इश्क़ ए बिस्मिल - 14

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यूं तो जि़न्दगी के मेले है.....फिर भी यहॉ हम सब अकेले है....मेहफ़िलों में तन्हाई है....यूं तो रौनकों के रेले है....दर्द किसी का ले सकते नही....ख़ुद ही अपनों ने झेले है....सफ़र होता तमाम नही....मन्जि़लों के झमेले है....काश के ख़्वाहिशों पे लगाम होता....हसरतों ने अज़ाब उन्डेले है।उस लिफ़ाफे के देने के ठीक दो दिन बाद इन्शा जो रात में सोई तो फिर उसकी कभी सुबह नहीं हुई।वह अरीज और अज़ीन को तन्हा छोड़ कर चली गई थी। कितना मुश्किल होता है ज़िन्दगी मां बाप के बग़ैर गुज़ारना। मां-बाप का साया औलाद को बेफ़िक्र बनाता है, एक ग़ुरूर बख़्शता है, निडर बनाता है।