पाँच सवाल और शौकीलाल जी - 1

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शौकीलाल जी के बढ़ते कदम में मैंने बेड़ी डाल दी। ज्योंही वे मेरे क्वाटर के सामने से गुजरने लगे, मैं उन्हें घेर कर खड़ा हो गया। शाम के आठ बजने वाले थे। मैं फुर्सत में था। टाइम पास करने के लिए मुझे किसी बैठे-ठाले की तलाश थी। तभी लपकते-झपकते चले आ रहे शौकीलाल जी पर मेरी नजर पड़ गई। आरे वाह, इसी को कहते हैं- जहाँ चाह, वहाँ राह। गप्पें मारने के लिए भला शौकीलाल जी से अधिक उपयुक्त पात्र और कहाँ उपलब्ध हो सकता है! बहत दिनों से उनसे मिला भी नहीं था।