरी तो किरकिरी हुई ही, बेटे ने खिल्ली उड़ाई सो अलग ।ऊपर पहुँच कर झट से हाथ -मुँह धो कर और कपड़े बदल कर सबसे पहले चाय बनायी और अपनी खिड़की के पास अड्डा जमा लियाऔर आसमान में उड़ते बादलों की आवाजाही देखने लगी , घड़ी देखा ,आकाश की फ़्लाइट ✈️ का समय हो चला था , मैं यहीं सेएकटक नीले आकाश और अपने बेटे आकाश को देख रही थी ।- अमृता सिन्हा - लॉकडाउन डायरी ? - 30/07/2020