बागी स्त्रियाँ - भाग ग्यारह

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रात का घना अन्धकार!रह-रहकर बादल तेज स्वरों में गरज रहे हैं |बिजली भी चमक रही है |कभी आड़ी-तिरछी,कभी सीधी -सरल उज्ज्वल तन्वंगी बिजली!मीता देर से खिड़की के पास खड़ी बिजली की कीड़ा देख रही है |अद्भुत दृश्य !आकाश की कालिमा को चीरती बिजली कभी यहाँ तो कभी वहाँ चमक कर लुप्त हो जाती है |क्षण भर के लिए अन्धेरा कम होता है,फिर वही अन्धेरा!उदास अँधेरा !अकेलेपन को सघन करता अँधेरा !पर इसके पहले कि आकाश निराशा से काला पड़े,फिर बिजली चमक उठती है |यह बिजली कभी हब्शी पिता के सीने पर उत्पात करती नन्ही गोरी बिटिया लगती है,कभी शिव की