राम रचि राखा - 6 - 3

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राम रचि राखा (3) "मैंने तो तुम्हें दोपहर में ही बुलाया था। समय से आ गए होते तो अब तक गेहूँ कट भी गया होता। यह नौबत ही नहीं आती...।" हीरा ने अपने ऊपर आने वाली किसी भी किस्म के लांछन को परे धकेलते हुए कहा। फिर सांत्वना देते हुए बोले - "लेकिन जो होना होता है, हो ही जाता है... होनी को कौन टाल सकता है।" मुन्नर एकटक जली हुयी गाँठों को देख रहे थे। उसके राख की कालिमा उनके अन्दर उतरने लगी थी। जैसे साँझ का अँधेरा सूरज की कमजोर पड़ रही किरणों को निगलते हुए हुए धरती