यूँ ही

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एक उम्र होती है न जो पीछे जितनी छूटती जाती है, उतनी ही परछाईं की तरफ़ दौड़ लगाती है जैसे ---उसकी उम्र भी शायद कुछ ऎसी ही है शायद इसलिए, कभी-कभी अपना ही स्वभाव समझ नहीं आता या यूँ कहिए कि एक अजीब सा बहकाव, भटकाव आने लगता है पता ही नहीं चलता मन क्या चाहता है अब भाई, मन तो चलता नहीं --उसे देखा है क्या? पर भीतर की चहल -पहल लबालब छलकने को हो आती है और स्मृतियों के द्वार खोल हल्का झंझावात भीतर पूरे जोशो-खरोश से भीतर प्रवेश करता है और मधु की मिठास अचानक अपना स्वाद ही बदलने लगती है