हाँ मेरी बिट्टु

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हाँ मेरी बिट्टु हृषीकेश सुलभ उसके आते ही मेरा कमरा उजास से भर गया। ‘‘भाई साहब! नमस्ते!......मैं अन्नी हूँ,.... अन्नी।’’ मुझे भौंचक पाकर वह खिलखिला उठी। फिर बहुत सहजता और विश्वास से उसने कहा - ‘‘मैं जानती थी कि मुझे अचानक अपने कमरे में पाकर आप चौंक उठेंगे।’’ मैं हाथ में आईना लिये उसे निहार रहा था। मैं आईना टाँगने के लिए उचित जगह की तलाश में था। कमरे की दीवारों पर कीलें ठोकना मुझे कभी अच्छा नहीं लगा, सो पहले से ठोकी गई कीलों में से चुनाव करने में लगा था कि वह दबे पाँव कमरे में आ गई।