समीक्षा के आइने में-रत्नावली

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समीक्षा के आइने में-रत्नावली वेदराम प्रजापति ‘मनमस्त’ कभी- कभी, विनोद के लहजे में कही गई अटल सत्य बात भी इतनी कड़वी हो जाती है कि जीवनभर सभाँलने पर भी नहीं सभँलती। इसीलिये विद्वान मनीषियों का उपदेश है -‘सत्यं ब्रूयात प्रियम।’ इसी धारणा ने श्री रामगोपाल भावुक जी को उद्वेलित कर, रत्नावली जैसें उपन्यास की संरचना करवायी है। श्री भावुक जी का मानस इन्हीं रंगों को आवरण पृष्ठ पर उकेरते हुये, जीवन यात्रा के संघर्षें को नया रूप देता दिखा है। जिसकी झलक अपनी भावांज्ली- ‘ऐसे मिली रत्नावली’ में सारतत्व की परिधि के साथ दी गई