आ बैल

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मैंने बैलो में, श्रंगार की अनुभूति का आनन्द लेते, सिर्फ प्रेमचन्द जी की कहानी ‘हीरा-मोती’ में महसूस किया वैसे सजे –सजाये बैल फिर कभी सुने-दिखे नहीं बैल जोडी के निशाँन को लेकर एक पार्टी का बरसों राज चला सचमुच में वे दिन बैलो की तरह निश्चिन्त ,निसफिक्र,निर्विवाद थे महंगाई के मुह खुले न थे कालाबाजारी ,घुसखोरी भ्रस्टाचार पर नथे हुए बैलो की तरह लगाम लगे थे