कुकरा कथा

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कुकरा कथा कैलाश बनवासी अब उनका बिहान तो तब है जब हांडा परिवार का बिहान हो. भले ही सुरुज देवता पूरब कभी का नहाक चुके हों. हमेशा की तरह, आज दिन चढ़ने पर उनकी नींद खुली. हांडा साहब की बी. ए. पढ़ रही गोरी-नारी लड़की ने उनको दड़बे से आज़ाद किया... दरवाजे के बाहर खदेड़ा. को-को-को-को-को... कुरकुराते कुरकुराते वे बाहर आए. अब आज़ाद थे. कुछ भी चरने को... जहां-तहां चोंच मारने को. इकलौते मुर्गे ने आज़ादी महसूस की.... पंख फड़फड़ाकर सुस्ती फटकारी और ऊंची बांग लगायी—कुकडूssक्कूsss ! कुकडूssक्कूsss ! ठेंगनी-मुटल्ली लाल-भूरी मुर्गी एक और निकल गई. दुबली काली मुर्गी पंजों