प्यार के इन्द्रधुनष - 7

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- 7 - वह रात वृंदा ने अन्तर्द्वन्द्व में ही गुज़ारी। वह सोचने लगी - मुझमें इतनी हिम्मत कैसे आ गई कि मैं पापा के समक्ष अपने मन की बात इतनी स्पष्टता और दृढ़ता से कह गई। सम्भवत: यह मेरे प्रेम की ही शक्ति थी, जिसकी वजह से मैं एक बार भी डगमगाई नहीं, घबराई नहीं। .... एक तरफ़ माँ-बाप का लाड़-प्यार था तो दूसरी तरफ़ मनमोहन का नि:स्वार्थ व पवित्र प्रेम। रात करवटें बदलते गुजरी थी, अत: ताज़ा हवा में साँस लेने के इरादे से वृंदा मुँह-अँधेरे आँगन में निकली। भोर का तारा अभी भी आकाश में गुजरती रात