रईसज़ादा

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रईसज़ादा --------- पता नहीं रविवारीय सूरज की रोशनी दिखाई देते ही वह चौकन्नी सी क्यों हो जाती थी जैसे कोई कुछ छीनने आ रहा हो उससे ।खिड़की के अधखुले पल्ले से छनती ताज़ी झाँकती सी रोशनी से उसके मन की धुकड़-पुकड़ बढ़ने लगती थी , अब बस दिन के भरपूर उजाले की दुहाई , आज आ तो नहीं जाएगा वो?पापा से मिलने के बहाने अपने पिता के साथ वह कितने महीनों से रविवार को शाम की चाय पीने पहुँच ही जाता । सीटियाँ सी बजने लगतीं निन्नी के कानों में ! खुशी