एक कप चाय और...तुम- सुनील पंवार

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अमूमन ऐसा होता है कि जब मैं कोई किताब ऑनलाइन मँगवाता हूँ या फिर कोई मित्र स्नेहवश मुझे अपनी किताब उपहार स्वरूप पढ़ने के लिए भेजता है तो उस किताब पर सरसरी नज़र दौड़ाने के बाद मैं उसे कुछ दिनों के लिए एक तरफ रख, कुछ समय के लिए भूल जाता हूँ कि मुझे अपने पहले से चल रहे तयशुदा क्रम को तोड़ना पसन्द नहीं। लेकिन इस बार कुछ ऐसा हुआ कि एक पुस्तक जो मुझे उपहार स्वरूप मिली तो चाय की चुस्कियों के बीच, उसका लिफ़ाफ़ा खोलने के बाद जब मैंने उस पर सरसरी तौर पर अपनी नज़र दौड़ाई