हाँ, मैं भागी हुई स्त्री हूँ - (भाग बाईस)

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जिंदगी मानो ठहर गई।अब न नौकरी पर जाने की जल्दी है, न सुबह चार बजे से ही उठकर घर का काम निपटाने की चिंता। न किसी के आने की खुशी ,न जाने का ग़म। अब उन पड़ोसिनों से मेल -जोल बढ़ गया है,जिन्हें पहले अपनी व्यस्त दिनचर्या के नाते समय नहीं दे पाती थी।पास-पड़ोस के बच्चों को पढ़ाती हूँ।उनके साथ खेलती हूँ।आराम से घर का काम निबटाती हूँ।जो जी चाहता है बनाती- खाती हूँ।कभी -कभार फ़िल्म देख आती हूँ।रोज कुछ न कुछ लिखती हूँ।कभी -कभी तबियत ठीक नहीं लगती,तो लगता है कि काश ! मेरा भी कोई अपना होता,पर जब