पीताम्बरी - 2

(18)
  • 7.6k
  • 1
  • 2.5k

जेठ की तपती दुपहरी की गर्म लू शरीर को झुलसा रही थी, सूरज अपने यौवन के चरम पर आग उगल वसुधा को दहका रहा था, सड़क पर इक्का-दुक्का लोग ही आते जाते दिख रहे थे बाकी कभी-कभी जीप फर्राटे भरती हुयी निकल जाती थी ऐसे में गमछा सिर पर बाँधे रामनारायण ओझा सायकिल से चले जा रहे थे पसीने से तर–ब-तर, उन्हें लग रहा था कि ये रिश्ता गया हाथ से ! बुरे-बुरे ख्याल आ रहे थे मन में, वह किसी भी कीमत पर ये रिश्ता चाहते थे