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कुकरा कथा

कुकरा कथा

कैलाश बनवासी

अब उनका बिहान तो तब है जब हांडा परिवार का बिहान हो. भले ही सुरुज देवता पूरब कभी का नहाक चुके हों.

हमेशा की तरह, आज दिन चढ़ने पर उनकी नींद खुली. हांडा साहब की बी. ए. पढ़ रही गोरी-नारी लड़की ने उनको दड़बे से आज़ाद किया... दरवाजे के बाहर खदेड़ा.

को-को-को-को-को...

कुरकुराते कुरकुराते वे बाहर आए. अब आज़ाद थे. कुछ भी चरने को... जहां-तहां चोंच मारने को. इकलौते मुर्गे ने आज़ादी महसूस की.... पंख फड़फड़ाकर सुस्ती फटकारी और ऊंची बांग लगायी—कुकडूssक्कूsss ! कुकडूssक्कूsss ! ठेंगनी-मुटल्ली लाल-भूरी मुर्गी एक और निकल गई. दुबली काली मुर्गी पंजों से जमीन कुरेदने लगी. चितकबरी अपनी गोलमटोल कंचे जैसी आँखों से ताकती रही टुकुर... टुकुर... इधर... उधर...

इतनी धुप निकल आने के बाद बांग देने की कोई सार्थकता नहीं रह जाती. लेकिन बेचारे मुर्गे को यह सब क्या मालूम. वह तो अपनी गर्वीली गर्दन तानकर बांग देता ही है.

अकेला मुर्गा और तीन मुर्गियाँ... हांडा परिवार जैसे सेहतमंद हैं—खूब हरे-भरे से. इतना कि मुहल्ले वाले देख-देख जलने लगे हैं मुर्गा का शरीर तो और भी गदबदाया है. दिखता भी खासा आकर्षक है. कई चमकीले रंग है उसके पास. गर्दन के आसपास सुनहरी पीली नरम पांखियों का गुच्छा, सीने पर साँवली चमक लिए डैने... मोर के हरी-नीली रंग की झबरीली पूँछ... पंखियों का मुलायम झब्बा... खोपड़ी पर मुकुट के माफिक सुर्ख लाल कलगी... पत्थर सी सख्त चोंच. मोती लटकती थूथन... , पहलवान सी पुष्ट जांघें... नुकीले पंजों का हथियार... और मजबूत सीना. यह सब तो होगा ही होगा. हांडा साहब की देखभाल में जो पला है. उनकी बीवी भी दिन में पचीसों बार दरवाजे पर आती है, और उनके मुर्गे-मुर्गियों से दूर खेलते गली के बच्चों को कुत्ते सा दुतकारती है—ओए, परे हट्ट ! भागो इदर से... शैतानों !इद्र नई खेलना...

बच्चे सहमकर अपना खेल भूल जाते हैं. इन मुर्गे-मुर्गियों से उनको शेर-भालू सा डर लगने लगा है.

मुहल्ले में हांडा साहब की कोठी बड़ी है. और खासी बड़ी है. बाकी मंझोले हैं. और बाक़ी छोटे. और जैसा मकान उसी के मुताबिक़ लोग. झोपड़ियाँ हांडा साहब की कोठी की कांख में दबी-पिचकी खडी हैं. अपने गरीब मालिकों जैसे.

मोहल्ला है तो लोग हैं/लोग हैं जो व्यस्त हैं. व्यस्त हैं तो त्रस्त हैं. फिर भी अपने में मस्त हैं.

लोग इन्हें पालने से बचते हैं, कि ‘अरे जब खुद हमारे रहने-बसने का ठौर-ठिकाना नहीं, तो फेर ये फ़ोकट का फटफटा कौन पाले !’

फिर भी कुछ लोग हैं. फटफटा समझकर भी जानवरों को पाल रहे हैं. उसी दया से, उसी सहानुभूति से. उसी खीज से उसी घृणा से. और उसी प्यार ममता से. कि चलो, पड़ा रहेगा बिचारा जूठा –काठा खाकर. एक कौरा भात देने से कौन मार घर में अकाल पड़ जाएगा ! इस कर्ण मुहल्ले में दूसरे मुर्गे-मुर्गियाँ भी हैं-कुलकर्णी बाबू का मुर्गा, जैराम साहू का बिमर्हा मुर्गा, झाडूराम का ऊंघर्रा कुकर और भीखऊ राउत के घर की कुकरी. और हैं जिनकी गिनती की जा सकती है.

हांडा साहब की कोठी के बांयें बाजू गली है. इसी गली के थोड़ी दूर आगे एक घूरा हैजहाँ मुहल्ले वाले कूड़ा-कचरा फेंकते हैं. इसलिए ढोर-डंगरों की अपनी जगह है. कूड़े के ढेर में जानवरों को चारा मिल जाता है और कचरा उठाने वालों को जीने का सहारा. अब इस गली में दूसरे जानवर आ गए तो आ गए, पर मुर्गे-मुर्गियों का प्रवेश निषेध. ललचाकर बिचारे आये भी तो हाय रे फूटहा करम !वो हांडा साहब का कुकरा... कुकरा है कि गिधवा ! देखते ही चढ़ बैठेगा. दुम दबाकर जान बचाकर भाग आए वही गनीमत है! भाड़ में जाय चारा और लाल भूरी! लाल भूरी का सारा गुलाबी आकर्षण भय से बिलकुल काला हो जाता है. उस दिन कुलकर्णी बाबू का मुर्गा इस और आ निकला. सो भी कांपते-कांपते. गिधवा की आँख पड़ी. वो एकदम झपटा हौंहा के... गर्दन की पान्खियाँ ठाढ़-ठाढ़ खड़ी हो गयीं गुस्से से. पूरी हिम्मत बटोरकर कुलकर्णी बाबू का मुर्गा भी लड़ने भिड़ गया. देर तक लड़ते रहे छटपिट छटपिट. और इस बीच कुलकर्णी बाबू के मुर्गे की बुरी गत बन गई. लहुलुहान जिस्म... खोपड़ी नुच गई... पंख उखड़ गए. भीतर की सफ़ेद चमड़ी नंगी होकर झाँकने लगी थी.

कुलकर्णी बाबू को पता चला. खटिया की अन्चावन की रस्सी खींचना छोड़कर आए भागे-भागे. और खूब गलियाते-बकरते अपने मुर्गे को उठा ले गए. घायल मुर्गे की टांग में मरहम-पट्टी बाँधने के बजाय उन्होंने एक लम्बी रस्सी बाँध दी, जिसका एक सिरा उनके आंगन में पड़ी खाट की पाटी पर बंधा होता. चाँवल-गेहूं के दाने बिखरे होते. मुर्गा अब केवल टक-टक देखता है. कुलकर्णी बाबू को ऐसी सनक चढ़ी कि चोंच का नुकीला हिस्सा ही काट डाला, और मुर्गा अस्त्र-विहीन. —‘स्याला, अरे अइसा लड़ेंगा तो मुर्गा लड़ाकू होएंगा कि नइ ?मान लो कल तुमकोच काट खाया, ... फिन? बोलेगा कि कुलकर्णी तुम्हारा मुर्गा भोत हरामी है. इस लफड़े से अच्छा येई है... पड़ा रहे साला इधरिच. साले को इस टेम की होली में खल्लास करना है. ’

बेइंसाफी झेल रहा है आदमी, फिर तो वो जानवर है!

इसी गली में दो नालियां निकली हैं... एक हांडा साहब के घर से... एक नाली पंडित बदरीबिसाल के घर से. थोड़ी दूर जाके इनका संगम होता है. और एक बड़ी-सी नाली बन जाती है. यही नाली मोटर मेकेनिक परभू दयाल के घर के सामने से बहती है. बुरी तरह बस्साती. नाली बिलकुल कच्ची... कुछ ही इंच जमीन से गहरी. नाली का गन्दा, काला, लसलसा और बदबूदार पानी गली में हमेशा छलककर फ़ैल जाता है. गली में बरसात के दिनों-सा किचिर-काचर चिखला बारहों महीने बना रहता है. नाली तो नाली और कचरा तो कचरा, बस्सेगा ही!

यदि यहाँ तक आपको लगता है कि यह ठीक नहीं, तब भी परभूदयाल को ठीक लगता है. लेकिन हांडा साहब के मुर्गा परिवार की वजह से और ज्यादा परेशानी है. वे पूरी नाली को कोड़-कोड़कर गली को नाला बना देते हैं.

परभू की डोकरी महतारी बिकट कोसती है मुर्गा-मुर्गोयों को—‘इन कुकरा कुकरी को तो धर के पूज देना चाहिए! पूरा नाली का सइतानास कर डाला! कल ही मेहतरू के घर से रापा-कुदारी मांग कर लाया था परभू... मर-मर के नाली बनाया... और आज देखो तो फिर वही बार हाल !

यह लगभग रोज का काम हो गया है.

मुर्गा-मुर्गी आते दिखे नहीं कि डोकरी चिड़चिड़ाती है—आओ-आओ... रोगहा हो... तुम्हारा आरती उतारूंगी ! यहाँ कोनो खजाना गड़ा है का? हुश्श! हुश्श! .. अरे भागती है के नहीं मोटल्ली!

डोकरी क्या, पूरा परिवार इन्हें कोसता है. परभू की गोरी, दुहरे देह घरवाली... पाँचवी पढ़ता बीटा पंचू... नौ साल की चंट टुरी रधिया... सब के सब. और, जब हांडा साहब की कोठी का दरवाजा बंद होता है तो गिट्टी-कंकड़ उठा के मुर्गे-मुर्गियों को मारते हैं... धीरे से. कहीं जोरहा पड़ जाए तो मर न जाए फड़फड़ाइ के... का ठिकाना... ?

उनकी कोठी के ठीक सामने पंडित बदरीबिसाल का मकान है. पंडिताइन और हांडा साहब की मोटी बीवी में अच्छी जमती है. एक दिन मुर्गा परिवार पंडिताइन के आंगन में पहुँच गए. गोबर से लीपी चिक्कन जमीन कुरेदने लग गए. पंडिताइन को गुस्सा आ गया. अपनी थुलथुल देह झुकाकर, बड़ी मुश्किल से पास पड़ा पत्थर उठाया—अरे रोगहा हो.. भागो इहाँ से... हुश्श! हुश्श ! थुलथुल देह लिए कहाँ पीछे दौडती. मारने के लिए पत्थर वाला दाहिना हाथ उठा ही था... कि हाथ धीरे-धीरे नीचे हो गया---सामने हांडा साहब की बीवी खड़ी थी. और बिना किसी कारण के पंडिताइन की बत्तीसी खुल गई—हें-हें-हें... ये मुर्गा-मुर्गी बड़े खराब हैं मोंटी की मम्मी... देखो ना पूरा लीपे-बाहरे आंगन... हें-हें-हें... घिघियाते हुए हंसने की कोशिश करने लगी. वह पत्थर कब हाथ से छूट गया, उसे होश नहीं...

परभूदयाल का परिवार मुर्गे-मुर्गियों से परेशान हैं. ये सेल मुर्गा मुर्गी! हर दुसरे-तीसरे दिन नाली चौपट. कूड़ा सडांध फैलाती हुई. जमादारिन को कहो तो उसका नखरा भी गाड़ा में नहीं समाता—ये कम हमारा नहीं है! परभू को खुद जमादार बनना पड़ता है. अब कहें भी तो किससे ?नेता लोगन से ?वो भी हरामी पूरा मतलबिया !वोट मांगने दुआरी में हाथ जोड़ के आया था. कहा तो था, देखो बाबू साहेब!ये नाली पक्की करवाओ, तब वोट मिलेगा. नहीं तो ठेंगा! साला लबरफंदा, कैसे मुड़ी डोला-डोला के कह रहा था—हाँ-हाँ बनेगा... बिलकुल बनेगा. और जीतने के बाद इधर झाँकने तक नहीं आया ! लबरा के नौ नांगर... देखबे तो एक्को नहीं! अब हांडा साहब से कहे? कुछ बोलो तो बोलने से पहले ही उसकी भैंसी बीवी चकर-चकर करने लगती है—अरे! कोई हमने सिखाया है इनको ? गली है तो इधर ही घूमेंगे... और कहाँ जाएंगे!

परभू दयाल खीज जाता है. पीठ झुकाकर चुपचाप नाली साफ़ करता है.

उस शाम परभू को क्या सूझा कि सनीचरी बाजार से एक मुर्गा और एक मुर्गी खरीद लाया. दोनों नन्हें थे. मुश्किल से तीन महीने के. थैले में भरकर लाया था. आंगन में बाहर निकालते ही कुरकुराने लगे.

“खाने के लिए ले हो बाबू?” पंचू बहुत उत्सुकता से उन्हें देख रहा था.

“अबे, खाने नहीं, पोसेंगे इनको! सनीचरी बजार के पठान के पास से खरीद के लाया हूँ”, परभूदयाल बताने लगा, “ वो ख रहा था, अच्छी नसल का है... लड़ाई करने वाला!”

“लड़ाई करने वाला !” पंचू ख़ुशी से मचल उठा.

“ऊँssहूँss!’’उसकी पत्नी की गोदना गुदी नाक सिकुड़ आयी—“ये तमासा हमको नइ पोसना है !”

“क्यों? अरे अंडा देगी दू-चार महिना में!” परभू उनकी टांग रस्सी से बाँधता हुआ बोला.

“हौ. बड़ा अंडा देगी. धोए रहो मुँह को!” उसने पति की नक़ल की. “ और इनका हगना-मूतना... छि: छिः... ”

“अरे कुछ नही होगा. जूठा-काठ खाके पड़े रहेंगे बिचारे.... ” परभू बोला.

“कितने का है बेटा... ?” डोकरी दाई ने पुछा.

“ते- ईss-स रु-पि-याsss!” दाई ऊँचा सुनती है, इसलिए चिल्लाके बताया.

“ कितने का ?” डोकरी ने फिर कान दिया.

“ऊँssहूँss !” परभू खीझ गया, ये डोकरी भी ना? ---“एक कोरी उप्पर तीन रुपिया !! समझे... ?” परभू चिल्लाकर बोला तो डोकरी मुड़ी दुला-दुला के ‘हौ-हौ’ करने लगी.

तो रंधनी खोली में घुसते हुए पत्नी खिलखिलाकर हँस पड़ी—‘अंधरा पादे अउ भैरा कहे राम-राम !’

मुर्गा-मुर्गी आराम से पलने लगे. नन्हें-नन्हें तो थे. चिऊँ-चिऊँ करते आसपास टुक-टुक चारा चुगते. अपने नन्हें-नन्हें पंजों से गीली जमीन कोड़ते रहते. अब उनको नाम भी दे दिया गया. मुर्गा काला था... इसलिए कालू. मुर्गी के पंख खूब नरम-से थे. हाथ में लेते ही गुदगुदी होने लगती हथेली में. उसके पंख भूरे और सुन्दर थे. इसलिए नाम खोजने की दिक्क़त नहीं हुई- सुन्दरी. ! वैसे पंचू का सुझाव भी नोट करने लायक था. अपनी माँ से बोला था, ”वह ! इनका नाम तो धर्मेन्द और हेममाली रखेंगे... वो है न छोटू की माँ... उसने भी ऐसा ही नाम रखा है अपने मुर्गे-मुर्गियों का---राजेस खन्ना... और जीना तमान !

“अरे चुप! बड़ा आया जीनातमान !” चांवल से भरे सूपे को फटकारती हुई माँ ने उसे झिड़क दिया.

किसी खिलौने से कम नहीं थे वे. मुट्ठी भर चांवल-कनकी के दाने बिखरा देते. पंचू बुलाता---आ-अ-आss कालूsss! ... को-को-को.. ! एक को बुलाओ, दूसरा भी पीछे-पीछे दौड़ता चला आता है... कोर-कोर-कोर-कोर.... , जब खेलने का जी होता, पंचू रधिया इनके पीछे पड़ जाते. खूब दौड़ाते. कालो तो साला खूब छकाता है... हाथ भी नही आता. पर सुन्दरी तो बिलकुल सीधी.. दर्पोक्नी. थोड़ी ही दूर जाकर टप्प से सिमटकर बैठ जाती है. कभी-कभी, हैरानी से वे उनके चोंच खोलकर देखते हैं... भीतर.. उनकी गोल-गोल आँखें भय से मुंड जाती हैं. उनकी गरम देह... नरम पाँख.... पंचू पुचकारता है... गर्दन सहलाता है... लम्बी.. पतली.. गर्दन... दोनों हाथों से उसे पोटार लेता है.

नाली के आसपास छोटी-छोटी दुबियाँ उग आई हैं, अपने आप. आसमान से फिसलकर नर्म धुप दुबियों पर पडती है.. दुबियाँ जैसे खिलखिलाने लगती हैं. दुबियों को कहीं-कहीं गाय-बकरियों ने नोच डाला है. बूढ़े-बूढ़ियाँ रात-बिकाल जरूरत पर यहीं किसी कोने पे टट्टी या पानी-पेशाब के लिए बैठ जाते हैं. गली के छोटे बच्चे तो खेलते-खेलते कब निक्कर खिसककर बैठ जायेंगे, कहना मुश्किल है. यहाँ सब अपने-अपने तरीके से आजाद हैं. नाली गंदी है. कौवें काँव-काँव और चिरई-चियां चीं-चीं करते फुदकते हैं. गाय बकरियां नुची हुई घास नोचते हैं. मुहल्ले भर के कुत्तों का यहाँ राशन-पानी है... लड़ते रहते हैं. और मक्खियों की अनवरत.. भिन-भिन-भिन-भिन...

अब जानवर तो जानवर. हांडा साहब का हो या परभूदयाल का, सब साथ मिलकर चरते-फिरते हैं.

लेकिन उस दिन जैसे उसे पता चल गया, कि नहीं, वो हांडा साहब का मुर्गा है और ये परभूदयाल का. सहसा गर्दन ऊंची हो गयी. कालू निश्चिन्त पास ही जमीन कुरेद रहा था चारे की तलाश में. एकाएक क्या सूझा कि कालू पर तेज़ी से झपटा.

वो मुर्गा सख्त चोंच वाला. नुकीले पंजे और मज़बूत जिस्म वाला. कालू... अभी नन्हा और कोमल. लड़ता कैसे? कठोर चोंच की लगातार ठोकनी अपने कलगीविहीन खोपड़ी पर सहता रहा. चुभन... तेज़ जलन.. हर चोंच लगे जलती-दहकती लोहे की छड़. बुरी तरह चीखता रहा—क्रोंक्क... क्रोंक्क... क्रोंक्क... क्रोंक्क... वः भी हमला करता, पर बहुत कोशिश के बाद भी उछलकर उसकी गर्दन तक ही पहुँच पाता. फिर भी लड़ता रहा... कच्चे रंगों वाली पांखड़ी जिस्म से उखड़ती रही.

लड़ाई तमाशा है. लोग-बाग़ देख रहे हैं. फोकट का मज़ा. बच्चे जोश में उछल रहे हैं. हांडा साहब का बेटा मोंटी भी है— अंग्रेज़ी स्कूल का झकाझक सफेद युनिफार्म पहने. वह हँस रहा है खूब. अपने मुर्गे को जीतता देखकर कम .. कालू को पिटता देखकर ज़्यादा. पंचू को बेबस खड़ा देखकर और भी ज्यादा.

आखिरकार पंचू ने कालू को पकड़ा.

तमाशा बंद. तमाशा ? सब हँस तो रहे हैं तमाशा जैसे. पंचू असमंजस में खड़ा है. हाथ में घायल कालू. न चाहते हुए भी पंचू की कातर दृष्टि उस तरफ उठ गयी... मोंटी हँसता हुआ दोहरा हुआ जा रहा है—हो-हो-हो...

कानों में जेठ की तपती लू सनसनाने लगी. भीतर-भीतर कुछ खदबदाने लगा था.

सुनील, राधे, बिज्जू, गुड्डू... सब हंसने का भूत सवार है. हँसी बहुत तेज़ है... बहुत.

पंचू अपमानित सर झुकाए घर लौटने लगा. उसकी पैबंद लगी ढीली पेंट कमर से निचे सरक आई... पीछे की विभाजक रेखा लड़कों को दिख गयी... वे हँसते-हँसते बेदम हो चले. पंचू ने जल्दी से पेंट ऊपर सरकाई, और भागते-भागते ऊंची आवाज़ में एक गाली छोड़ी...

“ये क्यों लड़ने गया था ? भाग के नहीं आ जाना था इसको?” परभू की पत्नी कालू पर गरम थी और कस रही थी. अलबत्ता डोकरी दाई दया से भरी थी—वो हरामी इसे छोटा जानकर काटा. अब आए तो वो कुकरा इधर, पंचू, धेला उठाके मारना... रोगहा मरीच जाए वहीं पर !

परभू शाम को घर आया तो उसको पता चला. उस मुर्गे को उसने एक वजनी गाली दी. फिर कुछ चिंदी जलाकर उसकी राख कालू के घावों में भरा गया. सुन्दरी बिचारी हैरान देखती रही इधर-उधर.

“मम्मी, क्या लड़ता है अपना मुर्गा!”खाने के समय डाइनिंग टेबल पर मोंटी ख़ुशी से चहक रहा था, बार-बार उसका मुक्का टेबल पर पड़ता, “और पापा, यूँ... यूँ .. यूँ मारता. वो खड़ा हुआ नहीं कि फिर... ”

हांडा परिवार मुर्गे के विजय से खुश था.

अब ऐसा नहीं है कि हांडा साहब का मुर्गा किसी से डरे ही नहीं. डरता है. बजरंगी साहू के घर के भुरवा कुत्ते से. गुर्राते वक़्त उसके बड़े-बड़े नुकीले पीले दांत खब-खब से बाहर दीखते हैं. मुर्गा-मुर्गियाँ उसको देखते ही भय से चीखते हैं—को-को-को-ओsssक्क ! को-को-को-ओsssक्क !

उस दिन दोपहर. घूरे में पड़ी हड्डियाँ और माँस के चिथड़े को भुरवा चीथ-चीथ के खा रहा था. अपना मुँह टेढ़ा करके सख्त से सख्त हड्डियाँ अपने जबड़े में पीस रहा था. मुर्गा आ निकला उधर. पीछे मुर्गियाँ. लालच. चोंच मारने की फिराक में. कि एकदम हाँव-हाँव करके शेर-सरीखा हबका. मुर्गा घबराकर वो भगा.... पीछे-पीछे भय से कुरकुराती कुरकुराती कुकरियाँ . दौड़ते-भागते जान बचाते पास की बेशर्म झाड़ियों में जा घुसे. बुरे फंसे. झाडी में अंदर घुस तो गए, न सरकते बने न आवाज करते. बिलकुल चुप्प! दम साधे !बाहर भुरवा सुन्घियता गुर्राता खड़ा है....

लेकिन इस भाग-दौड़ पर बजरंगी साहू की धर्मपत्नी की नज़र पड़ गयी- उनका कुत्ता !तुरंत गला फाड़कर बेटे को आवाज़ लगाई—अरे, जा तो रेsss राजूsss ! वो कुकुर तो कुकरा का परान ले लेगा !

उनका बेटा गली में गिल्ली-डंडा खेलना छोड़कर भगा. वो वहाँ से भुरवा को लतियाते लाया—चल साले! चल बे हरामी ! भुरवा अजीब दृष्टि से देखता वापस आया... जैसे माजरा समझ न आता हो...

घर में घुसते ही मालकिन ने आंगन में पड़ी जलाऊ चिरवा लकड़ी से जमकर स्वागत किया. मालकिन गुहार लगाकर पड़ोसियों को बता रही है—इसका नास होवे ! रोगहा ! हरामी गतर के !कहीं साहेब के कुकरा को खा जाता तो ! फोक्कट का महाभारत होता दीदी, फोक्कट का !साहेब तो दादा रे! आगी हो जाते आगी ! तोरे दइया तोरे मइया करने लगते !

भुरवा की पीठ थी और उनकी लात थी—दाँय-दाँय !

भुरवा के भय से भी मुर्गा सुरक्षित हो गया. भुरवा बेचारा अंदर से खखवाया, बस घूर के रह जाता है.

कालू समय से बढ़ता गया. कुछ ही महीनों में ऐसा हो गया कि जो देखता, तारीफ़ ज़रूर करता. हांडा साहब के मुर्गे से भी इंच भर ऊंचा. पंख गहरे काले हो गए... तेज़ धूप में झिलमिलाते. लम्बी और पुष्ट गर्दन में थूथन झूलने लगी. चोंच सख्त और पंजे नुकीले.

इस बीच होली आई और चली गई.

हुआ कुछ ख़ास नहीं. इस बार भी लोगों को लगा, अब होली में वह रंग नहीं रह गया. रहे कैसे ? तकलीफों का रंगहीन आकाश है... उदासी की मरियल पीली धूप है. फिर भी, रंग लाने के लिए कुलकर्णी बाबू ने अपने मुर्गे की गर्दन पकड़ी... छुरा चमका... खचाक !अद्धी चढ़ाकर माँस खाया. नशे का रंग ज्यादा गहरा गया. मुंदती आँखों को खोलने का प्रयास करते हुए बड़बड़ाते रहे... अपने मुर्गे के लिए रोते रहे...

मुहल्ले के और लोगों ने लगभग ऐसी ही होली मनायी. लेकिन परभू के घर में डोकरी महतारी माँ हो गयी—“नहीं बीटा नहीं! इतना दिन हो गया इसको घर में रहते. बिचारा घर का ही एक जीव हो गया है. फिर अभी तो देह में तोला भर माँस नहीं चढ़ा है. खाओगे किसको ? ठठरी हड्डी ?” तब पंचू दाई का पक्ष लेकर बोला, “ हाँ बाबू, खाना है तो बाजार से दूसरा ले आओ. मगर इसको मत मारो. ”

“मारो बाबू मारो !” बेटी रधिया खुलकर विरोध करने लगी, ”मरो.. रोज-रोज इसका हगना-मूतना साफ़ करो... हमको ये नइ सुहाता !”

तो पंचू आँखें तरेरकर रधिया को पीटने दौड़ा—“हाँ, तेरे को माँस खाना बड़ा सुहाता है! चुप मंसगिद्धीन !”

कुछेक को लगा था, हांडा साहब का लडंका कुकरा इस होली के बाद नजर नही आएगा. लेकिन दूसरी सुबह.... उसके पंखों में रंगों के छींटे थे... और सबको चिढ़ता-सा चिल्ला रहा था- कुकडूssक्कूsss ! कुकडूssक्कूsss !

आँय ! यह तो जिंदा है साला !

कुछ सप्ताह बाद ही हांडा साहब की बेटी की शादी होनी थी. सबको पता था, दो आटो-पार्ट्स की दुकानों के मालिक हांडा साहब बारातियों की जोरदार खातिरदारी करेंगे. चिकन तंदूरी बनेगा. मुर्गे-मुर्गियों से परेशान लोग फिर उनका मरना खोजने लगे. लेकिन इस अनुमान के गुब्बारे की हवा निकल गई. हुआ यह कि पाँच बड़े-बड़े दड़बे रिक्शों में लाए गए—कुल एक सौ आठ मुर्गियाँ. होटल पैराडाइज़ का मशहूर मिस्त्री बुलवाया गया –स्पेशल !मिस्त्री और उसका असिस्टेंट रात भर उस गली के एक कोने में मुर्गियों के गर्दन पर छुरा चमकाते रहे—खच्चाक! खच्चाक! सामने रखे तब में गर्दन विहीन मुर्गियाँ थोड़ी देर छटपटातीं छटपिट-छटपिट और फिर... गली के बच्चे-बूढ़े झुण्ड बना कर यह खेल देखते रहे. मिस्त्री से कटी हुई मुण्डियाँ लेने आस-पास के कुछ लोग जमा हो गए थे. रिक्शावाला गुलाब डोंगरे, गंगाराम की माँ, बिस्नू की डोकरी दाई... सब गदगद. बिस्नू की डोकरी दाई सरकारी नेत्र शिविर में मिले ऐनक को नाक पे सही जगह बिठाते हुए बोली--जुग-जुग जिओ बेटा ! हे भगवान्! कतना दिन के बाद आज माँस खाए ल मिलही! हमन तोर नाम लेबो बेटा...

फिर हांडा साहब की मुर्गियाँ? मुर्गा?

पता चला, शादी की भीड़-भाड़, धक्का-मुक्की और संभावित छेड़खानी से बचाने के लिए उन्हें एक रिश्तेदार के घर रखा गया था. सप्ताह भर वे उधर ही रहे. वे भी सरकारी चाकरों की तरह तबादले का लुत्फ़ उठाते रहे.

इधर कालू शादी-पार्टी की जूठन खा-खाकर और भी सेहत मंद हो गया.

सुन्दरी तो इतना खा चुकी कि गर्दन से घेंघा निकल आया.

सुन्दरी अब अंडा देने लगी थी. रधिया रोज सुबह उत्सुकता से उन पर रात से ढँका टोकरा उठाती है... वहाँ एक अंडा मिल जाता... मटमैला सफेद... ढुलमुल लुढकता हुआ.

शादी के बाद हांडा साहब के मेहमानों की रवानगी हुई और उनके मुर्गा-मुर्गियों की वापसी.

एक दिन कालू चारा चार रहा था निश्चिन्त. हांडा साहब का मुर्गा भी चार रहा था. , की सहसा क्या दुश्मनी हुई कि उसने उड़कर झपट्टा मारा. दोनों में थान गई. इतनी कि दोनों मरने-मारने पर उतारू. गर्दन की पांखियाँ खड़ी हो गयीं. आँखें गुस्से से बाहर आने लगीं...

देर तक लड़ते रहे. लेकिन अब कालू मजबूत था. दोनों घायल करते रहे एक-दुसरे को. गर्दन छिली... कलगी नुची...

इस बार भी तमाशा जुटा. मोंटी था और पंचू भी. अपने मुर्गे को पस्त पड़ता देख मोंटी के गुस्से का ठिकाना नहीं था. वह पंचू को घूर-घूर के देखता रहा.

कुछ देर बाद हांडा साहब का मुर्गा पस्त पड़ के भाग गया.

पंचू ख़ुशी के मारे चिल्लता हुआ दौड़ा—होsss! होsss!जीत गया! अपना मुर्गा जीत गया ! अपना कालू जीत गया!

गली में हल्ला हो गया.

-अरे वाह! परभू का कुकरा जीत गया !

--आँय ? कालू जीत गया?

--अच्छा हुआ. अच्छा हुआ साले का मुर्गा हार गया!

उस दिन गली में पंचू के साथी नाचने-गाने लगे--- जीतेगा भाई जीतेगा... हमारा मुर्गा जीतेगा! हमारी पार्टी जिंदाबाद... तुम्हारी पार्टी मुर्दाबाद!

कालू की इस धमाकेदार जीत के साथ उसका महत्व बढ़ गया. प्यार बढ़ गया. उसके रख-रखाव में ख़ास ध्यान दिया जाने लगा. सब उसे प्रसंशा की नजर से देखते. पूछते, कौन- सी नसल का है, परभू... ?

परभू खुश हो जाता. मुर्गे के नाम से उसका नाम हो रहा है. सही है... हाथी घूमे गाँव-गाँव... जिसका हाथी उसका नाँव !

चारा चुगने के दौरान अक्सर लड़ाई छिड़ जाती. हांडा साहब का मुर्गा लड़ते-लड़ते बेदम हो जाता. सुनहरी पांखियाँ झड़ने लगीं. भीतर की सफेद चमड़ी नंगी होकर झलकने लगी.

इधर जान-पहचान के लोग, घर में आने-जाने वाले लोग कालू की तारीफ़ करते न थकते.

--बढ़िया मुर्गा है!

--अब तो परभू, इसे मड़ई में लड़ाई का खेल खिलाओ

--मैं लगाऊंगा सरियत इसकी तरफ से.

--पैर में चक्कू बाँध देना!

---जीतेगा भाई! और जब जीतेगा तो हारनेवाला मुर्गा भी तुम्हारा !

--पर पुलिस-हवलदार से बचके. ये काम थोड़ा गैरकानूनी है. पुलिस तो कुछ भी दफा लगाके अन्दर कर देगा.

अपनी कोठी के आसपास कालू को घूमता देखकर मोंटी बौखला जाता. भन्नाकर गाली बकता. भगाता. पत्थर उठा के मारता.

कालू की वजह से हांडा साहब की नाक कुछ नीची हो गयी. वह परेशान थे.

हांडा साहब ने अपने मुर्गे का भोजन बढ़ा दिया. पौष्टिक आहार दिया जाने लगा. मक्का, ज्वार, बाजरा, गेहूँ, चावल... और भी किसिम-किसिम के दाने मुर्गे के सामने बिखरे होते. पौष्टिक आहार के नाम पर उबला हुआ आलू दिया जाने लगा. मुर्गा कुछ खाता, बाकी मुर्गियाँ हड़प जातीं. उनके किसी दोस्त का पोल्ट्री फार्म है. उन्हीं की सलाह पर मूंगफली की खल्ली देने लगे. परभू दयाल उनसे, किसी भी क्षेत्र में मजबूत रहे, यह कैसे हो सकता है?

उस दिन एक और कस के पटकनी दे दी कालू ने उसे. कि बस्स ! मामला उल्ट गया. हांडा साहब के मुर्गे का हौसला लंगड़ा हो गया. कालू उन मुर्गियों के साथ अब मजे से घूमता-चरता है, और हांडा साहब का मुर्गा, मुर्गा बना रहता है... बरसात में भीगा सा.. ठण्ड में दुबका सा...

कालू उस दिन उनके साथ ही घूमता रहा.

शाम हुई.

हांडा साहब के मुर्गा-मुर्गियों ने रोज की तरह कोठी में प्रवेश किया. कालू भी धीरे से पीछे-पीछे घुस गया.

हांडा परिवार बरामदे में शाम की चाय ले रहे थे. चाय का घूँट भरते-भरते हांडा साहब की नज़र कालू पर पड़ गयी. कालू! देखते ही चिल्लाये, ‘भगा उसे मोंटी... भगा साले को !’

‘ये हरामजादा कहाँ घुस आया?’ उनकी बीवी गुस्से से एकदम बिगड़ गयीं, ‘पकड़ उसे.. !

मोंटी कप रखकर तुरंत दौड़ा. उसे अपनी और दौड़ता पा कालू की घबराहट छूट गयी. घबराकर दौड़ा. बाहर की बजाय घर में ही एक और निकल गया. हांडा साहब की त्योरियाँ चढ़ गयीं. वे भी अपने भारी कुल्हे उठाकर पकड़ने दौड़े. कालू और भी द्र. दोनों तरफ घेराव. शत्रु सेना मजबूत. बचकर एक और निकला—को-को-को-को... वह चमकती चिकनी फर्श पर दौड़ भी नहीं पा रहा था. दौड़ते-भागते पंजे फर्श पर घिसट जाते... वह फिसल जाता. संभलते ही फिर भगा... कहाँ से भागे बाहर... रास्ता भी नहीं दीखता....

हड़बड़-हड़बड़ एक कमरे में घुस गया... किचन रूम था... छोटा सा... बचाव के लिए ऊपर उछला... अलमारी... उस पर सजे-सजाये बर्तन भड़भड़ा कर गिर पड़े... झन्न... झनन.. झन्न.. टन्नsss !

बीवी खाट पर बैठी-बैठी चीखी—हाय राम!

मारे डर के कालू को कुछ सूझ ही नहीं रहा था-को-को-को-को.... पीछे जैसे यमदूत. मौत का भय. को-को-को-को भागते-भागते ड्राइंग रूम में घुस आया. हांडा साहब बदहवास गालियाँ दहाड़ने लगे-—पकड़ साले को! वह टेबल में चढ़ा तो टेबल घड़ी एक और लुढ़क गयी.. भाग-दौड़ में टी. वी. सेट पर चढ़ गया... को-को-को-को... हड़बड़ी में ऊपर रखा चमकता गुलदान धडाम से नीचे आ गिरा... हैंडल टूट गया... टूटने-गिरने की आवाजों से कालू बुरी तरह डर गया... मानो सीधे मौत से सामना.. हांडा साहब का परा एकदम चढ़ चुका था... साला एक मुर्गा!पकड़ने दौड़े... कालू नीचे सोफे पर कूद गया... को-को-को-को... सोफे से पलंग पर.. इस कदर घबरा गया कि वहीं बीट निकल पड़ी... मक्खन कलर के रेशमी बेडशीट पर फ़ैल गया... बदबूदार काला धब्बा...

गुस्से से एक भद्दी गाली उनके मुँह से फूटी.

... कालू सहमता हुआ पलंग के नीचे घुसा... डर के मारे वहीं दुबका रहा...

मोंटी अब नहीं चूका. घुसकर धर दबोचा. फिर उसे हांडा साहब ने अपनी मजबूत पकड में ले लिया. भयभीत कालू बुरी तरह कर्कश आवाज़ में चीख रहा था... क्रोंक! क्रोंक! क्रोंक! और छटपटा रहा था छूटने के लिए.

इधर कालू को खोजते हुए आया पंचू दरवाजे पर सहमा खड़ा था. उसे लग नहीं रहा था कि पैरों के नीचे ज़मीन है... जान रहा था, साहब गुस्से में तमतमाए हैं. और सच में हांडा साहब के भीतर कसमसाता सारा गुस्सा जैसे उफन पड़ा... कालू के डैनों को मजबूती से पकड़ा और जोर-जोर से फ़र्श पर मरना पटकना शुरू कर दिया... भद्द! भद्द! भद्द! और कालू अपने बचाव के लिए पूरी ताक़त से चीख रहा था... क्रोंक! क्रोंक! क्रोंक!

पंचू की आँखें फटी की फटी रह गयीं!

“ले जा हरामजादे को ! फिर कभी इधर आया तो साले को काट के रख दूंगा!” हांडा साहब गुस्से से लाल हाँफ रहे थे.

अधमरा सा घायल कालू पंचू के हाथों में था.

इसके तीसरे दिन.

दिन के लगभग ग्यारह बजे रहर होंगे. पंचू स्कूल युनिफार्म पहनने की हड़बड़ी में था और रधिया बटकी भर बासी चटनी के साथ खाने की तैयारी में थी. आँगन में अप्रैल की शीशे सी झिलमिलाती तेज़ धूप छितरी थी.

कालू और सुन्दरी घर के आगे चारा चुग रहे थे. एकाएक कालू लड़खड़ाकर गिरा... ऐंठकर छटपटाने लगा. पंचू देखते ही दौड़ा---बाबू! कालू को देखो तो !

परभू उसे उठाकर छांह में ले आया. अपने पटके से हवा करने लगा. उसके खुली चोंच पर उँगलियों से पानी टपकाने लगा. गर्मी का खराब मौसम... कुकरा -कुकरी की नाजुक जात... चकराकर गिर पड़ा होगा...

थोड़ी देर तक कालू की देह में हरकत होती रही. फिर ऐंठकर सहसा ढीला पड़ गया. हलकी कराह के साथ आँख पर पीला पर्दा पड़ गया.

सब चकराए. पड़ोसी हरखू भी आ गया. अंदाज़ लगते बोला, कुकरा को रानीखेत रोग लग गया होगा जी. इस रोग से ये पटापट मरते हैं.

‘लू से चकराकर गिर पड़ा होगा... ’विस्मित पत्नी बोली.

विश्वास को भी जैसे लू लग गया.

परभूदयाल ने पंचू से पूछा, “अरे, अभी तो यहीं बढ़िया चर रहा था ना?”

पंचू ने बताया, “ हाँ, अभी थोड़ी देर पहले न हांडा साहब के घर के सामने चर रहा था... ”

परभूदयाल की आँखें सिकुड़ गयीं. माथे पर सोच की गहरी लकीरें उभर आयीं.

इधर चौरा में बैठी डोकरी दाई बड़बड़ा रही है, ‘अरे, तुम्हर सइतानास होवै!मार डारिस रोगहा मन हमर कुकरा ला... मार डारिस जलनकुकड़ा मन जहर-महुरा देके... तुम्हर सइतानास होवै ! तुम्हर... ’

मुर्गा वैसे ही शांत पड़ा था – चोंच खुले हुए और पंजे अकड़े हुए...

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कैलाश बनवासी

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